वैशाख शुक्ल पंचमी का पावन दिन सनातन संस्कृति के महानायक, आद्य शंकराचार्य के प्राकट्य का पुण्य स्मरण कराता है, जिनकी चेतना आज भी भारत की आत्मा में संवाहित है। आठवीं शताब्दी में उन्होंने सांस्कृतिक और आध्यात्मिक पुनर्जागरण का जो शंखनाद किया, वह आधुनिकता के इस दौर में, जब वैश्वीकरण, तकनीकी क्रांति और सांस्कृतिक संकट मानवता को चुनौती दे रहे हैं; उतना ही प्रासंगिक और उपयोगी है। शंकराचार्य का दर्शन, उनका जीवन-दृष्टिकोण और उनकी एकता की अवधारणा वर्तमान परिस्थितियों में न केवल हमारा मार्गदर्शन करती है, बल्कि मानव जीवन को अर्थ और दिशा प्रदान करती है।
शंकराचार्य का अद्वैत वेदांत दर्शन आधुनिक समाज की अनेक समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करता है। आज का मानव भौतिक सुखों की दौड़ में आत्मिक शांति से वंचित है। तनाव, अवसाद, और अर्थहीनता की भावना ने जीवन को जटिल बना दिया है। ऐसे में शंकराचार्य का यह संदेश कि सच्चा सुख बाह्य जगत में नहीं, अपितु आत्मा के साक्षात्कार में है, हमें जीवन की सही दिशा देता है। उनकी यह शिक्षा कि विश्व एक ही चेतना का प्रक्षेपण है; विभिन्न पंथों, संप्रदायों और विचारधाराओं के मध्य बढ़ते संघर्षों के बीच समन्वय एवं सह-अस्तित्व का आधार प्रदान करती है। जब विश्व धार्मिक कट्टरता और सांस्कृतिक विभाजन से जूझ रहा है, तब अद्वैत दर्शन हमें सिखाता है कि सत्य एक ही है।
शंकराचार्य जी ने शृंगेरी, द्वारका, पुरी और बद्रीनाथ में चार मठ स्थापित कर देश को एक आध्यात्मिक सूत्र में बाँधा। जब विखंडनकारी प्रवृत्तियां भारत की एकता को चुनौती दे रही हैं, क्षेत्रीयता और भाषाई मतभेद की खाई समाज को खंडित करने का प्रयास रही है, तब शंकराचार्य का यह संदेश कि भारत की आत्मा एक है, राष्ट्रीय एकता का आधार प्रदान करता है। उनके द्वारा प्रारंभ किए गए कुंभ मेले जैसे आयोजन आज भी लाखों लोगों को एक मंच पर लाकर सांस्कृतिक एकता को जीवंत करते हैं। डिजिटल युग में, जब सोशल मीडिया पर वैमनस्य और विभाजनकारी विमर्श बढ़ रहे हैं, शंकराचार्य की शिक्षाएं हमें स्मरण कराती हैं कि हमारी ताकत हमारी साझा सांस्कृतिक विरासत में निहित है।
सामाजिक समरसता के क्षेत्र में शंकराचार्य का योगदान आज भी प्रासंगिक है। काशी में चांडाल से उनका संवाद इस बात का उदाहरण है कि उन्होंने अस्पृश्यता को नकारा और सभी में समानता की बात की। आज जब विश्व समावेशिता, सामाजिक न्याय और लैंगिक समानता की बात करता है, तो शंकराचार्य का दर्शन नई दिशा प्रदान करता है। शंकराचार्य का जीवन हमें सिखाता है कि आधुनिकता और परंपरा का समन्वय संभव है। उन्होंने बौद्ध दर्शन का खंडन किया, किंतु बुद्ध की करुणा को सनातन परंपरा में समाहित किया। यह उनकी वह दूरदृष्टि थी, जो परिवर्तन को स्वीकार करते हुए मूल्यों को अक्षुण्ण रखती थी। आज जब वैश्वीकरण और पाश्चात्य प्रभाव हमारी संस्कृति को पीछे धकेलने का प्रयास कर रहे हैं, तब आचार्य शंकर का दर्शन और भी प्रासंगिक हो जाता है।
वर्तमान तकनीकी युग में कृत्रिम बुद्धिमत्ता और डेटा-आधारित नवाचारों का प्रभाव बढ़ रहा है। ऐसे समय में शंकराचार्य का तर्कशील चिंतन और शास्त्रार्थ हमें वैज्ञानिक सोच और विवेक का मार्ग दिखाता है। उन्होंने वेदांत को केवल आस्था पर नहीं, बल्कि तर्क और प्रत्यक्ष अनुभव के आधार पर स्थापित किया। उनकी बौद्धिकता इस बात का प्रमाण है कि गहराई से सोचने, संवाद करने और विचारों को तार्किक ढंग से प्रस्तुत करने की परंपरा भारत में कितनी समृद्ध रही है। यह दृष्टिकोण आज के वैज्ञानिक युग में भी उतना ही प्रासंगिक है।
पर्यावरण संकट के दौर में शंकराचार्य की शिक्षाएं विशेष रूप से उपयोगी हैं। उनकी रचना नर्मदाष्टकम प्रकृति के प्रति गहरी श्रद्धा को दर्शाती है, जो नर्मदा नदी को केवल एक जलस्रोत नहीं, बल्कि एक दैवीय चेतना के रूप में देखती है। वर्तमान समय में जलवायु परिवर्तन, वनों की कटाई और नदियों का प्रदूषण जैसी समस्याएं गंभीर वैश्विक चुनौतियाँ बन चुकी हैं ऐसे में शंकराचार्य का यह दृष्टिकोण कि प्रकृति और आत्मा एक हैं, हमें पर्यावरण संरक्षण की ओर प्रेरित करता है। भारत में नदियों के पुनर्जनन और स्वच्छता अभियानों में उनकी यह शिक्षाएं एक आध्यात्मिक प्रेरणा बन सकती हैं, जो पर्यावरण कार्यकर्ताओं को नैतिक बल प्रदान करती हैं।
आज वर्तमान परिदृश्य में भारत वैश्विक शक्ति के रूप में अपनी पहचान स्थापित कर रहा है, ऐसे समय में शंकराचार्य का दर्शन हमें हमारी आध्यात्मिक और सांस्कृतिक शक्ति का स्मरण कराता है। उनकी स्थापित मठ परंपराएं, उनके ग्रंथ, और उनकी एकता की ज्योति भारत को विश्व गुरु बनने की प्रेरणा देती हैं। जब योग, आयुर्वेद और भारतीय दर्शन विश्व स्तर पर स्वीकृति पा रहे हैं, ऐसे में शंकराचार्य का अद्वैत दर्शन भारत को एक ऐसी सॉफ्ट पावर के रूप में प्रस्तुत करता है, जो विश्व को शांति और समन्वय का मार्ग दिखा सकती है।
शंकराचार्य की प्रासंगिकता केवल सैद्धांतिक नहीं, बल्कि व्यावहारिक है। वर्तमान परिस्थितियों में समाज तीव्र परिवर्तनों से गुजर रहा है, ऐसे में शंकराचार्य का दर्शन और कर्मयोग हमें यह विश्वास दिलाता है कि हम अपनी सांस्कृतिक जड़ों से जुड़कर ही आधुनिकता के शिखर पर पहुंच सकते हैं। आइए, उनके प्राकट्य दिवस पर संकल्प लें कि हम उनके आदर्शों को अपने जीवन में उतारेंगे और एक समृद्ध, समरस और धर्मनिष्ठ भारत का निर्माण करेंगे।
- पुरु शर्मा
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