पौराणिक काल से चली आ रही है पंचक्रोशी यात्रा की परंपरा…

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सनातन परंपरा में धार्मिक यात्राओं एवं प्रदक्षिणा का अपना महत्व है। धर्मशास्त्रों में देव,गुरू,तीर्थ,पवित्र नदियों आदि की प्रदक्षिणा एवं यात्राओं का विस्तार से विवरण मिलता है। भगवान गणेश द्वारा अपने माता-पिता शिव एवं पार्वती की प्रदक्षिणा कर देवों में प्रथम पूज्य होने का गौरव प्राप्त करने संबंधी आख्यान बहुश्रुत है। कहा गया है –
यानि कानि च पापानि ,जन्मान्तर-कृतानि च।
तानि तानि विनष्यन्ति, प्रदक्षिण-पदे-पदे।।
(जो कोई इस जन्म के और जन्मान्तर के किए हुए पाप हों, वे सब प्रदक्षिणा के द्वारा पद-पद पर विनष्ट होते हैं।)
अनादि नगरी उज्जयिनी में प्रदक्षिणा एवं धार्मिक यात्राओं का उल्लेख स्कंद पुराण के अवंति खंड में विस्तार से मिलता है। यहां की जानेे वाली प्रमुख यात्राएं हैं – नित्य यात्रा,महाकाल यात्रा,षड्- विनायक यात्रा,अष्ट भैरव यात्रा,सप्त सागर यात्रा,अष्टाविंषति तीर्थ यात्रा एवं पंचक्रोशी अथवा पंचेषानि यात्रा।

पंचक्रोशी यात्रा का धार्मिक दृष्टि से विशेष महत्व है। हजारों श्रद्धालु 118 किलोमीटर की इस पद यात्रा में भाग लेकर अपने आपको धन्य समझते हैं। स्कंद पुराण के अनुसार अवंतिका के लिए वैसाख मास,प्रयाग के लिए माघ मास एवं पुष्कर तीर्थ के लिए कार्तिक मास अत्यंत पवित्र माना गया है। वैशाख मास में वैशाख कृष्ण दशमी से अमावस्या तक पंचक्रोषी यात्रा का विधान है।
देवाधिदेव महादेव भगवान महाकालेश्वर,ज्योतिर्लिंग स्वरूप में महाकालवन में विराजित हैं। तीर्थ की चारों दिशाओं में क्षेत्र की रक्षा के लिए चार द्वारपाल शिव रूप में स्थित हैं। क्षेत्र के रक्षक देवता श्री महाकालेषश्वर का स्थान महाकालवन के मध्य में स्थित है।
पंचक्रोशी यात्रा के मूल में रक्षक देवता एवं द्वारपालों का पूजन विधान ही प्रमुख है।
पंचक्रोशी यात्रा राजा विक्रमादित्य के पूर्व से प्रचलित है जिसे राजा विक्रमादित्य ने और भी प्रोत्साहित किया। 14 वीं सदी तक यात्रा निर्वाध चलती रही। बीच के काल में यात्रा में कुछ व्यवधान आए पश्चात मराठा शासन काल के दौरान यात्रा पुनः प्रारंभ होकर साल दर साल भव्य एवं प्रतिष्ठित होती चली गई।

पंचक्रोशी यात्रा प्रारंभ करने के पूर्व श्रद्धालु पवित्र शिप्रा नदी में स्नानोपरांत पटनी बाजार स्थित नागचन्द्रेश्वर की पूजन करते हैं। ऐसी मान्यता है कि श्रद्धालु नागचन्द्रेश्वर से अश्ववत बल मांगते हैं ताकि यात्रा निर्विध्न संपन्न हो सके।
नागचंद्रेश्वर से 12 कि.मी. चलकर यात्री प्रथम पड़ाव पिंगलेश्वर पर पहुंचते हैं। पिंगलेश्वर को “धर्म द्वार” कहा गया है। यात्रा का द्वितीय पड़ाव ग्राम करोहन में स्थित कायावरोहणेश्वर है। यह पिंगलेषश्वर से 23 कि.मी. की दूरी पर स्थित है। कायावरोहणेश्वर “अर्थ द्वार”के रूप में प्रतिष्ठित है। यात्री कायावरोहणेश्वर से 27 कि.मी. चलकर अम्बोदिया ग्राम स्थित बिलकेश्वर पड़ाव पर पहुंचते हैं जो “काम द्वार” के रूप में प्रतिष्ठित है। यात्रा का चैथा पड़ाव ग्राम जैथल में स्थित दुर्दुरेश्वर मन्दिर है। यहां यात्री 28 कि. मी. चलकर पहुंचते हैं। दुर्दुरेश्वर को “मोक्ष द्वार” कहा गया है। यात्री चतुर्दशी को दुर्दुरेश्वर से 28 कि. मी. चलकर उंडासा उप-पडाव होते हुए कर्क तीर्थ (रेती घाट) पर पहुॅचते हैं। इसके तत्काल पश्चात अष्ट तीर्थ यात्रा प्रारंभ होती है और अमावस्या को महाकाल दर्शन व पूजन के पश्चात यात्रा का समापन हो जाता है।
श्रद्धालु पुनः नागचंद्रेश्वर से प्राप्त बल श्रद्धा पूर्वक उन्हें समर्पित करते हैं। प्रतीक स्वरूप मिट्टी के अश्व उन्हें अर्पित किए जाते हैं।

पंचक्रोशी यात्रा के दौरान सूर्य का तेज अत्यंत प्रखर होता है। इस कारण भीषण गर्मी पड़ती है। निष्ठा ,श्रद्धा एवं धार्मिक विश्वास के बिना यह यात्रा संभव नहीं है।
मार्ग एवं यात्रा की कठिनाईयों को देखते हुए अनेक लोग चाहकर भी यात्रा में शामिल नहीं हो पाते। इसीलिए यात्रा के समापन पर जब यात्री नगर प्रवेश करते हैं तो नगरवासी मार्ग के दोनों ओर खड़े होकर पुष्प वर्षा कर उनका स्वागत करते हैं।
यात्रा के पड़ावों एवं उप-पड़ावों पर जिला प्रशासन की ओर से व्यापक इंतजाम किए जाते हैं। साथ ही स्वयं सेवी संस्थाओं एवं स्थानीय ग्राम वासियों द्वारा भी यात्रियों की सेवा सुश्रूया की जाती है।
यात्रा के दिनों-दिन व्यापक होते स्वरूप ने इसकी ख्याति देश-देशांतर तक फैला दी है। फलस्वरूप केवल मालवा अंचल ही नहीं अपितु देश के अन्य हिस्सों के लोग भी यात्रा में शामिल होने लगे हैं।

तीर्थ नगरी उज्जयिनी अपने स्वभाव से ही उत्सव धर्मी है और पंचक्रोशी यात्रा इस उत्सव धर्मिता की विशिष्ट पहचान।

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