अनिल दुबे के निर्देशन में “पुण्यश्लोक देवी अहिल्याबाई” का प्रभावी मंचन.
इन दिनों उज्जैन में विक्रमोत्सव के तहत विविध सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जा रहा है। इसी श्रृंखला में “पुण्यश्लोक देवी अहिल्याबाई” नाट्य का प्रभावी मंचन कालिदास अकादमी के बहिरंग मंच पर किया गया।
नाट्य के माध्यम से ग्रामीण किशोरी अहिल्या के अहिल्याबाई और फिर देवी अहिल्या बनने तक के सफ़र को प्रभावपूर्ण तरीके से प्रस्तुत किया गया।
‘एकरंग मुंबई’ के रंगकर्मियों की इस प्रस्तुति का निर्देशन वरिष्ठ रंगकर्मी अनिल दुबे ने किया।
देवी अहिल्याबाई होलकर (31 मई 1725-13 अगस्त 1795) का यह त्रिशताब्दी वर्ष है।
लोक देवी के रूप में समादृत अहिल्याबाई की जीवनगाथा रोमांचक भी है और अनुकरणीय भी।एक साधारण किसान परिवार में जन्म लेने वाली अहिल्याबाई की प्रतिभा को मल्हार राव होल्कर ने बचपन में ही पहचान लिया था। मल्हार राव की सरपरस्ती में किशोरी अहिल्या का चरित्र कुछ ऐसा निखरा कि आज तीन शताब्दी बीत जाने के बाद भी इतिहास में उनका नाम आदर के साथ लिया जा रहा है।
अहिल्याबाई अत्यंत कुशाग्र बुद्धि की कुशल शासक थीं,यह तथ्य इतिहास में स्वर्णाक्षरों में दर्ज है,लेकिन उनके अंदर छिपी प्रतिभा को पहचानने वाले मल्हार राव होलकर की पारखी दृष्टि को भी रेखांकित किया जाना चाहिए।
नाट्य इस और भी इशारा करता है।
बाल्यकाल से लगाकर होलकर राज्य के कुशल संचालन तक का अहिल्याबाई का संघर्ष एक मिसाल की तरह है। उन्होंने केवल परंपरागत अर्थों में राजकाज नहीं चलाया, अपितु जनकल्याणकारी कार्यक्रमों की एक ऐसी श्रृंखला का प्रारंभ किया जो उन्हें एक प्रजा हितेषी शासक के रूप में इतिहास में प्रतिष्ठित करती है।
उनके घटनापूर्ण जीवन को दो-ढाई घंटे के नाट्य में प्रस्तुत करना एक चुनौती था,जिसे निर्देशक अनिल दुबे ने अपने कलाकारों के माध्यम से न केवल स्वीकार किया,बखूबी निभाया भी।
*राजेंद्र चावड़ा
(लेखक विगत कई वर्षों से रंग कर्म के क्षेत्र में सक्रिय हैं।)

निर्देशक-अनिल दुबे