विगत कुछ वर्षों से हमारे न्यूज़ चैनल समाचार माध्यम कम स्वयंभू न्यायकर्ता के रूप में अधिक नजर आने लगे हैं। कुछ चैनल और उनके एंकर तो ऐसा व्यवहार करते हैं जैसे उनका काम समाचार संप्रेषण नहीं अपितु सही- गलत का फैसला करना है। वह भी उनकी अपनी मति और सुविधा के अनुसार।
मीडिया ट्रायल आज की भयावह सच्चाई है। राई को पहाड़ बनाना और पहाड़ को अदृश्य कर देना चैनलों का रोज का काम है। टीवी पर होने वाली बहसों में भाषाई मर्यादा को बहुत पहले ही तिलांजलि दी जा चुकी है। मुद्दों के चयन में भी पक्षपात स्पष्टतः नजर आता है।
लोकतांत्रिक व्यवस्था में मीडिया की भूमिका लोगों तक सही सूचनाएं पहुंचाने के रूप में अपेक्षित है। एक हद तक विश्लेषणात्मक कार्यक्रम भी स्वीकार्य हैं, लेकिन विश्लेषण करते समय किसी को दोषी और किसी को पाक-साफ घोषित करना मीडिया का काम कतई नहीं है। विगत कुछ वर्षों में मीडिया संस्थानों, मुख्य रूप से न्यूज़ चैनलों में यह प्रवृत्ति तेजी से पनपी है। कुछ एक अपवादों को छोड़कर अधिकांश न्यूज़ चैनल जनहित के मुद्दे तो बराए नाम उठाते हैं। उनकी रुचि सनसनीखेज खबरों में अधिक होती है। चैनलों की गलाकाट प्रतिस्पर्धा के चलते स्थिति बद से बदतर होती जा रही है। चिंता की बात यह है कि ऐसा करते समय मीडिया संस्थान यह भी नहीं सोचते कि उनके गैरजिम्मेदाराना व्यवहार के कारण राष्ट्रीय हितों और सामाजिक ताने-बाने को कितना नुकसान पंहुच रहा है। उन्हें तो अपनी टीआरपी बढ़ाने से मतलब है।
ऐसे अनेक प्रकरणों का उल्लेख किया जा सकता है जिनमें नाम उछाले जाने की वजह से लोगों की जिंदगी तबाह हो गई,सामाजिक प्रतिष्ठा को धक्का लगा और बाद में वह निर्दोष पाए गए। लेकिन फिर मीडिया ने उनके निर्दोष होने की कोई स्टोरी अपने चैनलों पर नहीं चलाई।
याद करिए कोरोना काल को। खबरें सुनते हुए आदमी आतंकित हो उठता था। खबरें चाहे संक्रमण की जिम्मेदारी निर्धारित करने से संबंधित हों, लॉकडाउन की हों अथवा मजदूरों और प्रवासियों के पलायन से संबंधित; मीडिया की रुचि लोगों को सांत्वना देने की अपेक्षा सनसनी पैदा करने में अधिक रही। ‘कोरोना बम’ जैसे अनेक शब्द इस दौरान गढ़े गए।
खबरिया चैनल की रीति-नीति राजनीतिक झुकाव,अंध समर्थन अथवा अंध विरोध और टीआरपी के अनुसार तय होती है, इसे तो दर्शक स्वीकार कर चुके थे, लेकिन कोरोना काल में इन चैनलों की गैरजिम्मेदाराना हरकतों की वजह से कई लोगों ने खबरिया चैनल देखना बंद कर दिया।
दर्शक और कर भी क्या सकता है?
ऐसे दर्शकों ने ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के समय इस उम्मीद से समाचार चैनल खोले कि बेलगाम सोशल मीडिया की चिल्ल-पों के बीच कुछ प्रामाणिक जानकारियां मिलेंगी, लेकिन इस बार तो उन्हें और भी अधिक निराशा हाथ लगी।
इस बार तो कुछ खबरिया चैनलों ने सारी हदें पार कर दीं। समाचार बुलेटिन ऐसे लग रहे थे जैसे हॉलीवुड की कोई फिल्म चल रही हो। उत्तेजना में चिल्लाता एंकर, बैकग्राउंड से आती सायरन की आवाज और ग्राफिक्स के माध्यम से बनाए गए गोलाबारी के भयानक दृश्य, हर ड्राइंग रूम को युद्ध भूमि जैसा एहसास करा रहे थे।
कुछ चैनलों ने पूरा पाकिस्तान तबाह कर दिया तो कुछ ने थोड़ा रहम खाते हुए पाकिस्तान के कुछ ही शहरों पर कब्जा किया।
यह अलग बात है कि चैनलों की इन हरकतों की वजह से कुछ और लोगों में खबरिया चैनलों के प्रति वैराग्य उत्पन्न हो गया; ब्रॉडकास्ट ऑडियंस रिसर्च काउंसिल की रिपोर्ट कुछ भी दावा करती रहे।
खबरिया चैनलों की खिल्ली उड़ाता एक मीम सोशल मीडिया पर बहुत वायरल हुआ जिसमें चैनलों से पूछा जा रहा है कि पाकिस्तान के जिन शहरों पर कब्जा कर लिया गया था , सीजफायर के बाद वह शहर मुक्त कर दिए गए हैं या अभी चैनलों के कब्जे में ही हैं?
चैनल ऐसे व्यंग्य बाणों का संज्ञान लेंगे, ऐसा लगता तो नहीं है। चिंता की बात यह है कि इसकी वजह से विश्व में भारतीय मीडिया की छवि एक अविश्वसनीय और गैर जिम्मेदार संस्था के रूप में बन रही है।
एक और महत्वपूर्ण मुद्दे की लगातार अनदेखी की जा रही है। जब भी कोई बड़ा आतंकवादी हमला होता है अथवा युद्ध जैसे हालात होते हैं, मीडिया का एक वर्ग राष्ट्रहित को भूलकर अपना दर्शक वर्ग बढ़ाने की जुगत में लग जाता है। फिर उनको यह भी ध्यान नहीं रहता कि उनके द्वारा किया जा रहा लाइव टेलीकास्ट अथवा अपुष्ट सूचनाओं का प्रसारण कहीं देश विरोधियों को मदद तो नहीं पहुंचा रहा?
यह गंभीर मसला है। इसके कारण न्यूज़ चैनलों की छवि और विश्वसनीयता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। जिम्मेदार लोग जितनी जल्दी इसे समझेंगे, राष्ट्र हित में उतना ही अच्छा होगा।