*अरविन्द श्रीधर
क्या 182 पृष्ठों में भारतीय ज्ञान परंपरा के विविध आयामों को समेटा जा सकता है? सामान्यतः इसका उत्तर होगा नहीं,लेकिन वेद,वेदांत और भारतीय मनीषा के अन्वेषक-अध्येता आचार्य प्रभु दयाल मिश्र ने इसे संभव कर दिखाया है।
महाराजा विक्रमादित्य शोध पीठ द्वारा प्रकाशित उनकी कृति “भारतीय ज्ञान परंपरा-विविध आयाम” इस दृष्टि से एक महत्वपूर्ण प्रयास है।
भारतीय ज्ञान परंपरा की शायद ही कोई ऐसी शाखा होगी जिसकी चर्चा इस पुस्तक में ना हो।वैदिक ॠचाओं से लेकर शाबर मंत्रो तक, भारतीय ज्ञान परंपरा की हर शाखा पर मिश्र जी ने प्रकाश डाला है,जो उनके गहन अध्ययन-अन्वेषण का परिचायक है।

“ज्ञान के पर्याय वेद” शीर्षक अध्याय से ग्रंथ का प्रारंभ होता है। अध्याय में वेद संहिता,वेदांग(शिक्षा,कल्प, व्याकरण,निरुक्त,ज्योतिष और छंद) और उपनिषद्- वेदांत विषयक संक्षिप्त लेकिन सारगर्भित जानकारी दी गई है। वेद वेदांत में प्रतिपादित विषय गूढ़ रहस्यों से भरे हुए हैं। ऐसे पाठक जो वेदों के संदेश से परिचित तो होना चाहते हैं लेकिन विषय की गूढ़ता आड़े आती है, उनके लिए पुस्तक में
वेदों का सार बताते हुए कहा गया है – “वेदों का सार उपनिषद्, उपनिषद् का सार गीता, गीता का सार इसका अध्याय 15 और अध्याय 15 का सार श्लोक 15 है,जिसमें भारतीय अध्यात्म का सार सर्वस्व है।”
योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं –
सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज् ञानमपोहनं च।
वेदैश्च सर्वेरहमेव वेद्दो वेदांतकृद्वेदविदेव चाहम।।
(मैं सभी के हृदयों में स्थित हूं तथा मुझ में ही स्मृति ज्ञान तथा विभ्रम दूर होता है।वेदों द्वारा मैं ही जानने योग्य हूं तथा वेदांत का कर्ता और वेदों का जानने वाला मैं ही हूं।)
“आस्तिक षड्दर्शन और नास्तिक दर्शन-त्रय” शीर्षक अध्याय भारतीय दर्शन रूपी अगाध समुद्र को गागर में भरने का प्रयास है। न्याय दर्शन,सांख्य दर्शन,वैशेषिक दर्शन,मीमांसा,योग दर्शन,वेदांत दर्शन,जैन दर्शन,बौद्ध दर्शन और चार्बाक दर्शन की इससे सरल और संक्षिप्त व्याख्या और क्या हो सकती है?
सनातन परंपरा सहित विश्व के विद्वत जगत में श्रीमद् भगवद्गीता का विशिष्ट स्थान है। लेखक का कहना है कि गीता का संदेश इतना सार्वभौमिक और अपरिहार्य है कि कोई भी देश,सभ्यता,धर्म, विज्ञान और समाज इसके प्रकट आधार को अस्वीकृत नहीं कर सकता।
भारतीय ज्ञान की अमूल्य धरोहर में से सहज ग्राह्य उद्धरणों को चुनकर इस तरह से प्रस्तुत किया गया है ताकि पाठक विशेष मानसिक श्रम किए बगैर ही उसे आत्मसात कर सकें।
पुरुषार्थ चतुष्टय-धर्म,अर्थ,काम और मोक्ष में धर्म की चर्चा सर्वाधिक होती है। धर्म की सहज व्याख्या के लिए लेखक महाभारत से एक श्लोक को उद्धृत करते हैं-
अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम्।
परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम्।।
(अठारह पुराणों में व्यास ने जो कुछ भी कहा है उसका सार केवल इतना ही है – परोपकार ही पुण्य है और दूसरे को पीड़ा पहुंचाना ही पाप है।)
क्या भारतीय ज्ञान परंपरा के इतर धर्म की इतनी सहज,सरल और बोधगम्य व्याख्या देखने में आती है?
ग्रंथ के अन्य अध्याय हैं-लोक में परमेश्वर और उसके अवतार, योग और ज्ञान परंपरा,प्राचीन भारतीय चिकित्सा पद्धति, शास्त्रीय संगीत,नाटक और नृत्य,भारतीय कलाएं, भित्ति और शिलालेख,राम राज्य की भूमिका, ब्रह्मांड विज्ञान और सृष्टि रचना, प्रकृति और पर्यावरण का पृथिवी सूक्त, सामाजिक समरसता की भक्ति धारा, ज्ञान परंपरा का प्रहरी प्रतिष्ठान- गीता प्रेस और संस्कृत की अथाह शब्द संपदा।
हर अध्याय संक्षिप्त होते हुए भी अपने आप में परिपूर्ण है।
जैसा कि पूर्व में ही कहा जा चुका है बृहद भारतीय ज्ञान परंपरा के विविध आयामों को 182 पृष्ठों की पुस्तक में समेटना ना केवल एक श्रमसाध्य कार्य है अपितु इसके लिए गहन अध्ययन अन्वेषण भी अपेक्षित है।अगाध ज्ञान समुद्र में गोता लगाकर लोकोपयोगी मोतियों का चयन करना और उन्हें इस रूप में प्रस्तुत करना कि शास्त्र की मर्यादा भी बनी रहे और विषय वस्तु भी सहज ग्राह्य बनी रहे,एक मनीषी अन्वेषक के लिए ही संभव है। इस दृष्टि से आचार्य प्रभु दयाल मिश्र का यह प्रयास सराहनीय भी है और अभिनंदननीय भी।
पुस्तक में कहीं भी पांडित्य का प्रदर्शन नहीं है,जबकि विषय की गंभीरता और मिश्र जी के अध्ययन-अन्वेषण के विस्तृत फलक को देखते हुए ऐसा हो जाना संभव था।
एक और दृष्टि से यह कृति उपयोगी साबित हो सकती है। जो भी इसे पढ़ेगा, उसके मन में भारतीय ज्ञान परंपरा के विविध आयामों के बारे में गहराई से जानने की उत्कंठा जरूर पैदा होगी। जिज्ञासुओं के लिए यह पुस्तक एक प्रकार से पूर्व पीठिका का काम करेगी।
भारतीय ज्ञान परंपरा के बारे में प्रामाणिक जानकारी की इच्छा रखने वाले हर व्यक्ति को यह पुस्तक अवश्य पढ़नी चाहिए।
*अरविन्द श्रीधर
वाह अरविंद जी । आपने सभी कुछ समेट लिया है ।
श्री अरविन्द श्रीधर जी की समीक्षा पढ़कर पुस्तक समीक्षा लिखने की प्रेरणा हुई।समीक्षक ने सूक्ष्म निरीक्षणी दृष्टि से भारतीय ज्ञान परम्परा विविध आयाम के हर एक पहलू को गहराई से विश्लेषित किया। शानदार समीक्षा के लिए साधुवाद एवं बधाइयां।
प्रोफेसर डॉ सरोज गुप्ता, सागर मध्यप्रदेश