मैं हूं सप्रे संग्रहालय : शब्दों में जिंदा सभ्यता, स्मृतियों में सहेजा गया इतिहास

अलीम बजमी By अलीम बजमी
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मैं हूं माधव सप्रे स्मृति समाचार पत्र संग्रहालय एवं शोध संस्थान। सभ्यता की छाया, संस्कृति का दर्पण और विचारों की धारा। मैं बौद्धिक रूप से भामाशाह हूं, क्योंकि मेरे भीतर पांच करोड़ से भी अधिक पृष्ठों की थाती सुरक्षित है। इनमें दो सौ साल पुराने अख़बार, पत्रिकाएं, दुर्लभ पांडुलिपियां और साहित्यकारों के पत्र हैं, जो देश-दुनिया की चेतना और चिंतन का हिस्सा हैं। मैं आज पत्रकार कॉलोनी, मेन रोड-3 पर पूरे आत्मगौरव के साथ खड़ा हूं, लेकिन मेरी जड़ें उस ऐतिहासिक स्थान में हैं, जहां समय ठहरकर इतिहास की गवाही देता है।
19 जून 1984 को मेरा जन्म कमला पार्क स्थित वीरांगना रानी कमलापति के बुर्ज में हुआ, जो कभी गौंड महल का हिस्सा था। न कोई शोर था, न समारोह, लेकिन मेरी परिकल्पना के पीछे था- एक दृढ़ संकल्प, एक स्पष्ट उद्देश्य-समाचार, साहित्य और सभ्यता को सहेजने का। मुझे आकार दिया पत्रकार विजयदत्त श्रीधर ने। वे घर-घर जाकर पुरानी संदर्भ सामग्रियों की तलाश में भटके, दीमकों से लड़ते हुए, धूल से अटे हुए कागज़ों को संजोते हुए उन्होंने मुझे आकार दिया। इस विचार की प्रेरणा उन्हें साहित्यकार रामेश्वर गुरु (जबलपुर) से मिली थी। उन्होंने इसे आत्मदायित्व बनाकर मुझमें प्राण फूंके।
शुरुआत मेरी बिल्कुल साधारण थी। मात्र 350 पत्र-पत्रिकाओं के छोटे से संग्रह के साथ मैंने आंखें खोली थीं। तब छोटी और बड़ी झील की ठंडी हवाएं मेरी सांसों को थामे रखती थीं। शीतलदास की बगिया से आती घंटियों की मधुर ध्वनि और फैज मस्जिद से गूंजती अज़ान मेरे भीतर एक ऐसी तहज़ीब का संचार करती थी, जो गंगा-जमुनी संस्कृति का जीवंत प्रतीक बन गई। मैंने उसी विरासत को समेटा और आज मेरे पास हिंदी, उर्दू, अंग्रेज़ी, मराठी, गुजराती, संस्कृत सहित अनेक भाषाओं की बेशकीमती सामग्री है, जो शोध के लिए अमूल्य स्रोत बन चुकी है।


मेरे आंगन में अब तक 1,238 शोधार्थी बैठ चुके हैं, जिन्होंने यहां पर स्टडी करके डी-लिट्, पीएचडी और एमफिल की डिग्रियां हासिल की हैं। देश ही नहीं, अब विदेशों से भी स्टूडेंट मेरी गोद में आकर नॉलेज ले रहे हैं। मेरी स्मृतियों में आज 26,479 पत्र-पत्रिकाओं की फाइलें, 1,66,222 पुस्तकें और साहित्य मनीषियों के 10,000 पत्रों का अपार खजाना सुरक्षित है, जो एक नहीं, अनेक युगों की गवाही देता है। यह भंडार सिर्फ पुस्तकों और काग़ज़ों का नहीं, बल्कि उस चेतना का संग्रह है, जिसने भारत को वैचारिक दिशा दी।
मैंने समय के साथ खुद को बदला भी है। अब मैं केवल अलमारियों में बंद अतीत नहीं, बल्कि वर्तमान में सांस लेता, भविष्य की ओर देखता एक सक्रिय संस्थान हूं। मेरे भीतर पुस्तकालय सेवा की तीन शक्लें हैं-परंपरागत लाइब्रेरी, अध्ययन कक्ष और डिजिटल लाइब्रेरी। अब मेरे 30 लाख पृष्ठ कंप्यूटर स्क्रीन पर उपलब्ध हैं, जिससे बड़ी संख्या में स्टूडेंट और शोधार्थी लाभान्वित हो रहे हैं। इस परिवर्तन का श्रेय भारतीय स्टेट बैंक को हैं। उसने मुझे 45 लाख 83 हजार 954 रुपये दिए। आज मेरे पास 10 किलोवाट का सोलर पैनल है, जिसकी वजह से बिजली जाने की स्थिति में भी स्टडी वर्क नहीं रुकता। इससे मेरा बिजली खर्च घटकर मात्र 1,500 रुपये मासिक रह गया है।


मैं बदलते समय के साथ खुद को केवल आधुनिक नहीं, बल्कि आवश्यक बनाता जा रहा हूं। मैं वह पन्ना हूं, जिस पर भारत की आत्मा लिखी गई है। मैं वह दीवार हूं, जिस पर पत्रकारिता, साहित्य और समाज का चरित्र अंकित है। मैं केवल संग्रह नहीं हूं, एक सतत यात्रा हूं—शब्दों, विचारों और मूल्यों की यात्रा। और यह यात्रा यहीं थमती नहीं, बल्कि भविष्य के पथों को आलोकित करती है। आने वाले समय में मैं न सिर्फ डिजिटल शोध का प्रमुख केंद्र बनूंगा, बल्कि नई पीढ़ी के विचारों को दिशा देने वाला मंच भी। मैं उन युवाओं का साथी हूं, जो अपनी जड़ों को समझकर वैश्विक क्षितिज को छूना चाहते हैं। मैं हूं, माधव सप्रे संग्रहालय—जहां अतीत सांस लेता है, वर्तमान संवाद करता है और भविष्य आकार पाता है।

अलीम बजमी. भोपाल।

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