पंचायती राज मंत्रालय इस दिशा में ठोस कदम उठाने जा रहा है…
सार्वजनिक जीवन में महिलाओं की भागीदारी को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से पंचायत राज संस्थाओं में महिला आरक्षण का विशेष प्रावधान रखा गया था।
वर्ष 2007 से मध्य प्रदेश की पंचायत राज संस्थाओं में महिलाओं को 50% आरक्षण प्राप्त है।
देश के लगभग 20 अन्य राज्यों में भी पंचायतों में महिला जनप्रतिनिधियों के लिए आरक्षण सुनिश्चित किया गया है।
देश में कुल मिलाकर 2.63 लाख पंचायती राज संस्थाएं (ग्राम पंचायत,जनपद पंचायत एवं जिला पंचायत) कार्यरत हैं। तीनों स्तरों पर लगभग 32.29 लाख निर्वाचित प्रतिनिधि हैं,इनमें महिलाओं की संख्या 15.02 लाख है।
मध्य प्रदेश महिलाओं को जनप्रतिनिधि चुनने के मामले में अन्य राज्यों से थोड़ा आगे है। वर्ष 2010,2015 और 2022 के पंचायत चुनावों में निर्धारित 50% से कहीं अधिक महिला प्रतिनिधि चुनकर प्रदेश ने महिला सशक्तिकरण की दिशा में उल्लेखनीय पहल की है।
इस दृष्टि से देखा जाए तो लोकतंत्र की पाठशाला ग्राम पंचायतों में महिलाओं की सहभागिता उनकी जनसंख्या के अनुपात में संतोषजनक नज़र आती है।
लेकिन तस्वीर का यह एक पहलू है। दूसरा पहलू इतना आकर्षक नहीं है।
सर्व विदित है कि एस.पी.(सरपंच पति) पंचायत राज व्यवस्था की वास्तविकता है। ऐसा नहीं है कि एस पी सिर्फ उन पंचायतों में पाए जाते हैं जहां महिला जनप्रतिनिधि आरक्षित वर्ग से होती हैं,अथवा कम पढ़ी- लिखी होती हैं,यह असंवैधानिक व्यवस्था उन ग्राम पंचायतों में भी समान रूप से प्रचलन में है जहां सामाजिक और शैक्षणिक रूप से जागरूक और सामान्य वर्ग से आने वाली महिलाएं निर्वाचित होती हैं।
कहीं-कहीं पिता,पुत्र,भाई,जेठ,देवर अथवा अन्य पुरुष रिश्तेदारों के हाथों में भी पंचायत की वास्तविक कमान देखी गई है। यह लोग न केवल निर्णयों को प्रभावित करते हैं, बल्कि बैठकों की अध्यक्षता,राष्ट्रीय त्योहारों पर ध्वजारोहण जैसे संवैधानिक दायित्वों का निर्वहन तक बेरोकटोक करते हैं। यह सिर्फ ग्राम पंचायतों में ही नहीं, जनपद एवं जिला पंचायतों में भी देखा गया है।
आश्चर्य की बात तो यह है कि कुछ पंचायतों में निर्वाचित महिला जनप्रतिनिधियों के स्थान पर उनके पतियों या अन्य पुरुष रिश्तेदारों ने शपथ तक ग्रहण कर ली।
कैसी विडंबना है कि अपना वर्चस्व कायम रखने के लिए सरपंच प्रतिनिधि,जनपद पंचायत अध्यक्ष प्रतिनिधि और जिला पंचायत अध्यक्ष प्रतिनिधि जैसे पद ईजाद किए गए और निर्वाचित महिला जनप्रतिनिधियों को रबर स्टैम्प बना दिया गया।
दरअसल भारतीय समाज सदियों से पुरुषों के वर्चस्व में रहा है। समाज ने महिलाओं की देवियों और कन्याओं के रूप में पूजा तो की लेकिन साथ-साथ यह व्यवस्था भी कर दी कि वह चौके-चूल्हे तक ही सिमट कर रह जाएं।
संविधान भले ही महिला एवं पुरुष को बराबरी का दर्जा देता हो, लेकिन पुरुष अहंकार ने महिलाओं का आगे बढ़कर निर्णायक भूमिका में रहना सामान्यतः कभी स्वीकार नहीं किया।
सदियों से चले आ रहे इस चलन के कारण महिलाओं के मन- मस्तिष्क में यह बात गहरे तक पैठ गई कि नेतृत्व अथवा अन्य कोई भी महत्वपूर्ण काम पुरुष ही कर सकते हैं।
इसी मनःस्थिति के वशीभूत ग्रामीण महिलाएं उन्हें प्राप्त संवैधानिक अधिकारों का प्रयोग नहीं कर पातीं। उससे भी अधिक चिंतनीय बात यह है कि यह स्थिति उन्हें असहज भी नहीं करती।
इस धारणा को तोड़े बिना ना तो सार्वजनिक जीवन में महिलाओं की प्रभावी भागीदारी हो सकती है और ना ही महिला उत्थान से संबंधित योजनाओं के वांछित परिणाम मिल सकते हैं।
यद्यपि यह आसान नहीं है,लेकिन झिझक और संकोच की दीवारें तोड़ने का काम तो महिलाओं को ही करना होगा। इतिहास गवाह है कि जब-जब महिलाओं ने आगे कदम बढ़ाए हैं, युगांतरकारी परिवर्तन हुए हैं।
ऐसा नहीं है कि पंचायत राज संस्थाओं में महिला नेतृत्व बिल्कुल ही नहीं उभरा है। ऐसी अनेक ग्राम पंचायतें हैं जहां महिला जनप्रतिनिधि न केवल कुशलता के साथ नेतृत्व प्रदान कर रही हैं,अपितु नवाचारों के माध्यम से नए मापदंड भी स्थापित कर रही हैं। कुछ उच्च शिक्षित महिलाओं ने तो मल्टीनेशनल कंपनियों में अपना आकर्षक पैकेज छोड़कर यह राह चुनी है।
लेकिन आत्मविश्वास से भरपूर ऐसी महिलाओं की संख्या उंगलियों पर गिने जाने लायक ही है।
अच्छी बात यह है कि सरकार का ध्यान इस ओर गया है,और वह महिलाओं के हाथों में वास्तविक अधिकार सौंपने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाने जा रही है।
सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर पंचायती राज मंत्रालय ने एक समिति का गठन किया था। समिति ने देश के अलग-अलग प्रदेशों में कार्यशालाएं आयोजित कर एक प्रतिवेदन तैयार किया है -“पंचायती राज प्रणालियों और संस्थाओं में महिलाओं के प्रतिनिधित्व और उनकी भूमिकाओं में परिवर्तन : प्राक्सी भागीदारी के प्रयासों को समाप्त करना”।
प्रतिवेदन सरकार को सौपा जा चुका है जिसमें महिलाओं की वास्तविक भागीदारी को प्रोत्साहित करने से संबंधित महत्वपूर्ण अनुशंसाएं की गई हैं।
समिति की एक महत्वपूर्ण अनुशंसा यह है कि प्रशासनिक अधिकारियों को सीधे महिला जनप्रतिनिधियों से ही संपर्क रखना चाहिए ना कि उसके किसी पुरुष रिश्तेदार से।
महिला जनप्रतिनिधियों के प्रशिक्षण और न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता निर्धारित करने पर भी समिति ने ज़ोर दिया है।
सबसे महत्वपूर्ण सिफारिश पुरुष हस्तक्षेप को अपराध मानकर दंडात्मक कार्यवाही करने से संबंधित है। इसके साथ-साथ सामाजिक चुनौतियों से लड़कर सफलता प्राप्त करने वाली महिला नेत्रियों की कहानियों के माध्यम से भी महिलाओं को जागरूक करने की बात समिति ने अपनी सिफारिशों में की है।
उम्मीद की जानी चाहिए कि सरकार के इन प्रयासों से
देश की आधी आबादी को अपने पूरे अधिकार प्राप्त हो सकेंगे।
समाज से भी अपेक्षा है कि भले ही वह आगे बढ़कर महिलाओं की राह सुगम करने का अपना नैतिक दायित्व ना निभाए,लेकिन कम से कम उनकी राह का रोड़ा तो ना बने। बाकी काम तो महिलाएं ख़ुद ही कर लेंगी।
*अरविन्द श्रीधर