10-12 साल की उम्र में पं. रामसहाय पांडे पर ‘राई’ ने ऐसा जादू किया कि फिर वह ‘राई’ के ही होकर रह गए। उनका पूरा जीवन राई को समर्पित रहा। उन्होंने ना केवल जीवन पर्यंत कला की साधना की,राई को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठा भी दिलाई।
उन्होंने ऐसे समय में राई नृत्य को अपनाया जब इसे समाज में एक अलग ही दृष्टि से देखा जाता था।
परंपरा के अनुसार राई नृत्य बेड़िया समाज की महिलाएं करती हैं। एक ब्राह्मण युवक का कमर में मृदंग बांधकर उनके साथ संगत करने,नाचने-गाने का निर्णय आसान तो नहीं ही रहा होगा।
एक साक्षात्कार में पांडे जी ने बताया था कि प्रारंभिक तौर पर इसका विरोध हुआ था, लेकिन उन्होंने राई को नहीं छोड़ा। दृढ़ता के साथ अपनी कला साधना में लग रहे। धीरे-धीरे उनकी प्रसिद्धि बढ़ी और समाज में स्वीकार्यता भी।
उनका स्पष्ट मानना था कि राई एक कला है,और उसको इसी दृष्टि से देखा जाना चाहिए।
अश्लीलता के सवाल पर उनका कहना था कि अश्लीलता लोगों की नजर में होती है,कला में नहीं।
यदि राई नृत्य में अश्लीलता होती तो करीला में राई नृत्य की परंपरा कैसे होती, जो जगत जननी सीता जी का धाम है? सैकड़ो ‘लरकिनी’ वहां रात भर नृत्य करती हैं और लाखों लोग उन्हें देखते हैं। यह अश्लील कैसे हो सकता है? यह एक प्रकार की साधना है। भक्ति की एक पद्धति है।
रामसहाय जी 95 साल की अवस्था तक राई की साधना में रत रहे।
देश का शायद ही कोई प्रतिष्ठित सांस्कृतिक समारोह होगा जो उनकी कला का साक्षी ना बना हो। इतना ही नहीं,उन्होंने लगभग 18 देशों के शताधिक मंचों पर राई नृत्य का प्रदर्शन कर इसे बुंदेलखंड की गलियों और आंगन से निकालकर विश्व पटल तक पहुंचाया।
इस दृष्टि से उन्हें बुंदेलखंड का सांस्कृतिक प्रतिनिधि कहा जा सकता है।
कला जगत से जुड़े लोग उन्हें सिर्फ राई का नहीं,अपितु भारत की समग्र लोक कलाओं का प्रतिनिधि मानते हैं।
उनकी कला साधना को मान्यता प्रदान करते हुए 2022 में भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री अलंकरण से अलंकृत किया था। हालांकि इसके पूर्व लाखों बुंदेली प्रेमियों के हृदय में अपना स्थान बनाकर वह ऐसा सम्मान प्राप्त कर चुके थे,जो बिरले ही कला साधकों को नसीब होता है।
1984 में राम सहाय जी को मध्य प्रदेश सरकार के ‘शिखर सम्मान’ से सम्मानित किया गया था। 1980 में उन्हें नृत्य शिरोमणि की उपाधि से भी अलंकृत किया गया था।
पद्मश्री अलंकरण मिलने के बाद उन्होंने कहा था कि यह राई नृत्य कला और बुंदेली का सम्मान है। एक ऐसी लोक कला का सम्मान जिसे लंबे समय तक एक खास वर्ग तक ही सीमित रखा गया।
वह इस सम्मान को पाकर केवल इसलिए खुश नहीं थे कि उनके हुनर और साधना को सराहा गया,बल्कि इसलिए खुश थे कि राई कलाकार को सम्मानित होते देखकर युवा पीढ़ी भी राई को अपनाएगी।
उनका मानना था कि राई बुंदेलखंड और बुंदेली लोककला,दोनों के अस्तित्व के लिए ज़रूरी है।
11 मार्च 1933 को जन्मे रामसहाय जी ने 8 अप्रैल 2025 को अंतिम सांस ली। लगभग 80 वर्ष मृदंग की थाप और मंजीरे-घुंघरुओं की झंकार के बीच गुजारने वाले पं. रामसहाय पांडे को अंतिम विदाई भी राई नृत्य के साथ ही दी गई। एक कला साधक के लिए इससे सटीक श्रद्धांजलि और क्या हो सकती है ?
रामसहाय जी ने तो अपना काम कर दिया। अब बारी उन लोगों की है जो बुंदेली को प्यार करते हैं।
राई के परंपरागत स्वरूप और रामसहाय जी द्वारा उसे दिलाई गई प्रतिष्ठा को कायम रखना अब युवा पीढ़ी का दायित्व है। इस दायित्व का निर्वहन करना ही पं.राम सहाय पांडे के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

*अरविन्द श्रीधर
(गत 9 अप्रैल 2024 को पं. रामसहाय पांडे जी से करीला धाम में भेंट हुई थी। चित्र उसी अवसर का।)
Bahut sundar lekh v jankari