भारत का गाँव एक सांस्कृतिक ईकाई है, जो परिवार और पड़ोस से मिलकर बनता है। इसका जो स्वरूप प्रारंभिक रूप में विकसित हुआ वही गाँव समाज है। इस गाँव समाज की व्यवस्था के बेहतर सञ्चालन के लिए, जनसामान्य ने जो सहज पद्धति अपनायी उसे ही “पंचायत” कहा गया। पंचायत ने शताब्दियों से गाँव समाज को और प्रकारांतर से भारत की संस्कृति को सुरक्षित और संवर्धित किया है। गाँव समाज प्रारंभिक काल से ही अपने स्वराज्य व स्वावलंबन के लिये इसी पंचायत पद्धति को आधार बनाता रहा है।
आजादी के बाद जब देश का संविधान बनना तय हुआ तभी महात्मा गांधी ने जमीनी स्तर पर आजादी व लोकतंत्र को आम आदमी के जीवन का उपयोगी अंग बनाने के लिए पंचायत को आधार के रूप में लेने की बात कही थी।
26 जनवरी 1950 को भारत का जो संविधान लागू हुआ, उसमें दो सरकारों का प्रावधान किया गया। संविधान के भाग-5 में “संघ सरकार” तथा भाग-6 में “राज्य सरकार” का। एक लम्बे समय तक इन्ही दोनों सरकारों के द्वारा देश का शासन चलता रहा। वर्ष 1992 में 73वें व 74वें संविधान संशोधन के द्वारा एक और सरकार का प्रावधान किया गया है। संविधान के भाग-9 के अन्तर्गत ‘पंचायत’ तथा 9क के अन्तर्गत ‘नगरपालिका’ के रूप में स्व-सरकार (Self Government) का प्रावधान किया गया है। नीति निर्देशक तत्त्व के अंतर्गत अनुच्छेद 40 में भविष्य की जो संकल्पना की गयी थी, एक तरह से उसे ही समय और परिस्थिति की मांग एवं दबाव के फलस्वरूप मूर्त रूप देना पड़ा। यह सही है कि भारत के संविधान में ‘सेल्फ गवर्नमेंट’ को परिभाषित नहीं किया गया है, लेकिन उसका आशय केन्द्र व राज्य सरकार के बाद भारतीय राज्य व्यवस्था में स्थानीय स्तर पर गाँव में उसकी स्वयं की सरकार के रूप में उसे अपने बारे में निर्णय लेने का अधिकार प्रदान करने का था। जिसका स्पष्ट उल्लेख महात्मा गांधी से लेकर नेहरू, जे0पी0, विनोवा, लोहिया, दीनदयाल उपाध्याय तथा राजीव गांधी के व्यक्तव्यों एवं चर्चाओं में मिलता है। 73वें संविधान संशोधन के द्वारा राष्ट्रनायकों की इसी मंशा को साकार किया गया।
संविधान ने ग्यारहवीं सूची के माध्यम से जिन 29 विषयों की जिम्मेवारी पंचायत को सौंपी है उसमें कृषि, जल, वन तथा पशु जैसे गाँव जीवन के मूलभूत विषयों को तो शामिल किया ही साथ ही शिक्षा, स्वास्थ्य, उद्योग जैसे भौतिक समृद्धि एवं गरीबी उन्मूलन के मुद्दों को भी जोड़ा गया है। वहीं दूसरी ओर मकान, सड़क, पुलिया, बिजली, सामुदायिक भवन जैसे भौतिक संरचनागत संसाधनों के निर्माण व विकास के साथ साथ महिला एवं बाल विकास, समाज कल्याण तथा अनुसूचित एवं कमजोर वर्गों के कल्याण की जिम्मेवारी भी सौंपी है। इस प्रकार ग्रामीण जीवन के नियमन और विकास के उन सभी तत्वों एवं विषयों को पंचायत के साथ जोड़ा गया है जो गाँव की खुशहाली के लिए आवश्यक हैं। पंचायतों को यह जिम्मेवारी गाँव की अपनी सरकार के रूप में उसे दिया गया है।
पेसा एक्ट 1996 –
अनुसूचित क्षेत्रों के लिए बना पेसा कानून पंचायती राज व्यवस्था के लिए कई अर्थों में महत्वपूर्ण है। जिसमें सबसे महत्वपूर्ण है समुदाय के महत्व को स्वीकार करना। पंचायत भारत के सामुदायिक समाज के संरक्षण व विकास का महत्वपूर्ण आधार रही है। लेकिन अंग्रेजी राज में गाँवों की गुलामी तथा स्वतंत्र भारत में बहुमत आधारित चुनाव पद्धति ने गाँव की इस सामुदायिक भावना को सबसे अधिक चोट पहुंचाई है। 73वें संविधान संशोधन के द्वारा सामान्य क्षेत्रों के लिए पंचायत व्यवस्था के प्रावधान जहां प्रत्येक नागरिक को सिर्फ एक मतदाता के रूप में चिन्हित करता है वहीं पेसा कानून के अन्तर्गत अनुसूचित क्षेत्र की पंचायत व्यवस्था में वहां के समुदाय को महत्व दिया गया है। उसे ही स्थानीय स्वशासन का मूलभूत तत्व माना गया है। खनिज, जल, जंगल तथा जमीन के नियंत्रण व स्वामित्व का अधिकार समुदाय को सौंपा गया है।
सत्ता हस्तांतरण में कोताही
इस प्रकार संविधान के 73वें संशोधन के द्वारा ‘पंचायत’ संघ (केन्द्र) और राज्य के बाद ‘तीसरी सरकार’ है। हालाँकि एक सरकार के रूप में उसके अधिकारों में अभी कई कमियाँ जरूर है, लेकिन अवधारणा एवं प्रारंभिक स्तर पर यह तीसरी सरकार है, जिसमें जनता सीधे-सीधे भागीदारी कर सकती है। अपनी आवश्यकता पर विचार करके निर्णय ले सकती है और अपनी सीमा में इस निर्णय को क्रियान्वित भी कर सकती है।
1995 के शुरुआती दौर में ज्यादातर राज्यों में पंचायतों के चुनाव तो हो गए लेकिन सत्ता हस्तांतरण की धीमी प्रक्रिया आगे के कई वर्षों तक चलती रही है। जो आज भी जारी है। जिसके चलते अधिकांश राज्यों में अभी तक सत्ता का सही अर्थों में हस्तांतरण नहीं हो पाया है।
73वें संविधान संशोधन द्वारा सत्ता के विकेन्द्रीकरण का जो गुरुतर दायित्व राज्य के विधानमंडलों को सौंपा गया है वह कार्य तो आज भी अधूरा है। इसके अन्तर्गत राज्य सरकारों द्वारा ग्यारहवीं अनुसूची के 29 विषयों के कार्यों की मैपिंग के बाद उसे तीनों स्तरों (ग्राम, ब्लॉक एवं जिला) की पंचायतों के बीच बाँट कर सत्ता का सही अर्थों में हस्तांतरण करना चाहिए था। लेकिन यह कार्य अधिकांश राज्यों में आज तक अधूरा है। कई राज्यों में तो कार्यों एवं गतिविधियों की ठीक से मैपिंग ही नहीं की गई है। जिन राज्यों में मैपिंग हुई है वहां भी सत्ता का ठीक से हस्तांतरण नहीं हुआ है।
केरल, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में जहां पंचायत राज व्यवस्था अपेक्षाकृत अधिक प्रभावी तरीके से संचालित हो रही है, वहां गतिविधियों की व्यवस्थित तरीके से मैपिंग करके कार्य, कर्मी और कोष को सौंपने का कार्य किया गया है। उत्तर प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान, बिहार, तमिलनाडु तथा उड़ीसा जैसे राज्य जहां इसकी उपेक्षा की गई है, वहां आज भी सत्ता के विकेन्द्रीकरण की दिशा में बहुत कम दूरी तय की जा सकी है। इनमें से अधिकांश राज्यों में तो गतिविधियों की मैपिंग की बजाय अधिनियम के अन्तर्गत ग्यारहवीं अनुसूची के 29 विषयों का उल्लेख मात्र करके छोड़ दिया गया है।
सत्ता के विकेन्द्रीकरण की दृष्टि से जिन राज्यों में बेहतर प्रयास किये गए हैं उनमें से केरल, कर्नाटक तथा पश्चिम बंगाल को उदाहरण के तौर पर लिया जा सकता है।
केरल
केरल में 73वें संविधान संशोधन के उपरांत 1995 में पंचायतों के गठन के तुरंत बाद विकेन्द्रीकरण के लिए गठित एस0बी0 सेन कमेटी की संस्तुतियों के आधार पर सबसे पहले तीनों स्तर की पंचायतों की गतिविधियों का मानचित्र ही तैयार किया गया। तदुपरांत अधिनियम के अन्तर्गत ग्राम सभाओं को विशेष शक्ति प्रदान करते हुए प्रत्येक स्तर की कार्यात्मक जिम्मेदारियों का विस्तारपूर्वक उल्लेख किया गया और उसी के अनुसार विषयवार कार्य, कर्मी और कोष के हस्तांतरण का कार्य प्रारम्भ कर दिया गया। इसके अन्तर्गत जहां एक तरफ राज्य सरकार के संबंधित विभागों के कार्मिक और बजट पंचायतों को स्थानांतरित किये गए वहीं ग्रामीण विकास में कार्य में लगे अन्य अभिकरणों (जैसे DRDA) को पंचायत सरकार का हिस्सा बना दिया गया। पंचायत के लिए अलग से सेवा संवर्ग बनाकर उसे उसी के नियंत्रण में सक्रिय किया गया। पंचायत क्षेत्र के लिए राज्य बजट में एक अलग तंत्र बनाकर शुरुआती दौर से ही राज्य योजना के परिव्यय का लगभग 35% निर्धारित कर दिया गया। इसी के साथ आगामी वर्षों में राज्य वित्त आयोग की संस्तुतियों को बहुत सकारात्मक ढंग से लेते हुए उसे लागू करने का प्रयास किया गया। जिससे पंचायतों के क्रियाकलाप एवं प्रभाव क्षमता में निरंतर सुधार होता गया।
कर्नाटक
पंचायती राज संस्थाओं को शक्तियों के विकेन्द्रीकरण में कर्नाटक अग्रिम पंक्ति में आता है और यह उन थोड़े राज्यों में से है जहां इन संस्थाओं ने प्रभावकारी ढंग से कार्य किया है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि कर्नाटक वह राज्य है जहां 73वें संविधान संशोधन (1992) से पहले ही अत्यंत प्रभावी पंचायती राज्य व्यवस्था के संचालन की शुरुआत कर दी गई थी। वर्ष 1983 में कर्नाटक में राज्य सरकार द्वारा जिला एवं मण्डल को आधार बना कर द्विस्तरीय पंचायत प्रणाली का ऐतिहासिक कानून पारित किया गया था। इस कानून में महिलाओं को 25% आरक्षण का प्रावधान था। इसके तहत 1987 में जिला पंचायत एवं मण्डल पंचायत के चुनाव हुए। इसी कानून के तहत जहां राज्य वित्त आयोग की भी स्थापना की गई थी वहीं राजकोषीय स्तर पर इन पंचायतों के दायित्वों के अनुरूप राज्य बजट में जिला सेक्टर बनाया गया। जिला परिषदों में जिला उपायुक्त से वरिष्ठ अधिकारी को मुख्य सचिव के रूप में तैनात किया गया था। भारत सरकार के अनुमोदन से डी.आर.डी.ए. को जिला परिषदों में मिला दिया गया। जिला परिषद के मुख्य सचिव की वार्षिक गोपनीय रिपोर्ट जिला पंचायत अध्यक्ष को लिखने का अधिकार दिया गया। इस पद्धति के फलस्वरूप राजनीतिज्ञों तथा नौकरशाहों दोनों के मध्य शक्ति संरचना में अभूतपूर्व एवं मौलिक परिवर्तन दिखाई पड़ा। 1993 में संविधान संशोधन के तुरंत बाद कर्नाटक राज्य ने नए पंचायती राज की स्थापना के लिए जो अधिनियम पारित किया उसमें ज़्यादातर उन प्रावधानों को बरकरार रखा जो 1987 के अधिनियम में शामिल थे।
नयी पंचायती राज व्यवस्था को और अधिक प्रभावी बनाने के लिए जून 2001 में विकास आयुक्त की अध्यक्षता में एक कार्यदल गठित किया। जिसकी संस्तुतियों के आधार पर 2003 में पुनः अधिनियम में संशोधन करके पंचायती राज को आगे और मजबूत करने हेतु प्रयास शुरू किया गया। जिसमें गतिविधियों का मानचित्रीकरण (मैपिंग) तथा कार्य, कर्मी तथा कोष का हस्तांतरण शामिल था।
पश्चिम बंगाल
केरल और कर्नाटक की ही तरह पश्चिम बंगाल की पंचायती राज व्यवस्था का स्वरूप काफी प्रभावी है। पश्चिम बंगाल में ब्रिटिश काल में ही (1870) ‘चौकीदारी पंचायतों’ के माध्यम से कानून व्यवस्था को बनाए रखने का कार्य किया जाने लगा था। इसी के साथ भारत में पहली बार 1885 में ‘बंगाल लोकल सेल्फ गवर्नमेंट एक्ट’ बना, जिसके अन्तर्गत जिला स्तर पर ‘जिला बोर्ड’, उपसंभाग स्तर पर ‘स्थानीय बोर्ड’ तथा ग्राम समूहों के स्तर पर ‘संघ समितियां’ बना कर स्थानीय सरकार को स्थापित किया गया था। शाही विकेन्द्रीकरण आयोग (1909) की संस्तुतियों के आधार पर 1919 में सबसे पहले ‘बंगाल ग्राम स्व-सरकार अधिनियम 1919’ पारित किया गया था। जिसमें पूर्व की सभी समितियों एवं संघों का विलय कर दिया गया था। आजादी के बाद बलवंत राय मेहता कमेटी की संस्तुतियों के आधार पर 1963 में ‘जिला परिषद अधिनियम’ तो पारित किया गया लेकिन सही अर्थों में 1973 में बना ‘पश्चिम बंगाल पंचायती राज अधिनियम’ में एक ठोस कानून बनाने की पहल हुई। जिसमें त्रिस्तरीय पंचायत राज प्रणाली के साथ-साथ ग्राम सभा की सर्वोच्यता तथा एक तिहाई महिला तथा अनुसूचित जातियों के आरक्षण जैसे विषय प्रमुखता से शामिल किये गए थे।
73वें संविधान संशोधन के बाद 1994 में अधिनियम में संशोधन किया गया तथा शुरुआती दौर से ही 29 विषयों के ज्यादातर कार्य तीनों स्तर की पंचायतों को सौंप दिए गए। इसके लिए गतिविधियों की मैपिंग करके कार्यों के हस्तांतरण को और ज्यादा स्पष्ट किया गया। इसके लिए निरंतर प्रयास चलता रहा तथा बीच-बीच में आवश्यकतानुसार शासनादेश भी जारी किये जाते रहें है।
कोष के हस्तांतरण के विषय में राज्य वित्त आयोग की सिफारिश को गंभीरता से लेते हुए पर्याप्त वित्त की व्यवस्था सुनिश्चित की गई है।
पंचायती व्यवस्था में लोक भागीदारी को सक्रिय एवं प्रभावी बनाने के लिए सभी स्तरों (ग्राम, ब्लॉक तथा जिला) पर ‘संसद’ का प्रावधान किया गया है।
केरल, कर्नाटक और पश्चिम बंगाल जैसे राज्य जहां पंचायत व्यवस्था का एक उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं वहीं दूसरी ओर उत्तर प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान जैसे कई राज्यों में अभी भी यह व्यवस्था सही तरीके से अपने पाँव पर खड़ी नहीं हो पाई। ग्राम सरकार की बजाय राज्य सरकार की एक कार्यदायी संस्था के रूप में आज भी इसकी पहचान अधिक है।
उत्तर प्रदेश
वैसे तो पंचायत व्यवस्था की दृष्टि से उत्तर प्रदेश का भी इतिहास उल्लेखनीय है। आजादी से पूर्व सरकारी एवं सामाजिक दोनों स्तरों पर ग्रामीण समाज के विकास में पंचायत प्रणाली की सक्रिय भूमिका व योगदान रहा है। आजादी के बाद 1947 से ही राज्य के अधिनियम के अन्तर्गत पंचायतों का गठन व कार्य प्रारम्भ हो गया था। लेकिन 73वें संविधान संशोधन के बाद स्व-सरकार के रूप में पंचायतों की संरचना व काम काज में जो गुणात्मक अंतर आना चाहिए वह आज तक नहीं दिखाई पड रहा है। यह सही है कि संविधान संशोधन के बाद 1994 में राज्य के अधिनियम में संशोधन करके 1995 में नए पंचायती राज के प्रावधानों के अनुसार चुनाव भी सम्पन्न हो गया था लेकिन इस राज्य में आज तक 29 विषयों के क्रिया कलापों की मैपिंग नहीं की जा सकी है। ऐसी स्थिति में कार्यों के हस्तांतरण की स्थिति काफी कमजोर है।
वैसे तो 1994 में ही प्रशासनिक सुधार एवं विकेन्द्रीकरण के उद्देश्य से बजाज आयोग का गठन कर दिया गया था और उसकी संस्तुतियों के क्रियान्वयन हेतु बनाई गई भोलानाथ तिवारी उच्चस्तरीय समिति द्वारा 29 की जगह 32 विषयों के हस्तांतरण की सिफारिश भी की गई थी, लेकिन आज तक इसको अमली जमा नहीं पहनाया जा सका।
हरियाणा
चूंकि हरियाणा 1966 के पहले पंजाब का हिस्सा था अतः 73वें संविधान संशोधन से पूर्व यहाँ पर पंजाब ग्राम पंचायत अधिनियम 1952 के अनुसार पंचायतें काम कर रही थीं। 73वें संशोधन के बाद हरियाणा पंचायती राज अधिनियम 1994 बनाया गया। बाद में विभिन्न प्रकार के नियमों को शामिल कर नए पंचायती राज को लागू किया गया। यह उल्लेखनीय है कि हरियाणा में 1994 में ही पंचायत के चुनाव करा दिए गए थे। तब से नियमित रूप से चुनाव होते आ रहे हैं।
राज्य के पंचायत अधिनियम में ग्यारहवीं अनुसूची के 29 विषयों को शामिल तो किया गया। मात्र 10 विषयों के ही कुछ कार्य कलापों की मैपिंग की गई तथा उन्हीं 10 विभागों के कार्यों का बंटवारा किया गया। लेकिन इस विभागों के कार्यों में अभी नौकरशाही का हस्तक्षेप अधिक है। पंचायत सदस्यों की न तो कोई भागीदारी है और न ही विधिवत उनकी संस्तुतियां या सुझाव प्राप्त करने की कोई परंपरा है। भारत सरकार के पंचायती राज मंत्रालय द्वारा कराए गए मूल्यांकन के अनुसार सुपुर्द किये गए कार्यों में ग्राम पंचायतों की अपेक्षित भूमिका न के बराबर है।
राज्य सरकार ने विकास कार्य करने के लिए जुलाई 2006 में एक अधिसूचना के माध्यम से पंचायतों के वित्तीय अधिकार बढ़ाने का आदेश जारी किया था। लेकिन वह भी सही रूप में जमीन पर नहीं उतर पाया है।
राजस्थान
राजस्थान में पंचायती राज का मौजूदा स्वरूप 1956 से अस्तित्व में आया है। चूंकि आजादी से पूर्व यहाँ रियासतों का प्रभाव अधिक था, जिनका 1947 से 1950 के बीच भारतीय राज्य में विलय हुआ। राजस्थान का पहला प्रमुख अधिनियम राजस्थान पंचायत अधिनियम 1953 था जो इन्हीं रियासतों द्वारा संचालित पंचायत व्यवस्था पर आधारित था। 1956 का अधिनियम इसी की पृष्ठभूमि पर तैयार हुआ। जैसा कि सर्व विदित है कि प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू की पहल से निर्मित एवं संचालित पंचायती राज की शुरुआत 2 अक्टूबर 1959 को राजस्थान के ही नागौर जिले से हुई थी और प्रारम्भिक दौर में इस राज्य में पंचायत व्यवस्था का एक बेहतर स्वरूप भी विकसित हुआ था। जो बाद के वर्षों में धीरे-धीरे बिखरता गया।
73वें संविधान संशोधन के बाद राजस्थान का पंचायती राज अधिनियम 1994 में पारित हो गया और 23 अप्रैल 1994 से प्रभाव में भी आ गया। उसमें औपचारिक रूप से ग्यारहवीं अनुसूची के सभी 29 विषयों को पंचायतों को सौंपने का उल्लेख किया गया लेकिन विश्लेषण करने से पता चलता है कि वास्तविक रूप से वह पंचायतों को तब सौंपे ही नहीं गए।
ग्यारहवी अनुसूची के माध्यम से जिन 29 विषयों को पंचायती राज संस्थाओं को सौपा गया है उसमें मानव विकास और सामाजिक विकास के विषय मुख्य रूप से शामिल किये हैं। संरचनागत विकास का कार्य भी उसे सौपा गया है लेकिन यह दूसरे दर्जे पर है। यह अलग बात है कि पंचायतें ढांचागत निर्माण के कार्यों में ही पूरी तरह से लग गयी है। मानव और सामाजिक विकास के मुद्दे उनके लिए गौण हो गए है। वास्तव में संविधान संशोधन के बावजूद आज की तारीख में पंचायतें स्वयं एक सरकार के रूप में कार्य न करके केवल पहली तथा दूसरी सरकार की एजेंसी मात्र बनकर रह गई है। उसका सबसे बड़ा कारण यह है कि पंचायतों को संशोधन के द्वारा एक संवैधानिक ढांचा तो मिल गया लेकिन सरकार के रूप में कार्य करने हेतु जो संवैधानिक अधिकार उसे प्राप्त होना चाहिए था उसे राज्य के विधानमंडलों के रहमोंकरम पर छोड़ दिया गया। जिसके परिणामस्वरूप केरल और पश्चिम बंगाल जैसे कुछ राज्यों ने तो पर्याप्त अधिकार सौपे लेकिन अधिकांश राज्यों ने इसमें बड़ी कोताही बरती है।
राज्य सरकारों की उदासीनता और उपेक्षा
यह परिस्थिति इस कारण निर्मित हुई है कि आजादी के बाद संविधान निर्माण में 1935 के इंडिया एक्ट के एक बड़े हिस्से को यथावत स्वीकार कर लिया गया था। इसी में केंद्र और राज्य सरकार के बीच विषयों के वितरण का भी प्रावधान शामिल था। जिसे हम आज संविधान की 7वीं अनुसूची के रूप में जानते है। इस सातवीं अनुसूची में केंद्र और राज्य के बीच विषयों का बंटवारा किया गया है। स्थानीय शासन को एक विषय के रूप में राज्य की सूची में शामिल किया गया है। जबकि संविधान के अनुच्छेद 40 में ग्राम पंचायतों को सेल्फ गवर्नमेंट के रूप में दायित्व सौंपने की जिम्मेवारी राज्य को सौंपी है।
यहाँ एक तथ्य और भी उल्लेखनीय है कि 73वें संविधान संशोधन में अनुच्छेद 243(छ) में पंचायतों को दो कार्य सौपें गए है – प्रथम यह कि उसे आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय की योजनायें तैयार करना है तथा दूसरा कि वह केंद्र और राज्य सरकार की ऐसी स्कीमों को भी क्रियान्वित करेगी जो उसके 29 विषयों से सम्बंधित है। इसमें से पहला कार्य सही अर्थो में उसके सरकार होने का कार्य है। दूसरा कार्य एजेंसी का कार्य है जो पहली और दूसरी सरकार के लिए करना है।
आज की तारीख में पंचायतें सिर्फ एजेसी का कार्य कर रही है। जब की उसे सरकार के रूप में इस के लिए प्रतिष्ठित किया गया था कि जमीनी आवश्यकता और परिस्थिति के अनुसार जनभागीदारी के साथ स्थानीय स्तर पर योजना बनाई जा सके और उसे उसी स्तर पर क्रियान्वित किया जा सके। समावेशी और टिकाऊ विकास की यही पहली शर्त भी है। लेकिन लगभग दशकों की इस यात्रा में अधिकांश राज्यों में पंचायतें अपने इस दायित्व के निर्वहन से कोसों दूर खड़ी है। उन्हें न तो इसके लायक बनाया गया और न तो उन्हें सही अवसर और पर्याप्त साधन मुहैया कराये गए।
नगरपालिकाओं को स्व-सरकार के रूप में प्रतिष्ठित करने के लिए वर्ष 1992 में 74वां संविधान संशोधन भी संसद में पारित हुआ था। इस संविधान संशोधन के अनुच्छेद 243 के उपबन्ध य घ में ‘जिला योजना समिति’ का प्रावधान किया गया है। उसके अनुसार ‘प्रत्येक राज्य में जिला स्तर पर जिले में पंचायतों और नगरपालिकाओं द्वारा तैयार की गई योजनाओं का समेकन करने और सम्पूर्ण जिले के लिए एक विकास योजना प्रारूप तैयार करने के लिए एक जिला योजना समिति का गठन किया जाएगा’। इसकी संरचना, कार्य एवं उसकी पद्धति के प्रावधान का दायित्व राज्य के विधान मंडलों को सौंपा गया है।
लगभग सभी राज्यों में जिला योजना समिति के लिए राज्य के अधिनियमों में प्रावधान किये गए है। इसके लिए अध्यक्ष, सचिव एवं सदस्यों का प्रावधान किया गया है। राज्यों ने अपने अपने तरीके से इसकी चयन प्रक्रिया को तय किया है। किसी राज्य में जिला पंचायत अध्यक्ष को इस समिति का अध्यक्ष बनाया गया है तो किसी राज्य में राज्य सरकार के प्रभारी मंत्री को। सचिव के रूप में ज्यादातर राज्यों में जिलाधिकारी या उपायुक्त को नामित किये जाने का प्रावधान है। सदस्यों के विधिवत चुनाव का प्रावधान है। लेकिन कई राज्यों में इसमें ग्राम पंचायतों को प्रतिनिधित्व नहीं दिया गया है। इसे जिला पंचायत व नगर पालिका के स्तर तक समिति कर दिया गया है।
संघ सरकार की कोशिशों में रुकावट
योजना निर्माण का यह गुरुतर दायित्व जो पंचायत सरकार को सौंपा गया है उसकी भी स्थिति वही हो जो सत्ता हस्तांतरण की दृष्टि से ऊपर राज्यवार वर्णित है। अर्थात यह कार्य भी नौकरशाही एवं राज्य सरकार के दिशा निर्देशों पर आधारित है। इसमें ग्राम पंचायतों की भागीदारी तो न के बराबर है।
पंचायतें सही अर्थों में तीसरी सरकार के रूप में प्रतिष्ठित हो सके इसके लिए भारत सरकार के स्तर से निरंतर प्रयास किया जाता रहा है। लेकिन राज्य सरकारें बड़े पैमाने पर उदासीन रही हैं। इस दिशा में 1999 में भारत सरकार के तत्कालीन ग्रामीण विकास मंत्री बाबा गौड़ा पाटिल का वह पत्र विशेष रूप से उल्लेखनीय है जो उन्होंने 17 मार्च 1999 को देश के सभी मुख्यमंत्रियों को भेजा था। उन्होंने पत्र की शुरुआत ही इससे की थी कि “ग्राम पंचायतों को स्वशासन की इकाई के रूप में गठित करने के लिए संविधान के अनुच्छेद 40 के निर्देश के बावजूद अब तक हुई प्रगति पर्याप्त नहीं है। कथित विकास की धुन ने इस संस्थाओं को मूलतः राज्य सरकारों के शक्तिशाली तंत्र की पिछलग्गू के रूप में कार्य करने के लिये विवश कर दिया। “इसी पत्र में उन्होंने वास्तविक रूप से पंचायतों के सरकार के रूप में कार्य करने के लिए लिखा था कि वास्तविक स्वशासन (Self Government) के लिए पंचायतों के कार्यों और शक्तियों का दायरा काफी व्यापक होना चाहिए। निःसंदेह विकास कार्यक्रम महत्वपूर्ण है, परन्तु वे स्वशासन के मर्म नहीं हो सकते। जब तक भूमि और अन्य संसाधनों के प्रबंधन और झगड़ों को निपटाने के अधिकार ग्राम सभाओं को नहीं सौंपे जाते, तब तक वास्तविक स्वशासन नहीं हो सकता।
सर्वविदित है कि पंचायत सरकार के चुने हुए प्रतिनिधियों को आए दिन जिलाधिकारियों द्वारा निलंबित किया जाता रहा है। इस भय के चलते प्रतिनिधिगण उच्च अधिकारियों के सभी गलत सही निर्णयों को मानने के लिए मजबूर रहते हैं। सुधार आयोग ने इस सच्चाई को संज्ञान में लेते हुए लोकपाल की नियुक्ति का सुझाव दिया था। जिसके आधार पर जम्मू कश्मीर जैसे कुछ ही राज्यों में इस तरह के लोकपालों की नियुक्ति का प्रावधान बनाए गए हैं। वह भी व्यवहार में अभी पूरी तरह से उतार नहीं पाया है। आयोग द्वारा यह सलाह दी गई है कि राज्य सरकारों के पास पंचायती राज संस्थाओं द्वारा पारित किसी संकल्प को स्थगित अथवा रद्द करने या पद के दुरुपयोग, भ्रष्टाचार आदि के आधार पर निर्वाचित प्रतिनिधियों के खिलाफ कार्यवाही करने अथवा पंचायतों को अधिक्रमित या भंग करने का अधिकार नहीं होना चाहिए। ऐसे सभी मामलों में छानबीन करने और कार्यवाही की सिफारिस करने का अधिकार स्थानीय लोकपाल के पास होना चाहिए जो लोकायुक्त के माध्यम से राज्यपाल को अपनी रिपोर्ट भेजेगा।
आगे का रास्ता
वास्तव में 73वें संविधान संशोधन में कई ऐसी कमियां है जो सेल्फ गवर्नमेंट अर्थात अपनी सरकार को सही अर्थों में प्रभावी बनने में बड़ी बाधा के रूप में खड़ी है। इन्हें दूर किये बिना गाँधी के ग्राम स्वराज्य का सपना अधूरा ही रहेगा। वैसे तो प्रशासनिक सुधार आयोग ने पंचायत के अधिकारों को ले कर अपनी एक सार्थक संस्तुति दी है जिसको पूर्व में उल्लेख किया जा चुका है। लेकिन इसके अतिरिक्त कुछ और भी महत्वपूर्ण बिंदु है।
जैसा की हम जानते है की इस देश की आबादी का एक बड़ा हिस्सा हिंदी भाषी है। संविधान मूलतः अंग्रेजी में लिखा गया और बाद में उसका हिंदी अनुवाद हुआ। संविधान के अनुच्छेद 40 में ग्राम पंचायतों को Self Government की इकाई के रूप में प्रतिस्थापित किये जाने का निर्देश दिया गया है। जो बाद में 73वें संविधान संशोधन के द्वारा पूरा किया गया। संविधान के हिंदी अनुवाद में इस सेल्फ गवर्नमेंट को “स्वायत्त शासन” कहा गया है।जो स्पष्ट रूप से गलत अनुवाद है। गवर्नमेंट का हिंदी अनुवाद सरकार है न की शासन। नौकरशाही के स्तर पर तो यह और अधिक भ्रमित करता है जब इसे स्थानीय स्वशासन कह कर संबोधित किया जाता है। जबकि इसका सही और लोकग्राही शब्द ‘स्व-साकार’ अथवा ‘अपनी सरकार’ हो सकता है। यदि संविधान लागू होने के साथ ही पंचायतीराज व्यवस्था को “अपनी सरकार” के रूप में संबोधित किया गया होता तो लोगों का झुकाव व लगाव इसके प्रति निश्चित रूप से बड़े पैमाने पर हुआ होता। लेकिन आज भी इसे ‘स्थानीय स्वशासन’ कह कर ही संबोधित किया जा रहा है। यहाँ एक महत्वपूर्ण बात और यह है कि संविधान में “सेल्फ गवर्नमेंट” को परिभाषित भी नहीं किया गया है जिसके चलते इसकी स्थिति आज तक स्पष्ट नहीं है।
इस समय संविधान में नए सिरे से जिन बिन्दुओं पर संशोधन करने की आवश्यकता है उसमें अधिकार व दायित्व प्रदान करने का स्पष्ट प्रावधान, पंचायत के विषयों को सातवें अनुसूची का हिस्सा बनाने, राज्य वित्त आयोग की संस्तुतियों को प्रभावी बनाने, चुने हुए प्रतिनिधियों के विरुद्ध जाँच हेतु लोकपाल गठित करने, अलग से पंचायत कैडर बनाने, समानांतर संस्थाओं को समाप्त करने, स्थानीय स्तर पर सुलभ एवं सस्ता न्याय उपलब्ध कराने हेतु न्याय पंचायतों का प्रावधान करने तथा ग्राम सभाओं को अपनी गाँव सरकार की विधायिका के रूप में प्रतिष्ठित करने जैसे मुद्दे शामिल है। वैसे तो इनमें से कुछ मुद्दों पर संसद द्वारा अधिनियम भी बनाया जा सकता है। जिसमें “न्याय पंचायत” की पुनर्स्थापना तथा ‘ग्राम सभा’ को विधायिका के रूप में प्रतिष्ठित करने का मुद्दा प्रमुख है। इससे यह लगता है कि बिना संसद के हस्तक्षेप के पंचायतों को सही अर्थों में तीसरी सरकार अर्थात जनता की “अपनी सरकार” के रूप में विकसित करना पूरे देश में संभव नहीं रह गया।
‘न्याय पंचायत’ और ‘ग्राम सभा’ का विषय अत्यंत महत्वपूर्ण एवं परस्पर पूरक के रूप में है। जिन राष्ट्रनायकों ने भारत के स्वर्णिम भविष्य के लिए पंचायती राज व्यवस्था को एक अनिवार्य तत्व के रूप में अनुभव किया है उन सब ने इन दोनों संस्थाओं की उपादेयता को शीर्ष पर रखा है। गांधी जी ने तो ग्राम स्वराज्य का आधार ही पंचायत को माना था और पंचायत को गाँव के झगड़ों को गाँव में निपटाने का प्रथम दायित्व सौंपा था। परस्पर सहयोग, स्वावलम्ब और सत्याग्रह जैसे तत्वों के लिए ग्राम सभा के रूप में ही वे पंचायत को चिन्हित करते थे। लोकनायक जय प्रकाश ने तो ग्राम सभा को ‘सहभागी लोकतंत्र’ का आधार मानते हुए भारत के सामुदायिक समाज के संरक्षण और विकास के लिए इसी की मुख्य भूमिका तय की थी। वे सामुदायिकता के विकास में अंग्रेजी राज में बनाई गई कोर्ट कचेहरियों को ही सबसे बड़ी बाधा के रूप में देखते थे। इसके लिए सर्वसहमति से चलने वाली पंचायत व्यवस्था को वे समाधान के रूप में देखते थे। राजीव गांधी ने भी पंचायती राज विधेयक पर अपनी बात रखते हुए पंचायत को स्थानीय न्याय व्यवस्था की जिम्मेवारी सौंपने की बात की थी। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि पंचायत मूलतः एक न्याय संस्था के रूप में ही जानी जाती रही है। 1920 में पंचायत व्यवस्था को कानूनी स्वरूप देने के लिए विभिन्न प्रांतों में बनाए गए अधिनियमों में ग्राम पंचायत और न्याय पंचायत दोनों के प्रावधान किए गए थे। आजादी के बाद धीरे-धीरे न्याय पंचायतों को राज्य के अधिनियमों से हटाया जाता रहा। वर्तमान समय में आठ राज्यों के अधिनियम में आज भी न्याय पंचायतों का प्रावधान है। लेकिन जमीनी स्तर पर केवल बिहार राज्य में ग्राम कचेहरी के रूप में पंचायती न्याय व्यवस्था बड़े ही प्रभावी तरीके से कार्य कर रही है। ग्राम कचेहरी के पंच और सरपंच का चुनाव ग्राम पंचायत चुनाव के साथ राज्य निर्वाचन आयोग द्वारा ही कराया जाता है। ग्राम कचेहरी को भारतीय दण्ड संहिता की 40 धाराओं के विवादों का निपटारा करने का अधिकार है। विभिन्न अध्ययनों की रिपोर्ट यह बताती है कि बिहार के गांवों में इन धाराओं में होने वाले अधिकांश विवादों का निपटारा ग्राम कचेहरी के स्तर पर परस्पर समझौते के द्वारा हो जाता है।
‘लेकिन संकट यह भी है कि सरकार की नीतियों और उसके क्रियान्वयन का जो तंत्र अब तक विकसित हुआ है, उसमें आम आदमी को सबसे ज्यादा अविश्वनीय माना गया है। लोकमत की अपेक्षा सामान्य सरकारी कर्मचारी का सुझाव ज्यादा महत्वपूर्ण एवं मान्य है। ऐसे में पंचायतों का महत्वहीन होना स्वाभाविक है। विश्वास की कमी की जो बात है, वह दोनों तरफ से है। एक तरफ सरकार और प्रशासन में बैठे लोग पहले से ही यह मानकर चल रहे हैं कि पंचायत और उनके प्रतिनिधि कुछ कर नहीं सकते। इनके पास समझ नहीं है। कौशल और जानकारी का अभाव है। उत्तरदायित्व के निर्वहन की क्षमता नहीं है। दूसरी तरफ पंचायत प्रतिनिधि भी अपने-आपको सक्षम साबित करने के लिए प्रयास नहीं कर रहे हैं। पंचायत प्रतिनिधियों में जानकारी, समझ तथा कार्यकौशल का बड़े पैमाने पर अभाव है। जिसके चलते पंचायती व्यवस्था के प्रति न तो उनमें अपनत्व का भाव आ पा रहा है और न तो उसको कुशलता के साथ संचालित कर पा रहे हैं। वास्तव में इसका सबसे बड़ा कारण पंचायत प्रतिनिधियों के प्रशिक्षण कार्यक्रम का प्रभावी तरीके से संचालित न होना है। भारत सरकार के स्तर से इसके लिए “राष्ट्रीय ग्रामीण विकास एवं पंचायतीराज संस्थान” जैसा एक अभिकरण तो स्थापित किया गया है लेकिन प्रशिक्षण मूलतः राज्य सरकारों की जिम्मेदारी का हिस्सा है। इस विषय में अधिकांश राज्य गंभीर नहीं है। जिसके चलते पंचायत प्रतिनिधियों में जानकारी व कौशल का बेहद अभाव है।
इस सब के लिए यह भी जरूरी है कि ग्राम सभा को इस व्यवस्था में सर्वाधिक महत्व दिया जाय। वैसे तो भारत सरकार के स्तर पर ग्राम सभा को काफी महत्व दिया गया है। उसके द्वारा गाँव के विकास और शासन के लिए बनाये गए अधिनियमों तथा कार्यक्रमों में निर्णय का अधिकार सामान्यतया ग्राम सभा को दिया गया है। भारत सरकार की तो शुरुआती दौर से ही यह मंशा रही है कि नयी पंचायतीराज व्यवस्था के अंतर्गत ग्राम सभाओं को वही स्थान व अधिकार प्राप्त हो जो देश की राज्य व्यवस्था में विधायिका को प्राप्त है। लेकिन दूसरी तरफ ग्राम सभा के प्रति लोगों की जागरूकता का स्तर बहुत कमजोर है। लोगों को ग्राम सभा और ग्राम पंचायत का अन्तर स्पष्ट नहीं है। कई राज्यों में ग्राम पंचायत ग्राम सभा का सुझाव मानने को बाध्य नहीं है। इसलिए ग्राम सभा की बैठकों में उपस्थिति न के बराबर है। जिन राज्यों में पंचायतें प्रभावी तरीके से कार्य कर रही हैं उन राज्यों में ग्राम सभा पर विशेष रूप से फोकस किया गया है। इसी के साथ ग्राम सभा के विस्तृत क्षेत्र और जरूरत से ज्यादा सदस्य संख्या को देखते हुए ग्राम पंचायत क्षेत्र के निर्वाचक क्षेत्रों (वार्डों) में वार्ड सभा का प्रावधान करके लोक भागीदारी को सामुदायिकता के साथ जोड़कर प्रोत्साहित किया जा रहा है। जहां इस तरह की ईमानदार कोशिश हो रही है वहाँ उसके परिणाम भी बहुत उत्साहवर्धक हैं।
(लेखक ‘तीसरी सरकार’ अभियान के संस्थापक हैं एवं त्रिस्तरीय पंचायती राज संस्थाओं के सशक्तिकरण के लिए बिगत कई वर्षों से कार्य कर रहे हैं।)
गाँव की स्थानीय स्व-सरकार : वर्तमान स्थिति और आगे का रास्ता

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