भारतीय इतिहास के विभिन्न कालक्रमों में ऐसे-ऐसे महापुरुष ,प्रवर्तक, समाजसुधारक ,दैवीय अवतार हुए हैं जिन्होंने सुप्त पड़ी भारतीय चेतना को जागृत किया। धर्म की स्थापना की और विकृतियों के उन्मूलन के लिए समाज को प्रेरित किया। साथ ही ऐसे श्रेष्ठ मानक स्थापित किए हैं जो इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठों और लोक के अन्दर रच- बसकर सम्पूर्ण भारतीय समाज को आन्दोलित एवं पथप्रदर्शित करते आ रहे हैं।
धरती आबा भगवान बिरसा मुंडा अपने समय के उन्हीं अग्रदूतों में से एक थे। एक ऐसे योद्धा जिन्होंने भारतीय सनातन परम्परा को पुनर्प्रतिष्ठित करने के लिए छोटा नागपुर पठार के क्षेत्र में निवास करने वाले मुंडा समाज को संगठित किया। हिन्दू होने के बोध और राष्ट्र संस्कृति की ज्वाला से स्वातन्त्र्य, धर्मरक्षा की मशाल को प्रज्वलित किया। केवल 25 वर्ष की आयु में संघर्षों और क्रांति का इतना विराट स्वरूप ग्रहण किया कि – वह किसी ईश्वरीय चमत्कार से कम नहीं लगता है। उन्होंने जिस जनजातीय स्वत्व का अनुपमेय उदाहरण प्रस्तुत किया वह राष्ट्र के जन-जन में, जनजातीय समाज के जीवन में लहू बनकर घुला मिला हुआ है।
झारखंड के छोटा नागपुर स्थित उलीहातु गाँव में 15 नवम्बर, 1875 को बृहस्पतिवार के दिन जन्म होने के चलते उनका नाम ‘बिरसा’ रखा गया। खेती बाड़ी करने वाले सुगना मुंडा और माता करमी हातू के घर जन्मे बिरसा दो भाई थे। और उनकी दो बहनें थी। यह ऐसा क्षेत्र था जहां ब्रिटिश सरकार के साथ – साथ ईसाई मिशनरियां सक्रिय थीं। जो वनवासी समाज की निर्धनता का फायदा उठा कर कन्वर्जन के कुचक्र रच रहे थे। अत्याचार कर रहे थे। मिशनरियों ने अंतत बिरसा के पूरे परिवार का कन्वर्जन करा लिया। उनके पिता सुगना मुंडा का नाम मसीह दास रखा गया। पादरियों ने बिरसा का बपतिस्मा कर उनका नाम ‘डेविड बिरसा ‘ रखा। इसके बाद ही उन्हें चाईबासा इंग्लिश मिडिल स्कूल में प्रवेश मिला। यहां उन्होंने सन् 1886 से 1890 तक मिशनरी स्कूल में शिक्षा प्राप्त की। इन पाँच वर्षों में सभी कन्वर्टेड विद्यार्थियों की भांति उन्हें भी अंग्रेजी, ईसाई कार्य और प्रार्थनाएं सिखाई गईं। इस दौरान ईसाई मिशनरियां यह विशेष ध्यान रखती थीं कि किसी भी प्रकार से कन्वर्टेड विद्यार्थियों को वनवासी संस्कृति-मूल संस्कृति से दूर रखा जाए। किन्तु मिशनरी स्कूल में हिन्दू धर्म – संस्कृति के घोर अपमान, कन्वर्जन ने उन्हें इतना उद्वेलित किया कि – बिरसा ने स्कूल छोड़ दिया। मिशनरी टीचर्स को चुनौती दी। क्रमशः उनका वह स्वरुप बनता गया जिसके निमित्त उनका जन्म हुआ था। स्कूल छोड़ने के बाद बिरसा ने जो कुछ अपनी माँ से कहा वह आज भी क्रांति की ज्वाला के भाव उत्पन्न करता है। उन्होंने घर पहुँचकर अपनी माँ से कहा – “मैं ईसाइयत स्वीकार नहीं करता। मुझे किसी धर्म से घृणा नहीं है, लेकिन माँ मैं उस धर्म को ढूँढ़ूंगा, जिस धर्म की कहानियाँ मैंने आपसे सुनी है, नानी से सुनी है, मौसी से सुनी है। मैं उस धर्म को ढूँढ़ निकालूँगा’’।
इसके प्रत्युत्तर में उनकी माँ कहती — “तू कैसी बातें करता है? इस स्कूल के लिए तुम्हारे पिता सुगना मुंडा ने कहाँ-कहाँ नहीं घुटने टेके, कहाँ कहाँ नहीं सर झुकाए? ” इस पर बिरसा ने जो कहा वह आज भी अमिट लकीर बनकर हमारे समक्ष उपस्थित है — “उन्होंने (पिता ) गलत किया, अच्छा होता कि वे मुझे मेरी परंपरा का ज्ञान कराते। ये चर्च, ये टोपी, ये लूथेरियन, ये Protestant, ये कैथोलिक ये बिरसा को नहीं बदल सकते, बिरसा जरुर इनका रास्ता बदल देगा, तुम देख लेना माँ’’। अभिप्राय यह कि बिरसा – ब्रिटिशों के आतंक और ईसाई मिशनरियों के षड्यंत्रों को भली भांति जान और पहचान गए थे। इसीलिए वो बारंबार अपने संभाषणों में कहते थे कि — “टोपी टोपी एक हैं। ये जितने टोपी-हैट पहनने वाले हैं, ये मिलजुलकर साजिश करते हैं। ये मत समझो कि ब्रिटिश प्रशासन अलग है, और चर्च अलग है। ये दोनों एक ही हैं और ये सब मिलकर षड्यंत्र कर रहे हैं”।
आगे सन् 1891 में बिरसा मुंडा की भेंट भारतीय धर्म और अध्यात्म के मर्मज्ञ आनंद नामक विद्वान व्यक्ति से हुई। बिरसा मुंडा ने उन्हें अपना गुरु बनाया और उनसे शास्त्र , तप – साधना के मूल की शिक्षा ली । आत्मसात किया और पुनः अपने विराट शाश्वत सनातन हिन्दू धर्म के अनुसार जीवन जीने लगे। इस प्रकार उन्होंने अपना पथ ढूंढ़ लिया। यह तो उनकी प्रारंभिक निर्मिति थी जो उनके विराट प्रयोजन की भूमिका रच रही थी।
बिरसा मुंडा को हमें धर्मरक्षक ,क्रांतिवीर ,वनवासी नेता ,भगवान ,समाजसुधारक जैसे कई आयामों के अन्तर्गत देखना पड़ेगा। उनकी लड़ाई महज जंगल के संसाधनों पर मुंडाओं, वनवासी समाज के अधिकार के लिए जमींदारों और अंग्रेजी व्यवस्था के विरुद्ध ही नहीं थी। बल्कि उनका संघर्ष — कन्वर्जन, धार्मिक और सांस्कृतिक अस्मिता, धर्मरक्षा एवं स्वायत्तता के लिए था। उन्होंने समूचे मुंडा समाज को संगठित कर योजनाबद्ध तरीके से जमींदारों, अंग्रेजी शासन और ईसाई मिशनरियों से लड़ाई लड़ी। हमें इस बात पर गंभीरता के साथ चिन्तन-मनन करना पड़ेगा कि — आखिर एक चौदह वर्षीय बालक जिसके पूरे परिवार का ईसाइयत में धर्मान्तरण हो चुका था । जब उसके स्कूल में उसके धर्म एवं समाज को अपमानित किया जा रहा था तब उसके अन्दर प्रतिशोध की आग कैसे जली? वह आखिर क्या था जिसके चलते कन्वर्ट होने के बावजूद उसके द्वारा अपने धर्म और समाज को अपमानित होते हुए नहीं देखा जा रहा था?
वह कौन सा हेतु या तत्व था ?जिसके कारण 14 वर्षीय बिरसा ने अपने स्कूल के ईसाई शिक्षकों के विरुद्ध प्रतिकार का रास्ता अपनाया। वो बिरसा जिनका पूरा का पूरा परिवार कन्वर्ट हो गया था। वहां केवल एक 14 वर्षीय बालक ने कन्वर्जन के विरुद्ध युद्ध छेड़ने का निश्चय कर लिया। यह अपने आप में बड़ा प्रतिमान है। स्पष्ट है उस बालक के अन्दर वह तत्व था जिसे उसके पुरखों ने संस्कारों के माध्यम से संचारित किया था। जब उस स्वाभिमान और धर्मतत्व पर ईसाइयों ने घात किया तब उसकी अन्तरात्मा की आवाज ने उसे उसके मूल का स्मरण करवाया । फिर बिरसा मुंडा षड्यंत्रों के व्यूहों को भेदने के लिए उठ खड़े हुए तो आजीवन धर्मरक्षा के पथ से नहीं डिगे।
चौदह वर्षीय बिरसा मुंडा ने अंग्रेजी शासन और ईसाई मिशनरियों की कुटिलता के लिए कहा था — “साहेब -साहेब एक टोपी है” अर्थात् ईसाई मिशनरी जो ‘कन्वर्जन’ में लगी है। और अंग्रेजी शासन जो जमींदारों के साथ मिलकर वनसंसाधनों को छीन रही है । जनजातीय वनवासी समाज का जीवन मुश्किल कर रहे हैं
वे दोनों एक ही हैं। दोनों का उद्देश्य वही है — “दमन और उनकी धार्मिक पहचान छीनना” ।
बिरसा मुंडा जिन्होंने कन्वर्टेड मुंडा समाज की व्यापक स्तर पर पुनः सनातन हिन्दू धर्म की शाखा- वैष्णव धर्म में वापसी करवाई । इतना ही नहीं उन्होंने कन्वर्जन (धर्मान्तरण) के विरुद्ध जनजागरण चलाया। बिरसा मुंडा ने समूचे मुंडा समाज को तुलसी पूजा, गौ-रक्षा ,गौहत्या पर रोक, मांसाहार त्याग ,स्वच्छता , शुद्धता, सात्विकता ,धार्मिक और पौराणिक ग्रंथों के अध्ययन की ओर मोड़ा। साथ ही वो कथाओं के श्रवण ,गीता पाठ और देवी -देवताओं की उपासना करने की जीवनशैली को अपनाने पर जोर देते रहे। समाज के धार्मिक एवं सामाजिक गौरव को प्रतिष्ठित करने का आह्वान किया। वे जितने बड़े शूरवीर थे उतने ही बड़े आर्युवेद की परंपरा के ज्ञाता भी थे। वो कहा करते थे कि — “तुम्हारी प्रकृति में वो सबकुछ है जो तुम्हें प्राणवान बनाती है। इन वृक्षों में आग मत लगाना। ये वृक्ष सबकुछ हैं। ये फल-फूल ही नहीं देते। इनसे तुम्हारे सारे रोग, बीमारियाँ ठीक होती हैं। सब वृक्ष, सब फल, सब प्रकार की चीजों की अपनी उपयोगिता है इसलिए वन में इसको कहीं से नष्ट मत होने दो।” अभिप्राय यह की रत्नगर्भा प्रकृति की संतान होने के साथ साथ भारतीय ज्ञान परम्परा और प्रकृति के संरक्षण सम्वर्द्धन के लिए भी बिरसा प्रतिबद्ध थे।
उनका एक दैवीय एवं चमत्कारिक अवतार के तौर पर स्थापित होना कोई साधारण बात नहीं थी। बल्कि इसके पीछे उनके असाधारण कार्य थे जिसके चलते समूचे मुंडा समाज में जागृति ,धार्मिक सुव्यवस्थित जीवनशैली का सूत्रपात हुआ। साथ ही विभिन्न बीमारियों से रक्षा के लिए बिरसा मुंडा ने जो उपाय बतलाए उससे मुंडा समाज सशक्त हुआ।
बिरसा मुंडा के अनुयायी “बिरसाइत” कहलाए जो हिन्दू जीवनादर्शों के प्रचारक के साथ-साथ ‘शस्त्र-शास्त्र’ शिक्षण की भारतीय सनातनी परंपरा को प्रसारित किया। उन्होंने
आंदोलनकारियों को तीन श्रेणियों में बाँटा – प्रचारक या गुरु, पुरानक या पूराने और ननक। प्रचारक या गुरु श्रेणी में अत्यंत विश्वासपात्रों को शामिल किया गया। इनके पवित्र घरों में ही बिरसा-समर्थकों की गुप्त मंत्रणाएँ होती थीं। प्रायः ये मंत्रणाएँ बृहस्पतिवार और रविवार को रात के समय होती थीं। पुरानक या पुराने श्रेणी में आर-पार के युद्ध के लिए हर क्षण तैयार रहने वाले शामिल थे। ननक श्रेणी के लोगों को बिरसा प्रस्तावों के विषय में जानकारी देकर आवश्यक कार्य सौंपते थे।
इसी दिशा में धर्म और परंपराओं के पालन के प्रति उनकी अगाध श्रद्धा और आस्था दृष्टव्य होती है। बिरसा मुंडा अपने पूर्वजों की राजधानी नवरतनगढ़ से मिट्टी और पानी लाए तो चुटिया के मन्दिर से तुलसी के पौधे ,जगन्नाथपुर के मन्दिर से चन्दन लाए और समूचे मुंडा समाज को अपने प्रतीकों ,मूल्यों ,आदर्शों को संजोने का संकल्प दिलाया । अंग्रेजों,ईसाई मिशनरियों, जमींदारों के विरुद्ध संयुक्त मोर्चा खोलकर उनका संहार किया।
विश्व प्रसिद्ध उड़ीसा में स्थित जगन्नाथपुरी को वनवासी जनजातीय समाज अपनी आस्था का महत्वपूर्ण केन्द्र मानते आ रहे थे। जगन्नाथपुरी को वे अपना पैतृक मंदिर मानते थे। यहां मुंडा-पूर्वज विभिन्न भेंटें लेकर आते थे और ईश्वर की पूजा करते थे। आगे चलकर अंग्रेजों ने ‘फूट डालो राज करो’ की नीति की कुटिल चाल चली। जगन्नाथपुरी में वनवासी जनजातीय समाज के जाने पर प्रतिबंध लगा दिया। इसके विरुद्ध बिरसा मुंडा ने अपने समर्थकों सहित जगन्नाथपुरी की ओर प्रस्थान किया। उस समय उन्होंने पारंपरिक दृष्टि से हल्दी से रंगी हुई धोती पहनी । अपनी अनन्य धर्मनिष्ठा के साथ उन्होंने पुरी के मंदिर में 15 दिन तक अन्न-जल का पूर्णतः त्याग कर कठोर तपस्या की। इस दौरान उन्होंने समाज में व्याप्त कुरीतियों के
विरुद्ध लोगों को जागरूक करने का संकल्प लिया। वे अपने अनुयायियों को आस्था केन्द्रों के विषय में कहते थे — “ तुम्हारे परिक्षेत्र के ये तीन मंदिर चुटिया का मंदिर, जगन्नाथ का मंदिर, रतनगढ़ का मंदिर जिसे कभी तुम्हारे पूर्वजों ने इस आटविक प्रदेश में, इस वन्य प्रदेश में स्थापित किया है, ये तुम्हारी उपासना के तीर्थ हैं।”
इतना ही नहीं अपने अनुयायियों के मध्य तीन बातों को दृढ़तापूर्वक कहते थे। वे समाज प्रबोधन करते हुए कहते थे — “‘पूर्व में ब्रह्मा तुम्हें आवाज दे रहे हैं। पश्चिम में विष्णु तुम्हें आवाज दे रहे हैं। उत्तर में काली तुम्हें आवाज दे रही हैं। दक्षिण में दुर्गा तुम्हें आवाज दे रही हैं। हर दिशाओं से तुम्हारे बोंगा तुमको आवाज दे रहे हैं।” साथ ही उन्होंने सम्पूर्ण समाज में चैतन्यता के लिए ‘महादेव बोंगा’ और ‘चंडी बोंगा’ के आदर्शों को आत्मसात करने पर जोर दिया। जहां वे स्त्रियों से कहते थे — ‘वह जननी जो महादेव बोंगा की पत्नी हैं, तुम उस चंडी के समान बनो।’ तो वहीं पुरुषों से कहते थे — ‘वो सीता के पति तुम्हें आह्वान कर रहे हैं, तुम्हें आवाज दे रहे हैं, तुम उनकी सुनो।” वस्तुत: महादेव मुंडा, महादेव बोंगा, चंडी बोंगा ये स्थानीय भाषाओं में देवताओं के नाम थे। इनके मूल में भगवान महादेव और झारखंड के टांगी नाथ हैं। बाबा वैद्यनाथ हैं।
आगे चलकर उन्होंने 24 दिसंबर 1899 को उलगुलान! क्रांति में नारा दिया- “हेन्दे राम्बडा रे केच्चे केच्चे-पुण्ड्रा राम्बडा रे केच्चे-केच्चे ” अर्थात् – काले ईसाइयों को काट दो-गोरे ईसाइयों को काट दो ”
क्या यह नारा कन्वर्जन की क्रूरतम त्रासदी के विरुद्ध प्रतिशोध एवं प्रतिकार की हुँकार नहीं थी?उनका यह नारा केवल नारा ही नहीं बल्कि उनके ह्रदय का वह ज्वार था। जो अंग्रेजों, ईसाई मिशनरियों, जमींदारों के दमन और कन्वर्जन के षड्यंत्रों के कारण उत्पन्न हुआ। उनकी क्रान्ति से घबराई अंग्रेजी सरकार ने बिरसा मुंडा के प्रति दमन ,बर्बरता सहित छल की नीतियाँ अपनाई ।
19 नवम्बर 1895 को उन्हें रांची के हजारीबाग कारावास में बन्द कर पागल घोषित करवाया। भीषण यातना देते हुए मुंडा समाज के सामने उनकी प्रदर्शनी लगाकर शेष मुंडा समाज का उनके प्रति विश्वास खत्म करने और अपना भय स्थापित करने के लिए उन पर अत्याचार किए गए। किन्तु अंग्रेजो की भीषण यातनाएँ भी बिरसा मुंडा को न तोड़ सकीं और न ही उनके अन्दर के स्वाभिमान ,धर्मरक्षा के अखंड संकल्प को दबा पाए।
भगवान बिरसा मुंडा की क्रान्ति ज्वाला इतनी प्रखर थी कि ब्रिटिश सरकार भयाक्रांत थी।उनकी गिरफ्तारी पर लेफ्टिनेंट गवर्नर ने जो बयान दिया वह उनकी गाथा को सुस्पष्ट करता है। गवर्नर ने कहा — “वहाँ सरकार के पास तोपें भी थीं, सिविल गन्स भी थीं, मोर्टायर भी थीं लेकिन यहाँ बिरसा के साथियों का साहस था कि वो कुल्हाड़ी और धनुष के साथ संघर्ष में थे और स्त्रियाँ भी संघर्ष में थीं।”
तत्कालीन डिप्टी सुपरिटेंडेट जी आर के मेयर्स ने भी अपने बयान में कहा — “बिरसा के इतिहास और संघर्ष के कालक्रम में क्या हुआ, ये सभी जानते हैं। बिरसा मुंडा के लोगों ने सिंबुआ में, डोंबारी में, तमाड़ में, खूँटी में, चाइबासा में रक्त रंजित संघर्ष में भाग लिया। इतना ही नहीं मेयर्स ने यहां तक कहा कि — “जब तक बिरसा मुंडा कारावास में है, तब तक यह न समझें कि सबकुछ शांत है। वास्तव में बिरसा को बंदी बनाकर सरकार बारूद के ऐसे ढेर पर बैठ गई है, जिसे उसके संग्राम की एक चिनगारी पल भर में जलाकर भस्म कर देगी।”
बिरसा मुंडा जब 30 नवम्बर 1897 को जेल से छूटे तो उन्होंने मुंडाओं के अन्दर उस बीज को रोपने का कार्य किया जिसमें प्रत्येक मुंडा -एक बिरसा मुंडा ही बने। ताकि वह अपने दृढ़ निश्चय, क्रांति, धर्मरक्षा के पथ से कभी न हटे जिसका मुंडाओं ने पालन भी किया। बिरसा मुंडा ने 8 जनवरी 1899 को डोम्बारी पहाड़ में हजारों मुंडाओं को संगठित कर ‘बीरदाह’ (पवित्र जल) से दीक्षित कर पुनः क्रांति का बिगुल फूँका। इस दौरान अंग्रेजी थानों और शासन को वीर मुंडाओं ने नष्ट कर दिया।किन्तु अंग्रेजों की ओर से तोप,बन्दूकों, बारूदी गोलों का सामना भाला,तीर-कमान ज्यादा समय तक नहीं कर पाए ।हजारों मुंडाओं को अंग्रेजों ने मौत की नींद सुला दी जिसमें बच्चे, बूढ़े,नौजवान, महिलाएं सभी शामिल थे। तत्पश्चात षड्यन्त्रपूर्वक बिरसा मुंडा को अंग्रेजों ने गिरफ्तार कर लिया । उन्हें जेल में मर्मान्तक यातनाएँ दी गई। अन्त में ‘एशियाटिक हैजा’ का प्रपञ्च रचते हुए 9 जून 1900 को उनकी कारावास में जहर देकर हत्या कर दी गई।
उस समय ब्रिटिश अधिकारियों ने अंग्रेजी सरकार को बिरसा के विरूद्ध जो रिपोर्ट भेजी। उसमें जनजातीय अस्मिता के साथ क्रांति और कन्वर्जन के विरुद्ध बिरसा मुंडा की हुंकार परिलक्षित होती है। उस रिपोर्ट में लिखा गया कि
- बिरसा वनवासियों को खेती करने से मना करता है।
- वनवासियों को ईसाई रिलिजन छोड़कर हिन्दू बनने के लिए प्रेरित कर रहा है।
- मांसाहार को प्रतिबंधित कर दिया है।
- वह लोगों को उकसाते हुए कहता है कि अंग्रेजों के अधीन जंगलों को वह अपने अधिकार में ले लेगा। जो लोग कड़ाई से अपने धर्म का पालन करेंगे, केवल उन्हें ही उन जंगलों में रहने की अनुमति मिलेगी।
यानी सारे उद्धरण और तथ्य भगवान बिरसा मुंडा की यशस्वी अमरकाया की गौरवगाथा को प्रस्तुत करते हैं। अंग्रेजों ने भौतिक तौर पर बिरसा मुंडा की हत्या तो की। लेकिन वे उन बिरसा मुंडा को नहीं मार पाए जिन्होंने अपनी धार्मिक- सामाजिक ,सांस्कृतिक और वन संसाधनों की स्वायत्तता की लड़ाई का बिगुल फूँका । जो समूचे भारतवर्ष में क्रांति और धर्मरक्षा की अमिट लकीर बना। इसी के चलते बिरसा मुंडा वनाञ्चलों में निवास करने वालों के साथ -साथ समूचे भारतवर्ष के लिए एक आदर्श जननायक, भगवान के तौर पर स्थापित हुए। भगवान बिरसा मुंडा के अभूतपूर्व त्याग, बलिदान और पुरुषार्थ से परिपूर्ण क्रांति जन-जन में सदा जागृत रहेगी ।
वे समूचे भारतवर्ष के लिए एक ऐसे महानायक के तौर पर जाने जाते रहेंगे जिन्होंने – राष्ट्र रक्षा समं पुण्यं, राष्ट्र रक्षा समं व्रतम्। राष्ट्र रक्षा समं यज्ञो,दृष्टो नैव च नैव च।। मन्त्र को चरितार्थ करते हुए अपने जीवन की आहुति से राष्ट्र का पथप्रदर्शित एवं आलोकित किया है।आवश्यकता है उनकी गौरवगाथा के सूत्रों को आत्मसात कर राष्ट्र और समाज के कल्याण के गतिमान होने की।

~कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल
(साहित्यकार,स्तंभकार एवं पत्रकार)