महाभारत के शांतिपर्व में कथा है कि महादेव शिव की आज्ञा पाकर वीरभद्र आदि गणों ने जब दक्ष प्रजापति के यज्ञ का ध्वंस कर दिया तब शिव के शरणागत हुए दक्ष ने उनकी सहस्रनामों से स्तुति करते हुए कहा, ‘नमः स्तुताय स्तुत्याय स्तूयमानाय वै नमः। सर्वाय सर्वभक्षाय सर्वभूतान्तरात्मने।।’ अर्थात् हे शिव! जिनकी स्तुति हो चुकी है वे आप हैं। जो स्तुति के योग्य हैं वे भी आप हैं और जिनकी स्तुति हो रही है, वे भी आप ही हैं। आप सर्वस्वरूप, सर्वभक्षी और सम्पूर्ण भूतों के अंतरात्मा हैं। आपको बारम्बार नमस्कार है!
दक्ष ने सच ही कहा था और वहीं दोहराया था जिसे सारे वेद, पुराण, धर्मग्रंथ और सारा जगत आज तक गा रहा है कि स्तुति के योग्य यदि कोई हैं तो वे केवल और केवल महादेव शिव हैं। ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्रादि देवता, गणेश, शेष, गरुड़ सहित सारे दिग्पाल और सारे ज्ञानी, घ्यानी, योगी, गृहस्थ सब अनादिकाल से शिव की ही स्तुति कर रहे हैं क्योंकि उनके सिवाय अखिल ब्रह्मांड में दूसरा कोई स्तुति के योग्य नहीं है। पुराणों की कथाएँ प्रमाण हैं कि जब समुद्र मंथन के समय सबसे पहले हलाहल विष निकला और सारा संसार जल उठा तब सबकी रक्षा के लिए भगवान शिव ही तत्पर हुए थे और सबके देखते-देखते न केवल उस कालकूट जहर को पी गए थे बल्कि पचा भी गए थे। स्वभावतः जो दूसरों के लिए अपने प्राणों की परवाह न कर सबके संकट हर लेता है, जगत में वहीं वंदनीय होता है। ठीक उसी तरह जैसे देवताओं की भीड़ में केवल एक देवाधिदेव महादेव हैं। सबके रक्षक, सारे जगत के जीवनदाता और जीवन आधार! संहारक भी और ज्ञान-विज्ञान-कला की समस्त धाराओं के प्रवर्तक होने के साथ सर्वप्रिय, सर्वपूज्य आशुतोष मुक्ति प्रदाता भी!
शिवजी के नाम, रूप, लीलाएँ, कृतित्व, कथाएँ और महिमा सब अनन्त हैं लेकिन इन सबमें महाशिवरात्रि से जुड़ी देवी पार्वती के पाणिग्रहण की लीला सबसे अनुपम और महत्वपूर्ण है। यह लीला दक्ष यज्ञ के विध्वंस की ही उत्तरकथा है जिसका प्रायः सभी धर्मग्रंथों में सरस चित्रण हुआ है। लोकभाषा अवधी में रचे महाकाव्य श्रीरामचरितमानस में तुलसीदासजी ने बालकाण्ड में शिवजी की इस विवाह लीला को कुछ इस तरह चितेरा है कि यह लोक का कण्ठहार बन गई है।
कथा है कि शिवजी की पहली पत्नी दक्ष पुत्री देवी सती ने जब पिता की यज्ञशाला में योगाग्नि में आत्मदाह कर लिया तब दक्ष को यथोचित दण्ड देकर पत्नी के देहांत से खिन्न शिवजी स्वभाव के अनुरूप समाधिस्थ हो गए। इधर सती ने हिमाचल के घर पार्वती के रूप में जन्म लिया। एक दिन हिमाचल के घर पहुँचे देवर्षि नारद ने पिता की जिज्ञासा पर भविष्यवाणी की कि ‘जोगी जटिल अकाम मन नगन अमङ्गल बेष। अस स्वामी एहि कहँ मिलिहि परी हस्त असि रेख।।’ अर्थात् योगी, जटाधारी, निष्काम ह्रदय, दिगम्बर और अमङ्गल वेश वाला ऐसा पति इसको मिलेगा। पार्वती के हाथ में ऐसी ही रेखा पड़ी है।
यह वाणी पार्वती ने भी सुनी और इसी के साथ उनके ह्रदय में शिवजी के चरण कमलों में स्नेह उत्पन्न हो गया। नारद की इस घोषणा से माता-पिता चिंतित हुए और ऐसा न हो, इसका उपाय पूछा मगर देवर्षि ने स्पष्ट कहा कि चिंता न करे, ‘संभु सहज समरथ भगवाना। एहि बिबाहँ सब बिधि कल्याना।।’ शिवजी सहज ही समर्थ हैं क्योंकि वे भगवान हैं। इसलिए इस विवाह में सब प्रकार से कल्याण है।
शिव को पति रूप में पाने का एक ही उपाय था तप। इसलिए राजकुमारी पार्वती माता-पिता की आज्ञा लेकर कठिन तप में रत हो गई। वे इतना तप करती थी कि अक्सर उनकी माता उन्हें ‘उमा’ कहती थी। जिसका अर्थ होता है ‘अरी! तपस्या मत कर!’ तप की पर्याय होने से ही आगे चलकर पर्वत की पुत्री पार्वती का एक नाम ‘उमा’ प्रसिद्ध हुआ। ‘अति सुकुमार न तनु तप जोगू। पति पद सुमिरि तजेउ सबु भोगू।।’ देवी का अत्यंत सुकुमार शरीर तप के योग्य नहीं था तो भी शिवजी के चरणों का स्मरण करते हुए उन्होंने सारे भोगों को तज दिया था। पार्वती ने तप की वह पराकाष्ठा की कि आहार में सूखे पत्ते तक खाना छोड़ दिए तब उनका एक नाम ‘अपर्णा’ भी हुआ। अंततः आकाशवाणी हुई कि ‘भयउ मनोरथ सुफल तव सुनु गिरिराजकुमारि। परिहरु दुसह कलेस सब अब मिलहहिं त्रिपुरारि।। हे पर्वतराज की बेटी! सुन, तेरा मनोरथ सफल हुआ। अब तू सारा कठिन तप त्याग दें, शीघ्र ही तुझे शिवजी मिलेंगे !
पार्वती के इस कठिन तप पर केंद्रित महाप्राण निराला ने एक अद्भुत कविता रची है ‘रूखी री यह डाल वसन वासंती लेगी/शैलसुता अपर्ण अशना पल्लव वसना बनेगी!’ और महाकवि कालिदास ने ‘कुमारसम्भवम्’ में शिव और पार्वती के प्रथम मिलन को वसन्त से एकात्म कर कालजयी प्रणय-प्रसङ्ग रचा है, जिसमें उमा वसन्त के पुष्पों से स्व श्रृंगार कर वासंती लता-सी लकदक शिवजी के समाधि से जागरण के मुहूर्त में उनके चरणों में पुष्पार्पण के निमित्त पहुँचती है और शिव-पद की ओर झुकते समय उनके नीले केशों से वसन्त का पीला कर्णिकार प्रेम-पुष्प गिर पड़ता है। ठीक उसी क्षण काम अपना बाण छोड़ता है। मानो सब कुछ इतना नाटकीय है कि पल में इतिहास रच गया हो!
महत्वपूर्ण है कि इन्हीं दिनों तारकासुर के आतंक से त्रस्त देवता भी चाहते थे कि शिवजी अपनी समाधि से जागकर पार्वती से विवाह कर ले। ताकि ब्रह्मा जी के विधान अनुसार उनके तेज से उत्पन्न पुत्र तारकासुर का वध कर सकें। इसलिए एक ओर पार्वती का तप पूर्ण हुआ और दूसरी ओर देवताओं ने कामदेव को भेजकर शिवजी की तपस्या भंग का उद्योग किया। कामदेव ने अपने सहायक वसन्त के साथ जाकर शिवजी को लक्ष्य करते हुए अपने पुष्पधनु से ‘छाड़े बिषम बिसिख उर लागे, छूटि समाधि संभु तब जागे’ के अनुसार पांच बाण छोड़े जो शिवजी के ह्रदय में लगे। इससे उनकी समाधि टूट गई और वे जाग पड़े। मगर कामदेव को तुरंत ही इस दुस्साहस का दंड मिला। ‘तब सिवँ तीसर नयन उघारा, चितवत कामु भयउ जरि छारा…!’ क्रोधित हुए शिवजी ने तीसरा नेत्र खोला और उनके देखते ही कामदेव जलकर भस्म हो गया।
इस तरह काम को मारकर शिवजी गृहस्थ बने और भोगों को त्यागकर देवी उमा ने मनोवांछित महादेव को जीवन साथी के रूप में प्राप्त किया। मिलन का यह महापर्व अनजाने काल में ऋतुराज वसन्त की मङ्गल बेला में घटा था इसलिए आज भी शिव-पार्वती के मङ्गल मिलन की महारात्रि फाल्गुन में मनाई जाती है जिसमें प्रकृति वासन्तिक उपस्थिति से स्वयं उत्सवा बनी होती है और शिवजी पार्वती को ब्याहते हैं। ठीक वैसे ही शृंगारित होकर जैसा मानस में गोस्वामीजी ने ब्याह के अवसर पर नन्दी पर सवार होने से पूर्व उनके श्रृंगार का वर्णन किया है। ‘कुंडल कंकन पहिरे ब्याला, तन बिभूति पट केहरि छाला। ससि ललाट सुंदर सिर गंगा, नयन तीनि उपबीत भुजंगा। गरल कंठ उर नर सिर माला, असिव बेष सिवधाम कृपाला।’ अर्थात् शिवजी ने साँपों के ही कुंडल और कंकण पहने, शरीर पर विभूति रमायी और वस्त्र की जगह बाघाम्बर लपेट लिया। अपने सुंदर मस्तक पर चन्द्रमा, सिर पर गंगा, तीन नेत्र, साँपों का जनेऊ, गले में विष और छाती पर नरमुण्डों की माला थी। इस प्रकार उनका वेष अशुभ होने पर भी वे कल्याण के धाम और कृपालु हैं। इस तरह अशुभ वेष के बावजूद कल्याणकारी शिवजी ने पार्वती का कर कमल थामा और गौरी गौरवर्ण शंकरजी की चिर संगिनी बन गई। ‘पाणिग्रहन जब कीन्ह महेसा, हियँ हरषे तब सकल सुरेसा। बेदमन्त्र मुनिबर उच्चरहीं, जय जय जय संकर सुर करहीं।’
श्रीराम, श्रीकृष्ण, हनुमान, गणेश आदि देवताओं की भाँति शिवरात्रि शिव के प्राकट्य की तिथि नहीं है बल्कि पाणिग्रहण पर्व है। इसलिए कि शिव स्वयंभू और अयोनिज हैं। वे अनादि अनन्त अखण्ड और अभेद्य हैं। इसी तरह उनकी अर्धांगिनी देवी पार्वती भी हिमाचल पत्नी मैनादेवी से जन्म ग्रहण की लीला के बावज़ूद शिव की भाँति आद्य शक्ति हैं। धर्मग्रंथों में दोनों के प्राकट्य की कोई तिथि नहीं है किंतु दोनों के मिलन की तिथि पर्व के रूप में पूज्य अवश्य है। ज्योतिष में चतुर्दशी शिव की तिथि है, फाल्गुन शिव का ही एक नाम है और प्रकृति के तो वे देवता हैं ही। इन्हीं सन्दर्भों में अपने स्वभाव में संतों की तरह सदैव वसन्त में रमने वाले महादेव शिव महादेवी पार्वती के साथ गठबंधन करते हैं और प्रकृति के साथ प्राणीमात्र के लिए सृजन की ऋतु वसन्त में सृजन का अनुष्ठान करते हैं।
शिव सिखाते हैं कि गृहस्थी ‘काम’ केंद्रित नहीं होती अपितु भाव केंद्रित होती है। इसलिए वे पहले काम का भंजन करते हैं और फिर गृहस्थी में रंजन करते हैं। जिनकी गृहस्थी काम पर टिकी होती है, उनमें कामनाओं की पूर्ति में बाधा आने पर रस भंग हो जाता है और गृहस्थी नीरस हो जाती है मगर शिवजी की गृहस्थी सदा रसपूर्ण बनी रहती है क्योंकि उनके दाम्पत्य में ‘काम’ कर्तव्य तो है ‘कमजोरी’ नहीं। ध्यान दे तो सारे संसार में केवल एक शिव और पार्वती की गृहस्थी है जिसमें सदा सुख और शांति का आनन्दमय वसन्त छाया रहता है। इस महिमामय दम्पत्ति के अलावा ऋषि-मुनि, सिद्ध-बुद्ध और परम ज्ञानियों से लेकर देवताओं तक सबकी गृहस्थी में कुछ न कुछ क्लेश है लेकिन शिवजी की गृहस्थी में क्लेश का लेशमात्र भी नहीं है। यही कारण है कि सनातन परंपरा के अनुगामी हिन्दू समाज में जब भी नव वर-वधु दाम्पत्य का व्रत लेते हैं तो उस व्रत की सफलता के लिए 33 कोटि देवताओं के इतर संयुक्त रूप से केवल शिव-पार्वती के समक्ष ही शीश नवाते है। कन्याओं के लिए मनोनुकूल वर और सुहागिनों के लिए अखण्ड सौभाग्य के सारे व्रत शिव-गौरी की आराधना कर उनके आशीर्वाद से ही फलते हैं। देवी सीता ने पार्वती के आशीष से ही श्रीराम को पाया था और रामेश्वर की कृपा से ही रामजी रावण को मारकर सीता को पुनः प्राप्त कर सके थे।
शिवजी की गृहस्थी में चिर आनन्द का रहस्य परिवार के सभी सदस्यों का विरोधाभासों के बावज़ूद एक-दूसरे का ससम्मान स्वीकार करते हुए साहचर्य में निहित है। योगी शिव और सुकुमारी उमा में अमङ्गल वेष और सुमङ्गल वेष तक परस्पर प्रतिकूलता है मगर मूल में ‘प्रेम’ है जो सुख का आधार है। महादेव व महादेवी के वाहन नन्दी और सिंह, सन्तानों में कार्तिकेय का मयूर व गणेश का मूषक हो या शिवजी का अलंकार सर्प, सभी प्रकृत: विरोधी हैं किंतु साहचर्य का आग्रह विरोध का निग्रह कर देता है। इसलिए न केवल पति-पत्नी के स्तर पर अपितु परिवार भर में नित्य सुखमय आनन्द की वर्षा होती रहती है। महाशिवरात्रि अपने धार्मिक विधान में उपवास, जागरण और पूजन का पर्व है जिसके कर्तव्य दाम्पत्य व परिवार में आनन्द का लक्ष्य पाने के लिए क्रमशः त्याग, सजगता और परस्पर सम्मान के प्रतीक हैं। जिनके जीवन में ये प्रतीक आचरण बन उतरते हैं उनकी गृहस्थी और परिवार ही नहीं बल्कि समूचा जीवन शिवमय हो जाता है। अन्यथा कलहमय बन व्यर्थ व्यतीत होता है।
(लेखक पौराणिक-धार्मिक साहित्य के अध्येता है)
छवि सौजन्य : गीता प्रेस