ऐतिहासिक-राजनीतिक उथल-पुथल का साक्षी : बोहानी का मिढ़वानी माता मेला…

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1920 के दशक में रायबहादुर हीरालाल ईश्वरदास नरसिंहपुर के डिप्टी कमिश्नर हुआ करते थे। उन्होंने श्री चंद्रभानु राय से नरसिंहपुर जिले का गजेटियर तैयार करवाया। 1922 में ‘नरसिंह नयन’ नाम से इसका पहली बार प्रकाशन हुआ। इस छोटी सी पुस्तिका में नरसिंहपुर जिले का लगभग प्रत्येक पक्ष समाहित है।
‘नरसिंह नयन’ में जिले के महत्वपूर्ण गांवों और कस्बों का संक्षिप्त लेकिन सारगर्भित विवरण दिया गया है।
बोहानी के बारे में वह लिखते हैं – बोहानी,गाडरवारा तहसील में नरसिंहपुर से 20 मील पश्चिम को है। बोहानी प्राचीन बस्ती है। पहले इसका नाम कोहानी था। कहते हैं कि यहीं पर प्रसिद्ध आल्हा-ऊदल के पिता बनाफर सरदार जसराज लड़ाई में जूझ गए थे। गांव में मिढ़बानी देवी की बड़ी मानता होती है। ये अंधो ,कोढ़ियों को चंगा कर देती हैं। यहां पर हर साल चैत में एक मेला भरता है,जिसमें 5000 तक जमाव हो जाता है।’

प्रतिष्ठित इतिहासकार आर के शर्मा एवं निदेशक गजेटियर(म.प्र.)रहे मनीषी विद्वान शंभु दयाल गुरु ने अपने ग्रंथ “Historical place names of madhya Pradesh : A Dictionary” में मध्य प्रदेश के प्रमुख नगरों एवं कस्बों को उनकी विशेषताओं के साथ सूचीबद्ध किया है। छोटे से ग्राम बोहानी का नाम उस सूची में होना,गांव के ऐतिहासिक महत्व को प्रदर्शित करता है। वह लिखते हैं-

‘ग्राम बोहानी नरसिंहपुर जिले की गाडरवारा तहसील में, तहसील मुख्यालय से पूर्व की और 9.6 कि.मी. की दूरी पर स्थित है।
इस गाँव का इतिहास काफी पुराना माना जाता है, और कहा जाता है कि गाँव एक समय पर “कोहानी” नाम से जाना जाता था। स्थानीय लोगों के मुताबिक यह जाने माने बनाफर राजपूत योद्धा आल्हा एवं ऊदल के पिता जसराज का प्रभाव क्षेत्र था।यहीं पर उनका देहावसान हुआ था।
बोहानी के लोग मिढवानी माता में बड़ी आस्था रखते हैं, और मानते हैं कि उनकी आराधना से अंधेपन एवं कुष्ठ रोग जैसी बीमारियों से निजात पाई जा सकती है।देवी के प्रति श्रद्धा व्यक्त करने के लिए चैत्र के माह में (अंग्रेज़ी महीने मार्च और अप्रैल के बीच) गाँव में तीन दिवसीय मेले का आयोजन किया जाता है।’)

उक्त प्रामाणिक विवरण देखने के बाद निश्चयात्मक रूप से कहा जा सकता है कि बोहानी तो प्राचीन ऐतिहासिक बस्ती है ही, मिढ़बानी माता के मेले का इतिहास भी कम से कम 150-200 साल पुराना है। इससे पहले का भी हो सकता है।

आधुनिक युग के महान दानवीर चौधरी राघव सिंह मिश्र का गांव बोहानी,अत्यंत प्राचीन काल से ही राजनीतिक-सामाजिक-शैक्षणिक रूप से
चैतन्य रहा है। कभी यह गांव विचार मंथन की धुरी हुआ करता था। ना जाने कितने सामाजिक- राजनीतिक नवाचारों की नींव इस गांव में रखी गई।
12 वीं शताब्दी में हुए आल्हा-ऊदल से लगाकर स्वाधीनता संग्राम तक के इतिहास में बोहानी का उल्लेख कहीं ना कहीं मिलता है।
स्वतंत्रता संग्राम सेनानी एवं ‘नरसिंहपुर जिला और स्वतंत्रता संग्राम’ के लेखक सुंदरलाल श्रीधर ने लिखा है -‘असहयोग आंदोलन के समय से ही बोहानी राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र बन गया था। इसी दौरान मिढ़बानी माता के मेले में प्रसिद्ध कवयित्री एवं स्वतंत्रता संग्राम सेनानी श्रीमती सुभद्रा कुमारी चौहान की अध्यक्षता में राजनीतिक परिषद की बैठक भी आयोजित की गई थी।
आगे चलकर यह गांव स्वदेशी,सर्वोदय,खादी,भूदान यज्ञ एवं शैक्षणिक गतिविधियों का महत्वपूर्ण केंद्र बनकर उभरा।’
गांव के बुजुर्ग बताते हैं कि संभवत: 1950-51 में
गोलापूरब ब्राम्हण समाज का राष्ट्रीय सम्मेलन भी मेले में आयोजित किया गया था।

ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण रहे ग्राम बोहानी का मेला भी गांव की प्रतिष्ठा के अनुरूप आकर्षण का केंद्र रहा है।
वैसे तो महाकोशल-नर्मदांचल में अधिकांश मेले मकर संक्रांति के आसपास लगते हैं लेकिन मिढ़बानी माता का मेला चैत्र नवरात्रि में सप्तमी से नवमी तिथि तक भरता था जो बाद में एकादशी तक भरने लगा।

नरसिंहपुर कृषि प्रधान जिला है। पहले किसान साल में एक ही फसल ले पाते थे। इक्का दुक्का किसान ही दो फसलें लेते थे। तब चैत्र का महीना किसानों के लिए विशेष महत्व रखता था। साल का यही वह समय होता था जब किसानों के हाथों में पैसा आता था। इसी समय किसान कृषि संबंधी उपकरण, शादी-विवाह,दान-दहेज का सामान, बर्तन-भांडे और जरूरत की अन्य वस्तुओं की खरीददारी किया करते थे।
मिढ़बानी माता का मेला उनकी हर जरूरत की पूर्ति करता था। अपनी इसी उपयोगिता के चलते मेला पूरे महाकोशल में प्रसिद्ध था। इलाके के लोग साल भर मेले की प्रतीक्षा किया करते थे।

चीचली के पीतल ओर कांसे के बर्तन,तेंदूखेड़ा की तिजोरी और कृषि उपकरण, घर बनाने में लगने वाला सामान जैसे चौखट,खिड़की,दरवाजे,
चूरिया,नाटें,मिंयार सब कुछ तो मिलता था मेले में।
हर माल सवा रुपया वाली दुकान आकर्षण का केंद्र हुआ करती थी। मनिहारी दुकानों में महिलाओं की विशेष रुचि हुआ करती थी। साल भर की टिकी,बूंदी,ईंगुर मेले से ही तो खरीदतीं थी महिलाएं।

लोगों को देवी देवताओं के फोटो फ्रेम और धार्मिक किताबों की दुकानों का विशेष इंतजार हुआ करता था। रामचरितमानस,ब्रह्मानंद भजनावली, राधेश्याम रामायण, मोहन मोहिनी,आल्हा और नथाराम शर्मा लिखित नौटंकी की किताबें मेले के माध्यम से ही घर-घर पहुंचती थीं।
आसपास की भजन मंडलियां भी मेले में आती थीं। फाग के फड़ भी जमते थे।
झूला,जिसे नरसिंहपुर जिले में हिलोड़ना कहा जाता है,मेले का प्रमुख आकर्षण हुआ करते थे। जादूगरों के पंडाल भी सजते थे। बायोस्कोप का अपना ही आकर्षण था।
कुल मिलाकर मेले में लोगों को वह सब कुछ मिल जाता था जो दैनिक जीवन में जरूरी होता है।आनंद रस भी उसमें शामिल है।

मेला अब भी लगता है,लेकिन बदलाव के इस दौर में मेलों का स्वरूप बदल रहा है। देशज सरलता का स्थान चमक-दमक ने ले लिया है। बाजार हर घर की देहरी पर खड़ा है। आवश्यकता की हर वस्तु बारहों माह उपलब्ध हैं। स्वाभाविक है, आज की पीढ़ियों में मेलों के प्रति वैसा आकर्षण नहीं रहा,जो दो-तीन पीढ़ी पहले के लोगों में हुआ करता था।
लेकिन इस सबके बीच परंपरागत मेलों का अस्तित्व भी बराबर बना हुआ है, जो विरासत के प्रति हमारे लगाव को प्रदर्शित करता है। मिढ़बानी माता मेले की परंपरा का अक्षुण्ण बने रहना इसका उदाहरण है।

भले ही अब मेले का स्वरूप बदल गया हो, लेकिन एक चीज जो नहीं बदली,वह है मिढ़वानी माता के प्रति क्षेत्र के लोगों की आस्था,जो उन्हें मेले तक खींच ही लाती है।

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2 Comments
  • Detailed information and excellent description on Madhwani Mela. You rightly described that although there are enormous changes in our social norms and values and that can be seen in the changing pattern of the fair but still such social gatherings are important to showcase our heritage and tradition.

  • मिढ़वानी मेला के वारे में रोचक जानकारी।

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