न्यूनतम समर्थन मूल्य : गारंटी पर उलझी गुत्थी

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बाजार के उतार-चढ़ाव के फलस्वरूप किसानों द्वारा उत्पादित अनाज की कीमतों में भी अनिश्चितता बनी रहती है। किसानों को उनकी मेहनत और लागत के अनुरूप कीमतें प्रायः नहीं मिल पातीं। किसानों को नुकसान ना हो और उन्हें अपनी फसल के उचित दाम मिलें, इसके लिए सरकार अपनी एजेंसियों, मुख्यतः भारतीय खाद्य निगम के माध्यम से समर्थन मूल्य पर फसलों की खरीदी करती है।
वर्तमान में भारत सरकार द्वारा 23 फसलों पर समर्थन मूल्य घोषित किया जा रहा है। इनमें गेहूं, धान,मक्का,ज्वार,बाजरा,जौ,रागी चना,तुवर,मूंग, उड़द,मसूर,मूंगफली,रैपसीड,सरसों सोयाबीन, सूरजमुखी,कुसुम,रामतिल,खोपरा,गन्ना,कपास एवं जूट शामिल हैं।
1966-67 से ही समर्थन मूल्य ‘कृषि लागत एवं मूल्य आयोग’ (सीएसीपी)द्वारा निर्धारित फार्मूले के तहत तय किए जाते हैं।
इसे तय करते समय खेती की लागत, बाजार की स्थिति, मांग और आपूर्ति की स्थिति, परिवार के श्रम का मूल्य, जमीन का किराया आदि बिंदुओं को शामिल किया जाता है।
व्यावहारिक रूप से धान और गेहूं की खरीद सर्वाधिक होती है जिसे सार्वजनिक वितरण प्रणाली के जरिए गरीब तबकों तक पहुंचाया जाता है। आकस्मिक परिस्थितियों के लिए अनाज का जो बफर स्टॉक रखा जाता है,उसे भी सरकार समर्थन मूल्य पर ही किसानों से क्रय करती है। इसके अतिरिक्त कुपोषित बच्चों को पौष्टिक आहार, मध्यान्ह भोजन एवं गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले नागरिकों को निशुल्क अनाज देने जैसी योजनाओं के क्रियान्वयन में भी समर्थन मूल्य पर क्रय किए गए अनाज का उपयोग होता है।

वर्तमान में भारत सरकार इस मद पर लगभग 2.50 लाख करोड़ रुपए व्यय कर रही है।

विशेषज्ञों के अनुमान के अनुसार यदि समर्थन मूल्य की कानूनी गारंटी दी जाती है और सरकार सारी फसलों को एमएसपी पर क्रय करती है तो इसके लिए लगभग 10 लाख करोड़ रुपए का प्रावधान करना पड़ेगा, जबकि 2025-26 के बजट में पूंजीगत निवेश 11.21 लाख करोड़ रुपए ही अनुमानित है।
जाहिर है,सरकार के लिए यह कर पाना संभव नहीं है।

एक अन्य व्यावहारिक कठिनाई भी है। अलग-अलग राज्यों में फसलों के लागत मूल्य भी अलग-अलग हैं। जैसे कि पंजाब में धान का लागत मूल्य लगभग 850 रुपए प्रति क्विंटल है तो महाराष्ट्र में लगभग ₹2000 प्रति क्विंटल,जबकि समर्थन मूल्य 2100 रुपए ही है।
इस दृष्टि से देखा जाए तो महाराष्ट्र के किसानों को पंजाब की किसानों की तुलना में कम लाभ हुआ।

किसान नेताओं के अपने तर्क हैं। उनका कहना है कि जब उद्योगपतियों के 20-25 लाख करोड़ रुपए के कर्ज़ सरकार माफ कर सकती है, तो एमएसपी गारंटी कानून से देश की अर्थव्यवस्था चरमराने के दावे स्वीकार्य नहीं हैं। यह भी कि भारत में घरेलू मांग के मुकाबले गेहूं और चावल के उत्पादन में मामूली ही अधिशेष है,जबकि तिलहन और दालों आदि का उत्पादन तो अभी घरेलू मांग की तुलना में बहुत कम है। 2022-23 में ही 1.3 लाख करोड रुपए का खाद्य तेल और 20 हजार करोड़ रुपए की दालों का आयात किया गया था।
किसान संगठनों का कहना है कि निहित स्वार्थी तत्व ही एमएसपी को कानूनी गारंटी प्रदान करने के ख़िलाफ़ माहौल बना रहे हैं।
यह एक गंभीर मुद्दा है जिसे राजनीतिक रंग देना उचित नहीं है।
फिर ऐसा क्या किया जाए कि किसानों को उनकी फसलों का उचित मूल्य भी मिले और अन्य विकास कार्य भी प्रभावित ना हों?

जब तक इसका स्थाई समाधान नहीं निकलता तब तक के लिए कुछ ऐसे कदम उठाए जा सकते हैं जो किसानों को संरक्षण प्रदान करने वाले हों।
देश में 15 कृषि जलवायु क्षेत्र घोषित किए गए हैं।
सबसे पहले तो किसानों को कृषि जलवायु क्षेत्र के अनुरूप फसलें बोने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए,जैसा कि अफीम उत्पादन के मामले में होता है।फिर उसी आधार पर निर्धारित फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था की जा सकती है।

यह भी किया जा सकता है कि सरकार द्वारा समर्थन मूल्य पर खरीदी का कार्यक्रम कुछ इस तरह से बनाया जाए कि पहले लघु एवं सीमांत कृषक(जिनकी संख्या सर्वाधिक है) लाभान्वित हों, फिर शेष कृषक। इस व्यवस्था से छोटे किसानों को बहुत राहत मिलेगी।

प्रत्येक राज्य को अपनी कृषि उत्पादन नीति बनानी चाहिए जिसमें कृषि जलवायु क्षेत्र के अनुरुप फसलों की अनुशंसा, उत्पादन,विपणन एवं निर्यात की संभावनाएं आदि को शामिल किया जा सकता है।
अभी सामान्य प्रचलन यह है कि छोटे किसान अपनी जरुरत अथवा उपलब्ध संसाधनों के अनुसार फसल बो देते हैं, जो प्रायः ना तो स्थानीय कृषि जलवायु के अनुकूल होती हैं और ना ही उत्पादकता की दृष्टि से फायदेमंद।

अनाज के भंडारण एवं रखरखाव की भी उचित व्यवस्था होनी चाहिए। कौन सा अनाज कितनी मात्रा में क्रय किया जाना है, यह भी नीति के अनुसार ही सुनिश्चित किया जाना चाहिए।

केंद्र सरकार के खरीदी लक्ष्य के अतिरिक्त स्थानीय आवश्यकतानुसार राज्य सरकारों को भी उन फसलों की खरीदी करना चाहिए, जिनके लिए केंद्र सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित नहीं करती।
सरकार को समर्थन मूल्य निर्धारित करने के पूर्व कृषक समूहों से भी राय मशवरा करना चाहिए। उन्हें पूरी प्रक्रिया में शामिल किया जाना चाहिए।

कई बार देखने में आता है कि अधिक उत्पादन होने के कारण किसानों को अपनी फसलों का उचित मूल्य नहीं मिलता और वह उसे नष्ट करने के लिए बाध्य हो जाते हैं। इससे दृष्टिगत रखते हुए अंतर्राज्यीय व्यापार की नीतियां कुछ इस तरह बनाई जानी चाहिए कि बंपर उत्पादन की स्थिति में भी किसानों को बाजार और उचित मूल्य मिल सके। उन्हें अपनी फसलें नष्ट ना करना पड़े।

कृषि मंडियों में व्याप्त भ्रष्टाचार पर अंकुश लगा कर भी किसानों की बहुत बड़ी मदद की जा सकती है।
मंडियों में कृषि उपज की नीलामी एमएसपी से कम कीमतों पर ना हो,यह व्यवस्था भी की जानी चाहिए।
यह भी देखा गया है कि विभागों द्वारा अनेक योजनाओं का पूरा लाभ नहीं उठाया जा रहा। उदाहरण के लिए केंद्र की एक योजना पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप फार इंटिग्रेटेड एग्रीकल्चर डेवलपमेंट/पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप फार एग्रीकल्चर वैल्यू चैन डेवलपमेंट के तहत मध्य प्रदेश में 2012 से एक भी प्रकरण स्वीकृत नहीं हुआ है।

अंतरराष्ट्रीय निर्यात की सामान्य शर्तें भी बहुत कठिन है। छोटे किसान समूहों द्वारा निर्यात की स्थिति में यदि गुणवत्ता के आधार पर किसी देश को भेजा गया माल वापस किया जाता है, तो उस पर होने वाला व्यय समूह वारदात नहीं कर पाते। अत: प्रत्येक राज्य सरकार को भारत सरकार की संस्था कृषि और प्रसंस्कृत खाद्य उत्पाद निर्यात विकास प्राधिकरण के समानांतर एक एजेंसी का गठन करना चाहिए जो भारत सरकार की एजेंसी के साथ समन्वय स्थापित कर अंतरराष्ट्रीय व्यापार को बढ़ावा देने का कार्य करे।
इन उपायों से किसानों को निश्चित रूप से कुछ न कुछ राहत अवश्य मिलेगी।

*आशुतोष श्रीवास्तव
(लेखक कृषि मामलों के जानकार हैं। लेख में व्यक्त विचार उनके व्यक्तिगत हैं।)

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1 Comment
  • Dear publisher, it is indeed a very good step by you to publish such an informative article. But unless it reaches the right people, it will not serve it’s purpose. For example it this article is sent thru private channels to Agriculture Minister he may be able to do something on the lines recommended in this article. This is my suggestion.

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