गणतंत्र का विचार भारतीय ज्ञान परंपरा में सदियों से मौजूद है।भारतीय ज्ञान परंपरा दुनिया की सबसे पुरानी संस्कृतियों में से एक है और यह स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व और विश्व शांति के सिद्धांतों को स्वीकार करती है।
वैदिक काल में सभा (वृद्धजनों की परिषद) और समिति (सामान्य जनसभा) जैसी संस्थाएँ सामूहिक निर्णय का माध्यम होती थीं। ये प्रारंभिक लोकतांत्रिक संस्थाएं थीं, जहाँ नीतिगत विमर्श होता था। ऋग्वेद (10.191.2) में “संगच्छध्वं संवदध्वं” (साथ चलो, साथ बोलो) का आह्वान समाज की सामूहिकता को दर्शाता है।
महाजनपद काल में वज्जि संघ जैसे गणराज्यों ने “संघ” व्यवस्था विकसित की थी। संघ में प्रायःनिर्णय बहुमत से लिए जाते थे।अधिकारियों का चुनाव होता था,और न्यायिक प्रक्रिया सार्वजनिक एवं पारदर्शी होती थी।
यह व्यवस्थाएं बताती हैं कि भारत में लोकतंत्र पश्चिमी आयात नहीं है बल्कि स्वदेशी परंपरा का ही विकास है।
भारतीय ज्ञान परंपरा में तर्क-वितर्क को शास्त्रार्थ के रूप में केन्द्रीय स्थान प्राप्त था। उपनिषदों में गुरु-शिष्य संवाद के वर्णन मिलते हैं। बौद्ध दर्शन में “परीक्षा”(तार्किक परीक्षण) पर बल दिया जाता था।जैन अनेकांतवाद में विभिन्न दृष्टिकोणों का समावेश दिखता है।
संविधान के अनुच्छेद 19 द्वारा प्रदत्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की अवधारणा वैदिक ऋषियों के “श्रुति-स्मृति” चिंतन में निहित है। वसुबंधु जैसे दार्शनिकों ने “विद्या” (ज्ञान) और “अविद्या” (अज्ञान) के बीच संघर्ष को सत्यान्वेषण का मार्ग माना । इसे ही बौद्ध परंपरा में “कलाम सुत्त” (तर्कपूर्ण विमर्श) के रूप में जाना गया ।
संविधान के अनुच्छेद 14 में समानता का सिद्धांत वैदिक कालीन सामाजिक संरचना से प्रेरित है। “वैदिक काल महिला सशक्तिकरण का काल था क्योंकि महिलाओं को पुरुषों के समान ही अधिकार प्राप्त थे। बौद्धिक और सामाजिक जगत में गार्गी और मैत्रेयी जैसी विदुषियों का सक्रिय हस्तक्षेप इसका प्रमाण है।
‘वसुधैव कुटुंबकम्’ का उद्घोष जो हमारी संस्कृति में मौजूद उदात्त भावना का सर्वोत्कृष्ट मंत्र है,आज के बंधुत्व से कहीं अधिक उदार और प्रभावी विचार है।
अशोक के शिलालेखों में यही विचार ‘सर्वजन हिताय’ के रूप में मौजूद है।
गांधीवाद और सर्वोदय ने भी यहीं से वैचारिक दृढ़ता पाई है।क
भारतीय ज्ञान परंपरा लोकतंत्र को यांत्रिक प्रक्रिया न मानकर नैतिकता पर जोर देती है। भारतीय ज्ञान परंपरा कहती है “सा विद्या या विमुक्तये” (विद्या वह है जो संकीर्णता से मुक्त करे) यही मुक्ति सामाजिक, आर्थिक, बौद्धिक लोकतंत्र का चरम लक्ष्य है। यह सार्वभौमिक सर्वकालिक प्रासंगिक ज्ञान है ।
गुलामी के दौर में, विशेष रूप से अंग्रेजी शासन काल में इस वैचारिक दृढ़ता को नुकसान पहुंचाने के कुत्सित प्रयास हुए। इस दौर में हमारी शिक्षा व्यवस्था, संस्कृति,साहित्य,भाषा,सामाजिक- पंचायत प्रणाली, जीवन शैली, सर्व धर्म समभाव,प्रकृति और खेती की परंपरागत समझ सहित ज्ञान की हर विरासत को कमतर बताया गया और पश्चिमी तौर तरीकों की श्रेष्ठता को स्थापित किया गया।
1947 में जब भारत आज़ाद हुआ तब पश्चिमी विद्वान कहा करते थे कि धर्मो,जातियों, रीति-रिवाजों और संस्कृतियों की विविधता के चलते भारत एक राष्ट्र के रूप में सफल नहीं हो सकता। स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव मना चुके और स्वतंत्रता की शताब्दी मनाने की ओर अग्रसर देश की जनता ने ऐसी हर आशंका को निर्मूल साबित किया है।
अब जरूरत इस बात की है कि देश का प्रत्येक नागरिक अपने नागरिक कर्तव्यों का निर्वहन करते हुए लोकतांत्रिक परंपराओं एवं संस्थाओं को मजबूती प्रदान करने में अपना सक्रिय योगदान दे।
*विवेक रंजन श्रीवास्तव
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