कबीर निर्गुण भक्ति शाखा के शीर्षस्थ कवि थे। उनके दोहे और साखियां पाखंड और अंधविश्वास पर जबर्दस्त प्रहार करते हैं। कबीर की वाणी मानव मात्र के कल्याण के लिए है। वह सही अर्थों में क्रांतिकारी हैं। कबीर जैसा खरापन अन्यत्र दुर्लभ है।
महत्वपूर्ण यह है कि कबीर की वाणी जितनी प्रासंगिक 15 वीं शताब्दी में थी, उतनी आज भी है।
कबीर साहब फरमाते हैं –
कबीरा खड़ा बजार में, सबकी चाहे खैर।
ना काहू से दोस्ती,ना काहू से बैर।।
हद में बैठा कथत है, बेहद की गम नाहिं।
बेहद की गम होयगी,तब कछु कथना नाहिं।।
हद में पीव ना पाईया, बेहद में भरपूर।
हद बेहद की गम लखें, ताशों पीव हजूर।।
मतवाड़ा में पड़ि गए, मूरख बारह वाट।
ऐसा कबहूं ना मिले, जो उल्टे धारे घाट।।
अगम पंथ को पग धरे, सो कोई बिरला संत।
मतवाड़ा में पड़ि गए, ऐसे जीव अनंत।।
मानव समाज में सभी की खैरियत, हित और हिफाज़त तभी संभव है जब इंसान पक्षपात से ऊपर हो। हदों से ऊपर उठकर ही बेहदी का एहसास या प्रत्यक्षानुभूति संभव है। जब तक मनुष्य जाति,धर्म,पंथ,संप्रदाय,मत-मतांतर में बंधा रहेगा, उस निष्पक्ष,निरपेक्ष,निर्गुण,निराकार अविनाशी पुरुष को कैसे जान सकता है? वह पीव (परमात्मा), वह हुजूर हमेशा प्राणी मात्र में हाज़िर है। उससे मिलन मतवाड़ा से ऊपर उठकर ही संभव है। जो व्यक्ति मतवाड़ा से ऊपर उठकर अगम पंथ का राहगीर बनेगा,वही निज स्वरूप का साक्षात्कार कर सकता है।
कबीर मानव मात्र में परस्पर प्रेम के लिए प्रबल आग्रही हैं। वह कहते हैं – जिनके जीवन में प्रेम की लाली चढ़ी वह लाल हो गया। जो व्यक्ति प्रेम के ढाई अक्षर के मर्म को समझ गया वही वास्तविक ज्ञानी है।
पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।।
कबीर बाहरी आडंबर,दिखावा,अंधविश्वास और पाखंडवाद के खिलाफ पुरजोर आवाज़ उठाते हैं।उनका पूरा जोर मन की निर्मलता पर है।
सब वन तो तुलसी भया, पर्वत सालगराम।
सब नदियां गंगा भईं, जब जाना आतमराम।।
मन मथुरा दिल द्वारिका, काया काशी जाण।
दस द्वारे का पींजरा, यामें जोत पिछाण।।
सच्ची भक्ति और मानवता को परिभाषित करते हुए कबीर कहते हैं – शील,क्षमा,दया,प्रेम,सद्भाव,समत्व, सहजता,कोमलता जैसे सद्गुणों का समावेश ही सच्ची भक्ति और मानवता है। हमारी रहनी, ग्रहणी, करनी,कथनी,खानपान सभी संयमित होने पर ही आपसी प्रेम सद्भाव कायम हो सकता है।
दया भाव हिरदे नहीं,ज्ञान कथें बेहद।
वह नर नरक में जाएंगे,सुनि-सुनि साखी और शबद।।
शील क्षमा जब ऊपजे,अलख दृष्टि तब होय।
बिना शील पहुंचे नहीं,लाख कथे जो कोय।।
करनी करे तो क्यों डरे,कर ही क्यों पछताय।
बोया पेड़ बबूल का तो आम कहां से खाय।।
अपने समय में प्रचलित धार्मिक आडंबरों पर प्रहार करते हुए कबीर कहते हैं-
कांकर पाथर जोरि के मस्जिद लई बनाए।
ता चढ़ि मुल्ला बांग दे, बहरा हुआ खुदाय।।
पाथर पूजे हरि मिले,तो मैं पूजूं पहार।
याते तो चकिया भली पीस खाए संसार।।
मध्यकाल में ऐसा कहने का हौसला रखने वाला कबीर ही हो सकता है!
आप कबीर में जितना डूबेंगे,आपको उतने ही कीमती मोती मिलते जाएंगे। इस छोटे से लेख का उद्देश्य यही बताना है कि कबीर केवल जयंती पर याद करने के लिए नहीं, जीवन में उतारने के लिए हैं। यदि यह संसार कबीर की देशना को आत्मसात कर ले, तो सारी झंझटों से छुटकारा मिल सकता है।
कितने आश्चर्य की बात है कि 15 वीं शताब्दी के कबीर,आज कहीं अधिक प्रासंगिक लग रहे हैं! कबीर हमेशा प्रासंगिक बने रहेंगे।

*प्रहलाद सिंह टिपानिया
(लेखक मालवा शैली में कबीर गायन के लिए देश-विदेश में विख्यात हैं। भारत सरकार ने आपको पद्मश्री अलंकरण से अलंकृत किया है।)