मसला-ए-मूंग… अनुत्तरित सवाल…

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शाकाहारियों को प्रोटीन की पूर्ति के लिए दालों के सेवन की सलाह दी जाती है। शाकाहारियों में भी जो लोग एकदम सादा सात्विक भोजन पसंद करते हैं, उनके लिए मूंग की दाल सर्वश्रेष्ठ विकल्प माना जाता है। बीमारी से उबरने के बाद चिकित्सक भी मूंग दाल अथवा उसके पानी से ही आहार की शुरुआत करते हैं।
आयुर्वेद के अनुसार मूंग सुपाच्य होती है। इसे कफपित्तशामक, रक्तशोधक,अरुचिशामक तथा सर्वरोगहर कहा गया है।
मूंग में मौजूद एंटीऑक्सीडेंट्स कैंसर जैसे असाध्य रोगों से बचाते है । मूंग खराब कोलेस्ट्रॉल को भी नियंत्रित करती है। मूंग के सेवन से शरीर को भरपूर पोषण मिलता है। फाइबर की अच्छी मात्रा होने के कारण यह आंतों की कार्य प्रणाली को स्वस्थ रखती है। शरीर के वजन को नियंत्रित रखती है। रक्त शर्करा और रक्तचाप को नियंत्रित रखती है।

विशेषज्ञों का कहना है कि शरीर के पोषण के लिए सामिष भोजन से जितना प्रोटीन मिलता है,उतना मूंग के नियमित सेवन से भी पाया जा सकता है ।
ऐसे लोग जो अरहर अथवा चने की दाल नहीं पचा पाते,उनके लिए तो मूंग दाल जैसे वरदान है।

लेकिन क्या हो जब यही प्रकृति प्रदत्त वरदान लोगों के स्वास्थ्य के लिए अभिशाप बन जाए!
हर कोई जानता है कि ग्रीष्मकालीन मूंग स्वास्थ्य के लिए बहुत बड़ा खतरा बन चुकी है। मध्य प्रदेश ग्रीष्मकालीन मूंग का सबसे बड़ा उत्पादक है। लेकिन इस उपलब्धि के साथ एक नकारात्मक तथ्य भी नत्थी हो गया है। विभिन्न समाचार माध्यमों के अनुसार प्रदेश में उत्पादित मूंग में ऐसे तत्वों की बड़ी मात्रा पाई गई है,जो मानव स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं। सीधी- सीधी भाषा में इसे जहरीली मूंग कहा जा रहा है।

दरअसल ग्रीष्मकालीन मूंग की खेती किसानों के लिए अतिरिक्त आय का जरिया है। मूंग की फसल पकने में औसतन 75 दिनों का समय लेती है, लेकिन किसान रासायनिक दवाइयों का उपयोग कर 60 से कम दिनों में ही यह फसल ले रहे हैं। इस दौरान खरपतवार नष्ट करने से लगाकर पौधे के जल्दी बढ़ने,फूलने-फलने और पकने तक के लिए बड़ी मात्रा में रासायनिक दवाओं का प्रयोग किया जाता है। इतना ही नहीं, पौधों को सुखाने के लिए भी बड़ी मात्रा में रसायनों का प्रयोग किया जाता है।
नतीजा,जिस मूंग को आयुर्वेद में शाकाहारियों के लिए वरदान और सर्वरोगहर खाद्यान्न कहा गया है, वही अब विभिन्न रोगों का कारण बन रही है।

कदाचित इसीलिए सरकार समर्थन मूल्य पर मूंग खरीदने के लिए उत्सुक नहीं थी, लेकिन किसानों के दिन प्रतिदिन बढ़ते आंदोलन की वजह से अंततः उसे समर्थन मूल्य घोषित करना पड़ा।
अब वही कथित जहरीली मूंग सरकारी ऐजेसियों द्वारा खरीदी जाएगी और सरकार अपने किसान हितैषी होने का ढिंढोरा पीटेगी।
(इस वर्ष प्रदेश में लगभग 20 लाख टन मूंग का उत्पादन होने की संभावना है।)

गैर जिम्मेदाराना व्यवहार की पराकाष्ठा देखिए कि किसान घरेलू उपयोग के लिए जो फसलें उगाते हैं, उनमें तो तय मापदंडों के अनुसार ही दवाइयों का उपयोग करते हैं, जबकि बाजार के लिए उत्पादित फल-फूल,सब्जियां,अनाज,दलहन,तिलहन आदि में इसका ख्याल नहीं रखते।
नतीजतन आम उपभोक्ता ज़हर खाने के लिए मजबूर हैं।

इस पूरे प्रकरण में विडंबना यह है कि सरकार और किसान दोनों भली भांति भलीभांति जानते हैं कि मूंग में रसायनों की मात्रा खतरनाक स्तर तक पहुंच चुकी है,और यह अचानक रातों-रात नहीं हुआ है। लेकिन दोनों जिम्मेदार पक्ष शुतुरमुर्गी मुद्रा अपनाए हुए हैं।

इस बीच बहुत से परिदृश्य पटल पर आ-जा रहे हैं।आंदोलन हो रहे हैं। दोषारोपण हो रहा है। किसान हितैषी भाषण हो रहे हैं। घोषणाएं हो रही हैं। बड़े-बड़े विज्ञापन प्रकाशित हो रहे हैं। नहीं हो रही तो समस्या के स्थाई समाधान की ठोस पहल ; जिसकी सर्वाधिक आवश्यकता है।

(गाडरवारा , जिला नरसिंहपुर में समर्थन मूल्य पर मूंग ख़रीदी की ओर सरकार का ध्यान आकृष्ट करने के लिए किसानों ने अनोखे तरीक़े से आंदोलन किया ।किसान बड़ी संख्या में घुटनों के बल चलते हुए अधिकारियों को ज्ञापन देने पहुँचे)

इस पूरे मसले पर कुछ प्रश्न हैं,जिनका जवाब सरकार और उसकी जिम्मेदार एजेंसियों को देना चाहिए।

1- सभी जानते हैं कि खेती में रसायनों का प्रयोग खतरनाक स्तर तक पहुंच चुका है। अन्न तो जहरीला हुआ ही है,फल-फूल सब्जियों आदि में भी उत्पादन से लगाकर उन्हें अधिक समय तक ताजा रखने के लिए रसायनों का प्रयोग हो रहा है।
फिर अकेले मूंग को लेकर इतना बवाल क्यों है?
क्या इसे लेकर कोई विशेष अध्ययन हुआ है जो यह बताता हो कि मूंग अपेक्षाकृत अधिक विषाक्त है।

2- पहले सरकार की समर्थन मूल्य पर मूंग खरीदने की कोई योजना नहीं थी। इसके पीछे मूंग में विषाक्त तत्वों की उपस्थिति को माना जा रहा था। अब सरकार वही कथित विषाक्त मूंग खरीदने जा रही है। इस विषाक्त मूंग को किस उपयोग में लाया जाएगा?

3- किसान तीन फसलों के लोभ में ग्रीष्मकालीन मूंग की ओर आकर्षित हुआ है। अतिरिक्त आय किसे अच्छी नहीं लगती? लेकिन इससे उत्पन्न होने वाली पर्यावरणीय और स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं की जिम्मेदारी किसकी है?

4-जब पैराक्वॉट डायक्लोराइड देश/प्रदेश में प्रतिबंधित है, तो यह अलग-अलग नामों से खुलेआम बाजार में कैसे बिक रहा है? इसी रसायन का प्रयोग मूंग की फसल को जल्दी पकाने के लिए किया जा रहा है।

5- खाद्य पदार्थों में घातक रसायनों की उपस्थिति से स्वास्थ्य संबंधी गंभीर समस्याएं पैदा हो रही हैं। इस कारण से लोग प्राकृतिक अथवा जैविक कृषि उत्पादों की ओर आकर्षित हो रहे हैं। लेकिन अवसरवादी तत्व किसानों के नाम पर इस स्थिति का फायदा उठाने में जुट गए हैं और और विभिन्न कृषि उत्पादों को जैविक अथवा प्राकृतिक उत्पादों के नाम से बाजार में ऊंचे दामों पर बेच रहे हैं।
सरकार की ओर से प्राकृतिक अथवा जैविक खेती को प्रोत्साहित करने की कोई ठोस पहल नज़र क्यों नहीं आती?
जैविक अथवा प्राकृतिक खेती के बारे में एक मिथक यह भी प्रचलित है कि इस पद्धति से खेती करने में लागत ज्यादा आती है और उत्पादन कम मिलता है;जबकि जैविक खेती करने वाले अनुभवी लोग इसे नकारते हैं।

6- खेतों में घुलते जहर के सवाल पर किसान कहते हैं कि यह समस्या एक-दो किसानों की पहल से हल नहीं होगी। इसके लिए सामूहिक निर्णय लेकर उसे ईमानदारी से लागू करवाना होगा।
खेती में खतरनाक रसायनों के प्रयोग को हतोत्साहित किया जाना क्या “अमृत काल” का प्रमुख लक्ष्य नहीं होना चाहिए?

7- और सबसे महत्वपूर्ण सवाल…
लोकतांत्रिक व्यवस्था में संख्या बल निर्णायक होता है। यह बात किसान भी जानता है और राजनीतिक दल भी।
यह प्रश्न सभी को अपने आपसे पूछना चाहिए ; क्या वोट, मनुष्य की जान से अधिक कीमती है?

यह कुछ बुनियादी सवाल हैं। जब तक इनके समाधानकारक जवाब नहीं मिलते, तब तक खेतों में ज़हर घुलता रहेगा।

*अरविन्द श्रीधर

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