रसायनों का ज़हर और पराली की आग,बांझ बना देंगे धरती को….

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कृषि उत्पादन बढ़ाने के लिए किसानों द्वारा प्रयोग में लाए जा रहे रासायनिक खादों और कीटनाशकों के कारण जमीन वैसे भी जहरीली होती जा रही है, ऊपर से पराली जलाने का चलन उसे बांझ बनाने पर आमादा है।
ऐसा नहीं है कि किसान कीटनाशकों के अत्यधिक प्रयोग से होने वाले दुष्प्रभावों के बारे में अनभिज्ञ हैं। वह सब कुछ जानते हैं।
यही तो समस्या है।
सब कुछ जानते हुए भी कीटनाशकों का अंधाधुंध प्रयोग करना,उस धरती के प्रति अपराध है जो सृष्टि के प्रारंभ से ही मानव जाति का पालन-पोषण करती आई है। जिसे हम माता कहते हैं।
यह समूची मानवता के प्रति भी अपराध है।

जहरीला होता अन्न पूरी आबादी को बीमार बना रहा है। जिस अन्न और फलों को खाकर शरीर पुष्ट होना चाहिए,वही अब बीमारियों का कारण बन रहे हैं।

ऐसा नहीं है कि जहरीले अन्न और फलों के उत्पादक किसान इसके दुष्परिणामों से बचे हुए हैं। उनके शरीरों में भी घुन कीड़ा लग चुका है। आप किसी भी अस्पताल में जाकर देख लीजिए। अस्पताल ग्रामीणों ,किसान- मजदूरों से भरे पड़े हैं।
बढ़े हुए उत्पादन से होने वाली आय का बड़ा हिस्सा अस्पतालों में जा रहा है।

लेकिन कहते हैं ना, कि लालच की कोई सीमा नहीं होती। इसी मानवीय कमजोरी के चलते एक ओर तो किसान उत्पादन बढ़ाने के लिए भरपूर रासायनिक खाद और कीटनाशकों का प्रयोग कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर तीन फसलें लेने के चक्कर में पराली जलाने जैसी अवांछित गतिविधि को अपना रहे हैं।

किसानों का तर्क है कि दो फसलों के लिए तो खेत प्राकृतिक रूप से तैयार किये जा सकते हैं,लेकिन तीसरी फसल के लिए किसानों को पर्याप्त समय नहीं मिलता। इसके अलावा पराली के व्यवस्थित निपटान में पैसा भी लगता है जबकि जलाने में कोई खर्चा नहीं आता। धान के बाद गेहूं और गेहूं के बाद मूंग की फसल के लिए मजबूरी में पराली जलाना पड़ती है।

इस मजबूरी की कितनी भारी कीमत चुकानी पड़ रही है, यह समझने के लिए कोई तैयार नहीं है।

रायसेन जिले के देवलखेड़ा और बीना के पास हींगटी में तो पराली की आग में झुलस कर दो लोग अपनी जान भी गंवा चुके हैं।

पहले हरियाणा और पंजाब पराली जलाने के मामले में आगे थे तो अब मध्य प्रदेश बढ़त बनाए हुए है।
एक रिपोर्ट के अनुसार प्रदेश में अब तक 50000 से अधिक स्थानों पर पराली जलाने की घटनाएं हो चुकी हैं।
यह स्थिति तब है,जब भोपाल जैसे जिलों में पराली जलाने पर ₹15000 जुर्माने का प्रावधान है।

वैसे तो प्रदेश में शायद ही कोई ऐसा जिला होगा जहां पर पराली न जलाई जा रही हो,लेकिन सबसे अधिक घटनाएं उज्जैन,सीहोर,भोपाल, नर्मदापुरम, रायसेन,देवास,विदिशा,हरदा, सिवनी, सागर जैसे जिलों में देखी जा रही हैं।

जानकारों का यह भी कहना है कि शीत ऋतु के समय वातावरण में नमी होती है,इसलिए पराली के धुएं से होने वाला प्रदूषण सहज ही देखने में आ जाता है,जो तेज गर्मी की वजह से अभी देखने में नहीं आ रहा है।

विशेषज्ञों के अनुसार भोपाल शहर से सटे इलाकों में पराली जलाने की वजह से शहर की आवोहवा दूषित हुई है,जो फेफड़ों के लिए नुकसानदायक है।
विशेषज्ञ खुले में व्यायाम करने, घरों में एयर प्यूरीफायर का इस्तेमाल करने और बाहर निकलते समय मास्क का प्रयोग करने की सलाह भी दे रहे हैं।

पराली जलाने से सबसे अधिक प्रभावित होती है मिट्टी की उर्वरा शक्ति। बार-बार पराली जलाने से मिट्टी में पाए जाने वाले लाभकारी जीव जंतु भी मर जाते हैं। सूक्ष्मजीवों के मरने से नाइट्रोजन और कार्बन का स्तर कम होता है जो फसलों के विकास के लिए आवश्यक है।

पराली की समस्या साल दर साल बढ़ती ही जा रही है। इसका स्थाई निदान किया जाना बेहद जरूरी है।
यह निदान दो तरीकों से किया जा सकता है।
एक- व्यवस्थित निगरानी तंत्र विकसित किया जा सकता है जो लोगों को जागरुक भी करे और नियमित निगरानी भी रखे।
दूसरा,पराली के वैकल्पिक प्रयोग को बढ़ावा देकर भी इसे नियंत्रित किया जा सकता है।

भारतीय मृदा संस्थान ने इस दिशा में पहल की है। संस्थान द्वारा विकसित पूसा नामक बायोएंजाइम पराली अथवा अन्य फसल अपशिष्टों को जैविक तरीके से खाद में बदल देता है,जो मिट्टी के स्वास्थ्य के लिए बहुत उपयोगी साबित हुआ है।
पराली का उपयोग उद्योगों में ईंधन के रूप में भी किया जा सकता है।
पशु चारे,पैकिंग सामग्री,कागज और बायोएथेनॉल तैयार करने में भी पराली का उपयोग किया जा सकता है।
यह सब कुछ बहुत आसानी से किया जा सकता है, लेकिन पता नहीं क्यों किसानों को पराली जलाना ही सबसे आसान लगता है। यह एक प्रकार से अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा ही है।

नियंत्रण से बाहर जाती दिख रही इस समस्या का मध्य प्रदेश सरकार ने एक और समाधान खोजा है। मंत्रिमंडल ने निर्णय लिया है कि जो किसान पराली जलाएंगे उन्हें ना तो किसान सम्मान निधि की राशि मिलेगी और ना ही सरकार समर्थन मूल्य पर उनका गेहूं खरीदेगी। यह आदेश 1 मई 2025 से लागू माना जाएगा।

बगैर व्यवस्थित निगरानी तंत्र के यह आदेश कितना प्रभावी होगा, यह आने वाला समय बताएगा।

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