कुंभ : भारतीय संस्कृति का जीवंत स्वरूप

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भारतीय संस्कृति का जीवंत स्वरूप है कुंभ महापर्व।धर्म,आस्था और अध्यात्म का दिव्य समागम है कुंभ महापर्व।यदि समग्र सनातन संस्कृति के भव्यतम स्वरूप का दर्शन करना है,तो उसके लिए सर्वश्रेष्ठ और सुलभ अवसर है कुंभ महापर्व।
एक ऐसा पर्व जहां विभिन्नताएं दिव्यता और आध्यामिकता के प्रवाह में तिरोहित हो जाती हैं।

सनातन काल से ही भारतीय समाज धार्मिक आस्थाओं और अध्यात्म में अपने जीवन सूत्र खोजता रहा है। इसी खोज के सिलसिले में लाखों करोड़ों लोग कुंभ मेलों की ओर खिंचे चले आते हैं।
आस्थावान सनातनी कुंभ के दिव्य वातावरण और धर्म गुरुओं के सानिध्य को देवीय अनुकंपा के रूप में देखते हैं।

कुंभ ही ऐसा पर्व है जब सनातन धर्म के सर्वोच्च धर्मगुरु चारों पीठों के पूज्यपाद शंकराचार्य, महामंडलेश्वर, मंडलेश्वर, विभिन्न अखाड़ों के साधु संत और सनातन धर्म की समस्त धाराओं- उपधाराओं से संबद्ध सिद्ध-साधक-तपस्वी एक साथ, एक ही धरा पर एकत्रित होते हैं।

लाखों करोड़ों लोगों की हिलोरें मारती आस्था और चहुंओर उमड़ते जन सैलाब में विभिन्नताएं और मतमतांतर जैसे अस्तित्वहीन हो जाते हैं।
यहां आकर ना तो कोई ऊंच-नीच का विचार करता है और ना ही छोटे-बड़े का भेद बचता है। यहां आने वाले हर सनातनी के मन मस्तिष्क में केवल एक ही विचार प्रभावी होता है कि कैसे कुंभ पर्व की दिव्यता को आत्मसात किया जाए। सनातनी ही क्यों,अब तो अन्यान्य धर्मावलंबी भी कुंभ महापर्व की दिव्यता का साक्षी सहभागी होना अपना सौभाग्य समझते हैं।

कुंभ पर्व कब से प्रारंभ हुए इसका स्पष्ट विवरण तो नहीं मिलता किन्तु विभिन्न साक्ष्य इसकी प्राचीनता को प्रमाणित करते हैं । भारतीय परंपरा के प्राचीनतम ग्रंथ ऋग्वेद में कुंभ पर्व के दौरान तीर्थ यात्रा, स्नान-ध्यान से पाप कर्मों के नष्ट होने का उल्लेख मिलता है। शुक्ल यजुर्वेद एवं अथर्ववेद में भी कुंभ का उल्लेख है।
चीनी और फ्रांसीसी यात्रियों ने अपने यात्रा विवरण में कुंभ जैसे मेलों का वर्णन किया है ।

कुंभ का वर्तमान स्वरूप और परंपरा मध्यकाल में प्रतिष्ठित हुए । कुंभ पर्व को सुगठित स्वरूप प्रदान करने में आद्य शकंराचार्य (788-820) नेे अहम भूमिका निभाई ।
पौराणिक आख्यानों में कुंभ पर्व का संबंध देवासुर संग्राम और समुद्र मंथन से जोड़ा जाता है। पद्मपुराण, ब्रह्याण्ड पुराण, विष्णु पुराण, वायुपुराण, भागवतपुराण, कूर्मपुराण, मत्स्यपुराण, स्कन्द पुराण आदि में देवासुर संग्राम और समुद्र मंथन संबंधी कथाएँ आती हैं।
इन कथाओं के अनुसार देव शक्तियों और असुर शक्तियों का संघर्ष हमेशा से चलता रहा है ।
पृथ्वी पर मौजूद समस्त रत्नों को हस्तगत करने के बाद देवताओं और असुरों के मन में समुद्र के रत्नों को प्राप्त करने की उत्कंठा हुई । यह एक श्रमसाध्य कार्य था जिसे अकेले देवता या असुर नहीं कर सकते थे ।
परिस्थिति ने दोनों में समझौता कराया और रत्नों की चाह में देव और असुर साथ मिलकर समुद्र मंथन के लिए राजी हुए । स्वयं भगवान विष्णु ने कूर्म अवतार लेकर मन्दराचल पर्वत रूपी मथानी को अपने ऊपर धारण किया । नागराज वासुकि रस्सी बने। नागराज वासुकि के मुंह की और असुर और पूंछ की ओर देवताओं ने पकड़कर समुद्र मंथन किया ।
देवों और असुरों के इस साझा प्रयास के परिणाम स्वरूप समुद्र से 14 रत्न प्रकट हुए -लक्ष्मी, कौस्तुभ मणि, पारिजात पुष्प ,वारूणि (सुरा), चन्द्रमा, गरल, शांर्ग धनुष, पांचजन्य शंख, कामधेनु गाय, रम्भा, उच्चैश्रवा अश्व, ऐरावत हाथी, धन्वन्तरी और अमृत ।
(अलग-अलग पुराणों में मंथन से निकले रत्नों के नाम में भेद पाया जाता है।)
महादेव ने हलाहल अपने कंठ में धारण किया। विष्णु भगवान ने लक्ष्मी जी का वरण किया। अन्य रत्न भी विभिन्न देवताओं को प्राप्त हुए। जिस अमृत कलश को लेकर धन्वन्तरी स्वयं प्रकट हुए थे, वह देवों और असुरों में संघर्ष का कारण बना।
देवगण असुरों को अमृत का पान नहीं कराना चाहते थे,क्योंकि ऐसा होने से आसुरी प्रवृत्तियों को अमरता प्राप्त हो जाती, लेकिन असुर हर हालत में अमृत पान करना चाहते थे।
देवराज इंद्र के इशारे पर इंद्र का पुत्र जयंत अमृत कुंभ लेकर स्वर्ग की ओर भाग गया। दैत्यों ने उसका पीछा किया। कलश को प्राप्त करने के लिए देवों और असुरों में संघर्ष हुआ। यह संघर्ष देवताओं के 12 दिनों तक चला जो पृथ्वी के बारह वर्षों के बराबर था। इस संघर्ष में अमृत कलश से कुछ बूदें पृथ्वी पर छलक गईं। यह स्थान थे प्रयाग, हरिद्वार, नासिक और उज्जयिनी।अमृत गिरने से यह स्थान पवित्र तीर्थ के रूप में प्रतिष्ठित हुए।इन्हीं चार पवित्र तीर्थ स्थानों पर कुंभ मेले आयोजित किए जाने लगे।
अमृत पर्व कुंभ गृह नक्षत्रों की उन विशेष स्थितियों में मनाए जाते हैं , जो स्थितियां पृथ्वी पर अमृत छलकने के समय पर थीं। गृह नक्षत्रों की यह विशेष स्थितियाँ चारों स्थानों पर अलग-अलग होती हैं।
यह भी उल्लेख मिलता है कि कुल बारह कुंभ पर्व मनाए जाते हैं जिनमें से 4 पृथ्वी पर और 8 पर्व देवलोक में आयोजित होते हैं।

कुंभ के उद्भव की कथा समुद्र मंथन के फलस्वरुप उत्पन्न अमृत के साथ जुड़ी हुई है। दरअसल भारतीय ज्ञान परंपरा ‘जीवन समुद्र’ को मथकर अमृत तत्व की प्राप्ति को ही सर्वोच्च ध्येय मानती रही है। अमृत तत्व अर्थात वह ज्ञान जो जीवन को सफल ही नहीं सार्थक भी बनाता है और अंततः मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करता है। भारतीय जनमानस में अनादि काल से मौजूद मंथन की यही प्रवृत्ति लोगों को कुंभ मेलों की ओर आकर्षित करती है।

प्रयागराज कुंभ : व्यवस्थाओं पर भारी पड़ी भीड़

13 जनवरी से 26 फरवरी 2025 तक प्रयागराज में आयोजित कुंभ में परंपरा और आधुनिकता का अद्भुत सामंजस्य देखने को मिल रहा है। एक और जहां धर्माचार्यों और अखाड़ों के शिविर आकर्षण का केंद्र बने हुए हैं वहीं सरकारी स्तर पर भी व्यवस्थाओं के स्तर पर कोई कसर नहीं छोड़ी जा रही।
लगभग 4000 हैक्टेयर में भव्य मेला क्षेत्र विकसित कर इसे पृथक जिला घोषित कर दिया गया है।मेला अवधि के दौरान लगभग 40 करोड़ श्रद्धालुओं के आने का अनुमान लगाया गया है। यात्रियों की सुविधा के लिए संगम किनारे सर्व सुविधायुक्त टेंट सिटी विकसित की गई है। हजारों यात्रियों की क्षमता वाले आश्रय स्थल बनाए गए हैं। निशुल्क भोजन के लिए सामुदायिक रसोई की व्यवस्था की गई है। डेढ़ लाख से अधिक अस्थाई शौचालय बनाए गए हैं। स्वच्छता के लिए 15000 से अधिक स्वच्छता कर्मी और 2500 से अधिक गंगा सेवा दूतों की तैनाती की गई है। घाटों पर लोगों की सहायता के लिए 5000 कुंभ सेवा मित्र तैनात किए गए हैं। यात्रियों की स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं के समाधान के लिए मेला क्षेत्र में 6000 बिस्तर, 125 एम्बुलेंस, रिवर एम्बुलेंस और एयर एंबुलेंस भी 24 घंटे तैनात रखी गई है। मेला क्षेत्र में 50 फायर स्टेशन स्थापित किए गए हैं। सुरक्षा के लिए 37000 से अधिक पुलिसकर्मी लगाए गए हैं। लगभग 3000 सीसीटीवी भी मेला क्षेत्र में लगाए गए हैं। इसके साथ ही देशभर से हजारों बसें एवं ट्रेन यात्रियों की आवागमन के लिए लगाई गई हैं। हिंदी,अंग्रेजी एवं 9 अन्य भारतीय भाषाओं में यात्रियों को जानकारी उपलब्ध कराने की व्यवस्था की गई है। यात्रियों को कुंभ इतिहास,आध्यात्मिक गुरु,यात्रा एवं आवास, टूर पैकेज,मुख्य आकर्षण,मुख्य कार्यक्रम एवं नागरिक सुविधा संबंधी जानकारी एक क्लिक पर उपलब्ध हो सके,ऐसी व्यवस्था की गई है।

इसके बावजूद मौनी अमावस्या के दिन हादसे को टाला नहीं जा सका। पर्व स्नान कर पुण्य प्राप्त करने की लालसा में संगम तट पर उमड़ी श्रद्धालुओं की भारी भीड़ व्यवस्थाओं पर भारी पड़ गई। जैसा कि चलन है,हादसे के बाद तमाम आरोप-प्रत्यारोप सामने आएंगे।थोड़े दिन चर्चा होगी,और लोग अगले पर्व स्नान की तैयारी में जुट जाएंगे। आम लोग इसके अलावा और कर भी क्या सकते हैं?
लेकिन अब समय आ गया है कि धर्मध्वजवाहक और सरकारों सहित व्यवस्था में संलग्न तमाम एजेंसियां इस बात पर विचार करें कि तीर्थों और धर्मस्थलों पर आम श्रद्धालुओं की बनिस्बत व्हीआईपी को तरजीह देना कहां तक उचित है?
धर्मस्थलों पर धक्के खाते आम लोगों के सामने से जब व्हीआईपी की गाड़ियां दनदनाती हुई निकलती हैं,तो यकीन मानिए उन्हें आम लोगों की दुआएं तो नहीं ही मिलती होंगी। हजारों-लाखों लोगों की परेशानी के बीच व्हीआईपी पुण्य लाभ अर्जित कर पाते होंगे,धर्म की सामान्य जानकारी और समझ के अनुसार, ऐसा होना तो नहीं चाहिए। उल्टे, आम श्रद्धालुओं की भाषा में जिसे पाप कहा जाता है, वह जरूर उन्हें लगता होगा।
होना तो यह चाहिए कि अति विशिष्ट लोग खुद ही संयम बरतें। जहां उनकी उपस्थिति आम लोगों के लिए परेशानी का कारण बनती हो, वहां जाने में परहेज बरतें। फिर भी यदि धार्मिक आस्था ज़ोर मारे तो आम आदमी बनकर ही जाएं।
वर्तमान दौर शास्त्र सम्मत तीर्थ सेवन का नहीं,धार्मिक पर्यटन का है।धर्मस्थलों पर बेतहाशा भीड़ बढ़ी है। सोशल मीडिया शुभ मुहूर्त और पुण्य प्राप्त करने के उपायों की अधकचरी जानकारी से भरा पड़ा है। ऐसे में भीड़भाड़ भरे स्थानों पर शुभ मुहूर्त में पुण्य अर्जित करने का उतावलापन हादसों का कारण बनता है।
ऐसा नहीं है कि प्रयागराज कुंभ में मौनी अमावस्या पर हुआ यह पहला हादसा है। इसके पहले 1954 और 2013 में भी हादसे हो चुके हैं। लेकिन इस बार दावा दिव्य, भव्य और डिजिटल कुंभ के आयोजन और अचूक व्यवस्थाओं का था, इसलिए हादसे की चर्चा भी होगी और उसके जिम्मेदारों की भी। चर्चा इसलिए भी होगी कि हादसे से संबंधित सैकड़ो वीडियो आम जनता में वायरल हैं।
हमेशा की तरह सरकार के पक्ष और विपक्ष में बयानवीरों के बोल-वचन भी वायरल हैं। साधु संतों की प्रतिक्रियाएं भी सामने आई हैं। अनसुना है तो भुक्तभोगी आम श्रद्धालुओं का दर्द।
इस सब के बीच कुंभ पर्व भी जारी है और धर्म प्राण जनता का तीर्थराज प्रयागराज के संगम तट पर पहुंचना भी जारी है।
उम्मीद है,मौनी अमावस्या के हादसे से व्यवस्थापकों और श्रद्धालुओं ने सबक जरूर लिया होगा।
अलग-अलग अनुमानों के अनुसार 31 जनवरी 2025 तक लगभग 20-22 करोड़ से अधिक श्रद्धालु संगम में डुबकी लगा चुके हैं। इस दृष्टि से यह विश्व का सबसे बड़ा जन समागम है।

*अरविन्द श्रीधर

पेंटिंग सौजन्य – आलोक भावसार

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