भगवान् परशुराम की व्यापकता

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भगवान् परशुरामजी का चरित्र सर्वाधिक व्यापक है । संसार की सभ्यता का ऐसा कोई कोना, कोई क्षेत्र या कोई देश ऐसा नहीं जहाँ भगवान् परशुरामजी की स्मृति या चिन्ह नहीं मिलते हों । उन्होंने संसार में शाँति और मानवता की स्थापना के लिये सतत यात्राएँ की । यदि यह कहा जाय कि विश्व में आर्यत्व की स्थापना भगवान् परशुरामजी ने की तो असत्य नहीं होगा । आर्य कोई नस्ल, कौम या जाति नहीं थी । यह संस्कार संपन्न समाज निर्माण का एक अभियान था । ऋग्वेद के नवे मंडल में यह संकल्प है कि “हमें विश्व को आर्य बनाना है ।” और वेद ने यह भी स्पष्ट किया है कि “आर्य वे कहलाये जो सत्य, अहिंसा, क्षमा और परोपकार का आचरण करते हैं” । इससे स्पष्ट है कि आर्य संस्कार निर्माण का एक अभियान था जो भगवान् परशुरामजी के नेतृत्व में पूरे विश्व में फैला ।
भगवान् परशुरामजी का चरित्र वैदिक और पौराणिक इतिहास में सबसे कठिन और व्यापक है। उन्हें नारायण के दशावतार में छठे क्रम पर माना गया । वे पहले पूर्ण अवतार हैं । नारायण के सभी अवतारों में वे पहले हैं जिन्हे चिरंजीवी माना गया इसीलिए ऊनकी उपस्थित हरेक युग में मिलती है । उनका जीवन सतयुग के समापन से आरंभ होता है और कलियुग तक मिलता है । इतना कालजयी चरित्र किसी देवता का, ऋषि का अथवा किसी अवतार का नहीं मिलता । पुराण कथाओं में तो यह वर्णन भी मिलता है कि जब वर्तमान काल खंड कलियुग के उद्धार के लिये नारायण ‘कल्की’ अवतार लेंगे तब भगवान् परशुरामजी ही उन्हे शस्त्र और शास्त्र की शिक्षा देंगे । नारायण के पिछले दो अवतारों में त्रेता में भगवान् राम, और द्वापर में भगवान् श्रीकृष्ण के मार्गदर्शन में निमित्त भी भगवान् परशुरामजी ही रहे । वह शिव धनुष जिसका भंग करके रामजी ने माता सीता का वरण् किया वह भगवान् परशुरामजी ने ही राजा जनक को प्रदान किया था । वह विष्णु धनुष जिससे लंकापति रावण का उद्धार हुआ वह विष्णु धनुष भी राम जी को परशुरामजी ने ही दिया था । इसी प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण को सुदर्शन चक्र और गीता का ज्ञान भी भगवान् परशुरामजी ने ही दिया था
भगवान् परशुरामजी का अवतार वैशाख माह की शुक्ल पक्ष की तृतीया को एक प्रहर रात्रि शेष रहते हुआ था । उनके अवतार के निमित्त ही प्रातःकाल एक प्रहर से पूर्व की घड़ी ब्रह्म मुहूर्त कहलाती है । भगवान् परशुरामजी का चरित्र अक्षय है इसलिए वैशाख की यह तृतीया अक्षय तृतीया कहलाती है । उनके अवतार तिथि के कारण ही इस दिन का प्रत्येक पल शुभ मुहूर्त माना जाता है । उनका अवतार भृगु कुल में हुआ है । ये वही महर्षि भृगु हैं जिनके चरण नारायण अपने हृदय पर धारण करते हैं और भगवान् कृष्ण ने गीता के दशवें अध्याय में कहा है कि “मैं ऋषियों में भृगु हूँ” । उनके पिता महर्षि जमदग्नि हैं और माता सूर्यवंशी प्रतापी सम्राट राजा रेणु की पुत्री देवी रेणुका हैं । भगवान् परशुरामजी पांच भाई और एक बहन हैं ।

भगवान् परशुरामजी के सात गुरू हैं । पहली गुरू माता रेणुका हैं, दूसरे गुरु पिता महर्षि जमदग्नि । तीसरे गुरू महर्षि चायमान, चौथे गुरु महर्षि विश्वामित्र, पाँचवे गुरु महर्षि वशिष्ठ, छठें गुरु भगवान् शिव और सातवें गुरु भगवान् दत्तात्रेय । भगवान् शिव के एक मात्र शिष्य भगवान् परशुरामजी ही हैं । शिवजी के भक्त तो सारा संसार है । लेकिन शिष्य एक मात्र भगवान् परशुरामजी ।
वे मन की गति से चल सकते हैं । इसे मन व्यापक गति कहते हैं । उन्हे चिर यौवन का वरदान है अर्थात वे कभी वृद्ध नहीं होते ।
संसार को “श्रीविद्या” का ज्ञान भगवान् परशुरामजी ने दिया । शक्ति की उपासना का आरंभ महर्षि सुमेधा ने किया । महर्षि सुमेधा भगवान् परशुरामजी के शिष्य थे । उनके ज्ञान,उनकी ओजस्विता, उनकी तेजस्विता के आगे कोई नहीं ठहर सकता । उनके आगे वेद चलते हैं । पीठ पर तीरों से भरा अक्षय तूणीर सदैव रहता है । एक हाथ में शास्त्र हैं तो दूसरे में शस्त्र । वे श्राप देने और दंड देने दोनों में समर्थ हैं । यह क्षमता किसी अवतार में किसी ॠषि में नहीं । उन्होंने यदि प्रत्यक्ष युद्ध करने आतताइयों का हनन् किया है, तप करके शिवजी को प्रसन्न भी किया है । उन्होंने दो बार विश्व यात्रा करके समाज निर्माण किया है तो ऋषि रूप वेद ऋचाओं का सृजन भी किया है । ऋग्वेद के दसवें मंडल का एकसौ दसवां सूक्त भगवान् परशुरामजी द्वारा ही रचित है ।

उनपर लगाये गये असत्य आक्षेप

भगवान् परशुरामजी पर दो आक्षेप लगाये जाते हैं एक तो यह कि उन्होंने क्षत्रियों का क्षय किया दूसरा यह कि वे बहुत क्रोधी थे ।
ये दोनों आरोप समाज में भेद पैदा करने के लिये कुछ विदेशी षडयंत्रकारियों ने लगाये । ताकि वे भारतीय समाज को विभाजित कर भारत को दास बना सकें । वे अपने षडयंत्र में सफल भी हुये ।
इन दोनों प्रश्नों पर शास्त्रों में पर्याप्त प्रमाण है । श्रीमद्भागवत में स्पष्ट है कि दुष्टं क्षत्रम् शब्द आया है । अर्थात “दुष्ट राज्य”। यानि ऐसे राज्य जो दुष्टता करते थे ।
पुराण कथाओं में तीन शब्द आते हैं। एक क्षत्र, दूसरा क्षत्रप और तीसरा क्षत्रिय । क्षत्र यनि राज्य, क्षत्रप यनि राजा और क्षत्रिय यनि राज्य की रक्षा करने वाला । संस्कृत में शब्द चाहे क्षत्र आया हो या क्षत्रप लेकिन हिन्दी अनुवाद में सीधा क्षत्रिय ही आया ।
इसके अतिरिक्त कालिदास के रघुवंश में यह बात पहली बार आयी कि परशुरामजी ने क्षत्रिय विनाश किया । इसके बाद जो साहित्य रचा गया उसमें इसके वर्णन में विस्तार होता गया ।
भला बताइये भगवान् परशुरामजी की माता देवी रेणुका क्षत्रिय, उनकी दादी देवी सत्यवती क्षत्रिय, भृगु वंश की अनेक ऋषि कन्याएं क्षत्रियों को ब्याहीं तब भला कैसे वे क्षत्रिय विरोधी अभियान छेड़ सकते हैं । इसके अतिरिक्त भगवान् परशुरामजी भगवान् नारायण के अवतार हैं । यह माना जाता है कि क्षत्रियों का जन्म नारायण की भुजाओं से हुआ । तब नारायण स्वयं क्या अपनी भुजाओं के नाश के लिये अवतार लेंगे ? इसके अतिरिक्त एक बात और नारायण जब भी अवतार लेते हैं । उनके अवतार के जीवन की प्रत्येक कार्य का कहीं न कहीं निमित्त होता है । यदि किसी अवतार में पत्नि वियोग होना है, वानरों का साथ लेना है, एक ही विवाह करना या एक से अधिक विवाह करना या रणछोड़ का आक्षेप लगना सब निर्धारित होता है । इसीलिए नारायण के अवतार के कार्यों को कर्म नहीं लीला कहा जाता है । नारायण के किसी प्रसंग में किसी शास्र में यह उल्लेख नहीं आया कि कभी वे क्षत्रिय हंता बनेंगे । अतएव यह भ्रामक बात समाज को मन से निकालनी होगी । समाज को बाँटने के यूँ भी कम षडयंत्र नहीं हो रहे । अतएव हमें जाग्रति के साथ सत्य को समझाना चाहिए ।
उन पर दूसरा आक्षेप लगता है क्रोधी होने का । लोग कहते हैं कि भगवान परशुरामजी बहुत क्रोधी हैं । यह आक्षेप भी तथ्य हीन है । क्रोध राक्षसों को आता है दैत्यों को आता है । क्रोध तमोगुण है । हमारे प्रत्येक शास्त्र में क्रोध से दूर रहने को कहा गया है । क्रोध को अग्नि कहा गया है । जिस प्रकार अग्नि सबसे पहले अपने ही केन्द्र को जलाती है ठीक उसी प्रकार क्रोध भी उसी व्यक्ति को पहले नष्ट करता है जो क्रोध करता है । परशुरामजी नारायण का अवतार हैं । नारायण तो सदैव मुस्कुराते हैं। कभी क्रोध नहीं करते । तब नारायण का कोई अवतार क्रोध करेगा ? वह शब्द रोष है । रोष में भरकर उन्होंने दुष्टों का नाश किया । गुस्सा तीन प्रकार का । माता का और गुरू का गुस्सा सतोगुणी जिसे रोष कहते हैं । पिता का गुस्सा और राजा का गुस्सा रजोगुणी होता है जिसे कोप कहते हैं । जबकि दुष्ट का गुस्सा जो अहंकार से उत्पन्न होता है वह तमोगुणी होता है जिसे क्रोध कहते है । भगवान् परशुरामजी नारायण का अवतार हैं, ऋषि हैं गुरू हैं उनका गुस्सा रोष है । संस्कृत में रोष शब्द ही आया है जिसका हिन्दी अनुवाद क्रोध के रूप में हुआ और भ्रान्तियाँ फैलीं।

*रमेश शर्मा
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और पौराणिक साहित्य के अध्येता हैं।)

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