इतिहास में दर्ज होना मलयानिल हवाओं के उन झोंकों के समान है, जो अपनी सुरभि, सौरभ और सौष्ठव से सर्जन-विसर्जन की भाव-भूमि पर सृजन के सौम्य विधान से वासंती-समाज का आव्हान करते हैं। ऊंचे पहाड़ों के किनारों पर मलयानिल हवाओं का उद्भव जितना नीरव और निशब्द होता है, तकरीबन् उतना ही खामोश होता है हमारे इर्ग-गिर्द बहते पलछिनों का इतिहास में तब्दील होते जाना…समय की इबारत बन जाना…समाज में सबक बन जाना…। मध्य प्रदेश, खासतौर से भोपाल की मीडिया बिरादरी ऐसे ही खामोश पलछिनों के रूबरू खड़ी है, जबकि हिंदी साहित्य सम्मेलन प्रयाग के 76 वें अधिवेशन में हमारे बीच पिछले पचास साल से सक्रिय पत्रकार विजयदत्त श्रीधरजी को साहित्य वाचस्पति सम्मान से विभूषित किया जा रहा है। साहित्य वाचस्पति हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग का सर्वोच्च अलंकरण है।
इतिहास की इबारत में श्रीधरजी का नाम शरीक होने की कहानी चट्टानों से जूझती मलयानिल हवाओं की तरह ही है, जिसका कथानक निस्पृहता, नीरवता और निशब्दता है। पत्रकारिता के इतिहास के गहन अध्येता और ‘भारतीय भाषा सत्याग्रह’ के सूत्रधार विजयदत्त श्रीधरजी का यह सम्मान इतिहास की इबारत में मध्य प्रदेश का नाम सुर्ख करने वाला दस्तावेज है। हिंदी साहित्य सम्मेलन का यह अधिवेशन 21 से 23 मार्च 2025 को आणन्द, गुजरात में सम्पन्न हो रहा है। इन पलछिनों का एक ऐतिहासिक पहलू यह भी है कि विजयदत्त श्रीधर जी 22 मार्च को अधिवेशन में राष्ट्रभाषा परिषद के सभापति का दायित्व भी निर्वहन करेंगे।
हिन्दी साहित्य सम्मेल की गुरूता और गौरव को राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित करने वाली इस पीठ की गंभीरता और महत्ता का अनुमान इसी लग सकता है कि ऐसे आयोजनों की अध्यक्षता करने वाली विभूतियों की सूची में महात्मा गांधी, देश के पहले राष्ट्रपति डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद, गणेश शंकर विद्यार्थी जैसी विभूतियों के नाम दर्ज हैं। हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग की स्थापना महामना पंडित मदनमोहन मालवीय की अध्यक्षता में 1910 में हुई थी। राजर्षि पुरूषोत्तम दास टंडन सम्मेलन के प्रधानमंत्री थे। अध्यक्षता की नामावली में यदि मध्य प्रदेश का जिक्र करें तो प्रादेशिक विभूतियों में विष्णुदत्त शुक्ल, माधवराव सप्रे, माखनलाल चतुर्वेदी और सेठ गोविंद् दास के नाम शरीक हैं। हिंदी को बलवती बनाने के आंदोलन का इतिहास इन विभूतियों के उल्लेख के बिना कभी भी पूरा नहीं होता है।
उल्लेखनीय है कि विजयदत्त श्रीधर जी ने भी शिद्दत से भारतीय भाषा सत्याग्रह की मशाल थाम रखी है। मध्य प्रदेश में एक बड़ी टीम इस आंदोलन को आकार प्रदान कर रही है। श्रीधरजी हिंदी साहित्य सम्मेलन के आणन्द अधिवेशन में भाषा सत्याग्रह की महत्ता को लेकर एक प्रस्ताव प्रस्तुत करने वाले हैं, ताकि राष्ट्रीय स्तर पर भाषा सत्याग्रह को घनीभूत किया जा सके।
ऐतिहासिक राष्ट्रीयता से ओतप्रोत हिंदी साहित्य सम्मेलन की गुरूतर पृष्ठभूमि में विजयदत्त श्रीधर को प्राप्त साहित्य वाचस्पति सम्मान जैसे अलंकरण के मायनो को अलग से रेखांकित करने की आवश्यकता नहीं है। विजयदत्त श्रीधर को मिलने वाले सम्मानों की सूची में लंबी है। सन् 2012 में वो पदमश्री से भी अलंकृत हो चुके हैं। भारतेंदु हरिश्चंद्र पुरूस्कार (2011) में मिल चुका है। उनके हक में मध्य प्रदेश के महर्षि वेदव्यास सम्मान (2013) और माधवराव सप्रे राष्ट्रीय रचनात्मकता सम्मान (2015) भी दर्ज हैं। लेकिन हिंदी साहित्य सम्मेलन का यह अलंकरण सम्मानो की श्रृंखला में एक अभूतपूर्व संयोग की निर्मिति भी है। गौरतलब है कि विजयदत्त श्रीधरजी ने भोपाल में राष्ट्रभाषा के प्रखर चिंतक, मनीषी संपादक, स्वंतत्रता सेनानी कर्मयोगी माधनराव सप्रे के कृतित्व और और अवदान को स्थायी बनाने की गरज से माधवराव सप्रे स्मृति समाचार पत्र संग्रहालय और शोध संस्थान की स्थापना की है। गौरतलब है कि सन 1924 में माधवराव सप्रे ने देहरादून में आयोजित हिंदी साहित्य सम्मेलन की अध्यक्षता की थी। यह दुर्लभ संयोग है कि एक प्रेरणा पुरूष के रूप में सप्रेजी के गुरूतर कार्य को आगे बढ़ाने वाले विजयदत्त श्रीधरजी को भी उसी पीठ की अध्यक्षता करने का मान प्राप्त हुआ हैं, जो सप्रेजी को राष्ट्रभाषा की सेवा करने के कारण सौ साल पहले जो प्राप्त हुआ था। यह सम्मान हिंदी समेत अन्य भारतीय भाषाओं की पत्रकारिता के इतिहास को ज्ञानतीर्थ सप्रे संग्रहालय के रूप में संजोने, संवर्द्धित करने और इस विरासत को भविष्य की पीढि़यों के लिए संरक्षित करने के श्रीधरजी के अतुलनीय भगीरथ प्रयासों का समूचे हिंदी जगत द्वारा किया गया गौरवमयी स्वीकार भी है।
विजयदत्त श्रीधर को मिलने वाले हिंदी साहित्य सम्मेलन प्रयाग का यह सर्वोच्च सम्मान विभिन्न स्तर पर अनुभूतियों का खुशनुमा समागम रचने वाला है। पत्रकारिता के इस समकालीन परिदृश्य में एक व्यक्ति के ऐतिहासिक होने की इस प्रक्रिया के मुकम्मिल होने की दास्तान कई स्तरों पर अद्भुत है। आजादी के पूर्वार्द्ध में पली-बढ़ी पीढी के लिए हिंदी साहित्य सम्मेनल प्रयाग की प्रतिष्ठा और साहित्यिक किंवदंतियाँ गहरे आकर्षण विषय थीं। इसलिये यह सम्मान किसी भी सरकारी-गैर सरकारी सम्मान से ज्यादा गुरूतर और गरिमामय माना जाता है। उपलब्धि के इस ताने-बाने के रेशम में खोट निकालना मुश्किल है। सम्मान में छिपी अक्षरों की अनुंगूज शाश्वत है।
हमजोली पत्रकारों की इस समकालीन पीढी में विजयदत्त श्रीधरजी का यह सम्मान शब्दों की दुनिया में पत्ते की एक कोंपल फूटने की कहानी है, पता ही नहीं चला, वो पत्ता कब पौधा बना, पेड़ बना, वट-वृक्ष बना और कब पीपल और नीम की कोपलों के साथ ‘त्रिवेणी’ में रूपान्तरित हो मलयानिल की तरह बहने लगा…। त्रिवेणी के उद्भव के बाद दुनियादारी की खरपतवारों की जय-पराजय की तथा-कथा के बीच एक व्यक्ति ‘विजयदत्त श्रीधर’, एक पत्रकार ‘विजयदत्त श्रीधर’ और एक संस्था ‘सप्रे संग्रहालय’ के रूप में पल्लवित शब्द-संसार की यह त्रिवेणी रचनाधर्मिता के अक्षर-धाम को जीवंत रखे, यही कामना है।
उमेश त्रिवेदी
(लेखक इंदौर एवं भोपाल से प्रकाशित ‘सुबह सवेरे’ के प्रधान संपादक हैं।)