धैर्य के साथ किया गया सतत श्रम कैसे किसी व्यक्ति को मंजिल तक ले जाता है,इसका उदाहरण है नरसिंहपुर की आदिवासी महिला शांति बाई गोंड।
शांति बाई का सफ़र तो शुरू हुआ था समूह के साथ, लेकिन मंजिल तक पहुंचने के पहले ही साथी महिलाओं का धैर्य जवाब दे गया और शांति बाई को अकेले ही आगे बढ़ना पड़ा।
जब हालात मुश्किल हों और साथी एक-एक कर साथ छोड़ते जाएं, तो अक्सर लोग हार मान लेते हैं। लेकिन जरजोला गांव की शांति बाई गोंड (मुन्नी) ने अपने इरादों को डगमगाने नहीं दिया। उन्होंने अपने दम पर वर्मी कंपोस्ट (केंचुआ खाद) बनाने का सफर शुरू किया और अब हर साल हजारों बोरी खाद बेचकर आत्मनिर्भर बन चुकी हैं।
कभी इस सफर में उनके साथ 24 और महिलाएं थीं, लेकिन समस्याओं और चुनौतियों के कारण सभी पीछे हट गईं। शांति बाई ने अकेले ही इस काम को जारी रखा, तमाम अड़चनों के बावजूद उन्होंने इसे अपने जीवन का ध्येय बना लिया। आज वे गांव में जैविक खेती को बढ़ावा देने वाली एक प्रेरणादायक शख्सियत बन चुकी हैं।
कैसे शुरू हुआ सफर…
तीन-चार साल पहले शांति बाई को आजीविका मिशन के तहत वर्मी कंपोस्ट बनाने की ट्रेनिंग मिली। उस समय उन्हें एक स्व-सहायता समूह का हिस्सा बनाया गया, जिसमें 24 महिलाएं थीं। शुरुआती दिनों में सभी महिलाओं ने मिलकर जैविक खाद बनाने का काम शुरू किया। लेकिन धीरे-धीरे जब खरीदार नहीं मिले, संसाधन कम पड़े और काम में कठिनाई आई, तो महिलाएं एक-एक कर समूह छोड़ने लगीं,और शांति बाई को अकेले ही तमाम मुश्किलों से जूझना पड़ा।
मुश्किलें आईं, लेकिन हौसला नहीं टूटा…
शांति बाई के सफर में हर कदम पर मुश्किलें आईं।
गोबर इकट्ठा करने के लिए कोई साधन नहीं – जिस जगह वे गोबर इकट्ठा करती हैं, वहां ट्रैक्टर नहीं पहुंच सकता था,इसलिए उन्हें ट्राली खाली करने के लिए अतिरिक्त श्रम करना पड़ा।
खाद बनाने के लिए पानी खरीदना पड़ता है – यह उनके लिए एक बड़ा खर्च है, लेकिन उन्होंने इसे अपनी दिनचर्या का हिस्सा बना लिया।
शुरुआत में खरीदार नहीं मिलते थे – लेकिन जैसे-जैसे लोगों को जैविक खाद के फायदों का पता चला, उनकी खाद की मांग बढ़ती गई।
अकेले बढ़ाया कदम, मिली पहचान…
जब समूह की बाकी सभी महिलाओं ने हार मान ली, तो शांति बाई ने ठान लिया कि वे इस काम को किसी भी हाल में आगे बढ़ाएंगी। उन्होंने अपने घर के पिछवाड़े गोबर इकट्ठा करना शुरू किया और बाजार से केंचुए खरीदकर वर्मी कंपोस्ट बनाना शुरू किया।
शुरुआत में लोगों को उन पर भरोसा नहीं था, लेकिन जैसे-जैसे उनकी खाद की गुणवत्ता के बारे में लोगों को पता चला, वैसे-वैसे ग्राहकों की संख्या बढ़ती गई। अब स्थिति यह है कि गांव के किसान हों या बागवानी के शौकीन शहरी लोग,खुद उनके घर आकर खाद खरीदते हैं।
संघर्ष से सफलता तक बनीं मिसाल…
शांति बाई की कहानी सिर्फ उनकी मेहनत की नहीं, बल्कि धैर्य के साथ लक्ष्य तक पहुंचने की मिसाल भी है। उन्होंने एक बार भी हार नहीं मानी और अपने दम पर खुद की पहचान बनाई। अब वे गांव की दूसरी महिलाओं के लिए भी प्रेरणा बन चुकी हैं।
*बृजेश शर्मा, नरसिंहपुर