ई.पू. पहली शताब्दी में उज्जयिनी के सिहांसन पर गर्दभिल्ल नामक राजा राज करता था।साहित्यिक ग्रन्थों एवं लोक कथाओं में गर्दभिल्ल के महेन्द्रादित्य,गंदर्भसेन आदि नामों का भी उल्लेख मिलता है।
शकों ने गर्दभिल्ल को पराजित कर उज्जयिनी पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया,लेकिन शक अधिक समय तक राज्य पर काबिज न रह सके।ईशा पूर्व 57 में गर्दभिल्ल के पुत्र विक्रमादित्य ने शकों को खदेड़कर उज्जयिनी पर पुनः अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया।
आक्रांता शकों पर इस विजय के उपलक्ष्य में विक्रमादित्य ने “शकारि” की उपाधि धारण की और एक संवत् प्रारंभ किया जो आज “विक्रम संवत्” के नाम से प्रचलित है।
विक्रमादित्य का सुदीर्घ शासन काल चहुमुखी विकास का स्वर्ण युग कहा जा सकता है।राजनीतिक, सांस्कृतिक,साहित्यिक एवं आर्थिक क्षेत्रों सहित राष्ट्रीय गौरव के जो प्रतिमान उस दौरान स्थापित हुए वह इतिहास में अतुलनीय हैं। तत्कालीन साहित्य एवं प्रचलित लोककथाओं में विक्रमादित्य की न्यायप्रियता,वीरता, प्रजावत्सलता,साहस,ज्ञान आदि सद्गुणों की चर्चा विस्तार से मिलती है।
विक्रमादित्य के प्रताप का बखान लोक साहित्य में कुछ इस तरह किया गया है…
ऊपर तो सूरज तपे,नीचे विकरमजीत।
धन धरती धन मालवो, धन राजा की रीत।।
साहित्य एवं अन्यान्य साक्ष्यों में विक्रमादित्य संबंधी विवरणों में मतैक्य ना होने के कारण इतिहासकारों ने विक्रमादित्य की ऐतिहासिकता पर अनेक प्रश्नचिन्ह खड़े किए हैं। तर्कों के आधार पर कोई विक्रमादित्य नाम को विरूद मानता है, जिसे अलग-अलग शासकों ने धारण किया। कोई विक्रम संवत् का प्रवर्तक किसी अन्य विक्रमादित्य को मानता है।
उज्जयिनी के मनीषी विद्वान और ज्योतिर्विद पं. सूर्यनारायण व्यास का कहना है- ‘‘पर प्रेरित मति पंडितों ने विक्रम संवत् के प्रवर्तक (विक्रमादित्य) के व्यक्तित्व को उसी प्रकार उलझन में डाल रखा है, जिस प्रकार विश्व कवि कालिदास के काल को समस्या बना रखा है।”
पं. व्यास का मत है कि जैन साहित्य में विक्रमादित्य संबंधी विवरण विस्तार से प्राप्त होता है,यद्यपि अन्य अनेक शासकों ने भी विक्रमादित्य का विरूद धारण किया था।
इस विषय में मनीषी विद्वान डॉ.भगवतीलाल राजपुरोहित का शोध अत्यंत महत्वपूर्ण है।उन्होंने विक्रमादित्य की ऐतिहासिकता सहित प्रत्येक पक्ष पर विस्तार से प्रकाश डालते हुए धुंध को छांटने का महत्वपूर्ण कार्य किया है।यह उनकी सतत साधना का ही सुफल है कि आज विक्रमादित्य के संबंध में विपुल प्रामाणिक साहित्य उपलब्ध है।

महाराजा विक्रमादित्य केवल न्यायप्रिय, प्रजावत्सल शासक ही नहीं अपितु स्वयं कवि और शास्त्रकार होने के साथ-साथ विद्वानों के आश्रयदाता भी थे।विक्रमादित्य के दरबार के नवरत्न प्रसिद्ध हैं,जो अपने-अपने विषयों के उद्भट विद्वान थे।
धन्वन्तरि क्षपणकामरसिंह शंकु वेतालभट्ट घटकर्पर कालिदासाः।
ख्यातो वराहमिहिरो नृपतेः सभायां रत्नानि वै वररूचिर्नवविक्रमस्य।।
▪️धन्वन्तरी – आयुर्वेद के जानकार और अपने समय के श्रेष्ठ चिकित्सक थे। धन्वन्तरी ने आयुर्वेद एवं चिकित्सा संबंधी अनेक ग्रंथों का श्रजन किया है।
▪️क्षपणक – विद्वानों का मत है कि क्षपणक जैन साधु सिद्धसेन दिवाकर थे। यह महान दार्शनिक और अनेक ग्रंथों के सृजनकर्ता थे।
▪️अमरसिंह – महान कोषकार थे। उनके द्वारा रचित ‘अमरकोष‘ संस्कृत भाषा की महान रचना है।
▪️शंकु – इनके बारे में विशेष जानकारी प्राप्त नहीं होती। कहा जाता है कि यह रसायन शास्त्र के ज्ञाता और ज्योतिषी थे।
▪️बेतालभट्ट – ‘बेतालपंचविशंतिका‘ के अनुसार बेतालभट्ट विक्रमादित्य के सहयोगी थे। इन्हें कापालिक या तांत्रिक भी माना जाता है, जिनके पास अनेक सिद्धियां थीं ।
▪️घटखर्पर – ये परम विद्धान तो थे ही, उत्कृष्ट कवि भी थे। इनके रचित दो ग्रंथ कहे जाते हैं। कहीं-कहीं इनका नाम घटकर्पर भी मिलता है। कतिपय विद्वान इन्हें वैज्ञानिक मानते हैं।
▪️कालिदास – कविकुल गुरू कालिदास विक्रमादित्य की सभा के प्रमुख रत्न थे। उनकी रचनाएं केवल भारत ही नहीं अपितु विश्व साहित्य में अपना प्रमुख स्थान रखती हैं।
▪️वराहमिहिर -वराहमिहिर महान विद्वान थे।वे भूगोल,ज्योतिष आदि विषयों के प्रकाण्ड विद्वान थे। इसके साथ-साथ वे कुशल जौहरी और रसायनज्ञ भी थे। उनके ग्रन्थ भारतीय ज्ञान परंपरा की अमूल्य धरोहर हैं।
▪️वररूचि – वररूचि वैयाकरणक थे। कथासरित्सागर के अनुसार वररूचि का एक नाम कात्यायन भी था।
कतिपय इतिहासकारों ने विक्रमादित्य के दरबार में प्रतिष्ठित नवरत्नों की ऐतिहासिकता और विक्रमादित्य से उनके समकालीनता पर भी संदेह व्यक्त किया है।
डॉ पुरोहित का शोध कार्य इन संदेहों को भी दूर करता है।
महाराजा विक्रमादित्य अपने जीवन काल में ही सार्वभौम राजा के रूप में प्रतिष्ठित हो गए थे।उनकी कीर्ति देशकाल की सीमाओं को लांघते हुए दिग-दिगंत में व्याप्त हो गई थी। विक्रमादित्य का नाम पराक्रम और प्रजा हितैषी शासन पद्धति का पर्याय बन गया था।यही कारण रहा कि परिवर्ती काल के अनेक शासकों ने अपने नाम के साथ “विक्रमादित्य” विरुद धारण किया।
महाराजा विक्रमादित्य केवल मालवांचल के लिए नहीं अपितु संपूर्ण राष्ट्र के लिए गौरव पुरुष हैं।
डॉ.राजपुरोहित कहते हैं- “भारत का राष्ट्रीय प्रतीक विक्रमादित्य से बढ़कर कोई और नहीं हो सकता,जिसे दो सहस्त्राब्दियों से सब एकमत से भारत का राष्ट्र नायक मानते रहे।वही इस राष्ट्र का लोकसिद्ध,कालसिद्ध महानायक हो सकता है।”
ऐसे महानायक की कीर्ति गाथाओं का पुनर्पाठ आज की महती आवश्यकता है।
आवश्यकता इस बात की भी है कि विक्रम संवत् को राष्ट्रीय संवत् के रूप में मान्य किया जाए।
विक्रम संवत् को व्यापक लोकमान्यता प्राप्त है।जन्म से लगाकर मृत्युपर्यंत संस्कारों का निर्धारण इसके माध्यम से होता है। व्रत-त्यौहार तिथियां आदि इसके अनुसार मनाए जाते हैं। फिर इसे राष्ट्रीय संवत् मानने में क्या आपत्ति है?
*अरविन्द श्रीधर
सही है… विक्रम संवत को ही मान्यता मिलनी ही चाहिए