सहकारिता को ज़रूरत है ‘सहकार भाव’ की

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सहकार भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग है। पूरे विश्व को एक ही कुटुंब मानने वाली भारतीय संस्कृति,’मैं’ की बजाय ‘हम’ पर जोर देती रही है। संस्कृति का पूरा ताना-बाना सहकार के धरातल पर ही बुना गया है। सामुदायिक-सामाजिक जीवन की तमाम परंपराओं में इसे सहज ही देखा जा सकता है। इस दृष्टि से सहकारिता भारत के लिए कोई नवीन विचार नहीं है।

भारत के लिए तो सहकारिता तो जैसे उसके अस्तित्व में ही समाहित है लेकिन आज समूचा विश्व सहकारिता और सहअस्तित्व के महत्व को स्वीकार कर रहा है।
यही कारण है कि संयुक्त राष्ट्र संघ वर्ष 2025 को ‘अंतरराष्ट्रीय सहकारिता वर्ष’ के रूप में मना रहा है। इसकी थीम रखी गई है – ‘बेहतर विश्व का निर्माण करती सहकारिता।’

भारत में संस्थागत सहकारिता की शुरुआत 1904 में बने एक कानून के साथ मानी जा सकती है,लेकिन इसने जोर पकड़ा 1946 के बाद। इसी वर्ष गुजरात के खेड़ा जिले में सहकारी दुग्ध उत्पादक समितियां अस्तित्व में आईं, जो आगे चलकर सहकारिता आंदोलन की मिसाल बनीं।
स्वतंत्रता के पश्चात सहकारी आंदोलन को विशेष महत्व दिया गया,और धीरे-धीरे इसकी जड़ें मजबूत होती गईं।
वर्तमान में 8 लाख से अधिक सहकारी समितियां देश में कार्यरत हैं,जो 29 अलग-अलग क्षेत्रों में काम कर रही हैं।

कृषि ऋणों का वितरण,उर्वरकों का उत्पादन और वितरण, समर्थन मूल्य पर कृषि उपज की खरीदी, मत्स्य पालन , दुग्ध उत्पादन और वितरण,चीनी उत्पादन और आवास जैसे क्षेत्रों में सहकारिता के माध्यम से महत्वपूर्ण उपलब्धियां हासिल की गईं हैं। उचित मूल्य की दुकानों और उपभोक्ता सहकारी समितियों के माध्यम से सार्वजनिक वितरण प्रणाली के संचालन में भी सहकारिता का महत्वपूर्ण योगदान है।
ग्रामीण और कृषि अर्थव्यवस्था के लिए सहकारिता आज एक महत्वपूर्ण घटक है।

प्राथमिक कृषि सहकारी साख समिति (PACS) वैसे तो राज्य सरकारों का विषय है लेकिन ग्रामीण विकास में सहकारिता के महत्व को स्वीकार करते हुए केंद्र सरकार ने इसके लिए पहल की है। दरअसल पैक्स ही वह संस्था है जिसके संपर्क में ग्रामीण आबादी का अधिसंख्य भाग निरंतर रहता है।
भारत सरकार द्वारा 2021 में पृथक सहकारिता मंत्रालय का गठन इस दिशा में एक महत्वपूर्ण पहल है। मंत्रालय द्वारा सहकारिता के माध्यम से जीवन स्तर बेहतर बनाने के लिए अनेक गतिविधियों को इसके तहत लाने का प्रयास किया जा रहा है।
पैक्स की गतिविधियों को पारदर्शी और सशक्त बनाने के लिए इन समितियां को कंप्यूटरीकृत भी किया जा रहा है।
‘सहकार से समृद्धि’ का ध्येय सामने रखते हुए भारत सरकार ने 2029 तक देश की शत-प्रतिशत ग्राम पंचायतों में बहुउद्देशीय पैक्स के गठन का लक्ष्य रखा है। वर्तमान में देश में लगभग 67930 पैक्स कार्यरत हैं,जबकि 2 लाख से अधिक समितियां गठित किए जाने का लक्ष्य हासिल किया जाना बाकी है।

सहकारी आंदोलन पर सरसरी निगाह डालने पर हम पाते हैं कि देश में गुजरात सहकारी दुग्ध विपणन संघ लिमिटेड(अमूल)जैसी सफलतम सहकारी समितियां हैं, तो अपने अस्तित्व का संकट झेल रही समितियां भी।
आए दिन डूबते सहकारी बैंकों,और विभिन्न क्षेत्रों की लड़खड़ाती सहकारी समितियों के समाचार सुर्खियां बनते रहते हैं। राजनीतिक दखलंदाजी और अवांछित आर्थिक गतिविधियां अब आम हैं।
‘सहकार भाव’ क्षीण होता जा रहा है,जबकि यही सहकारिता की आत्मा है।
नियमित निर्वाचन न होने के कारण आज अधिकांश सहकारी संस्थाओं पर अफसर शाही हावी है। कुल मिलाकर सहकारिता सरकार का एक विभाग बनकर रह गई है,जबकि इसकी कल्पना जनोन्मुखी आंदोलन के रूप में की गई थी।
सरकारें सहकारिता को कितना महत्व देती हैं इसे मध्य प्रदेश के उदाहरण से समझा जा सकता है। मध्य प्रदेश में पैक्स के चुनाव 2013 में हुए थे। 2018 में पुनः होना चाहिए थे,लेकिन किसी न किसी वजह से टलते रहे। कब होंगे,इसका ठोस जवाब किसी के पास नहीं है।
अब कहा जा रहा है कि प्रदेश की शत-प्रतिशत पंचायतों में पैक्स का गठन होने के बाद ही नई मतदाता सूची तैयार होगी;उसके बाद ही चुनाव हो सकेंगे। तब तक प्रदेश के 4000 से अधिक पैक्स प्रशासक ही चलाएंगे।

उम्मीद ही की जा सकती है कि भारत सरकार की मंशा अनुसार प्रदेश की प्रत्येक ग्राम पंचायत में कंप्यूटरीकृत पैक्स तय समय सीमा में गठित होंगी, और निर्वाचित प्रतिनिधि सहकार के भाव के साथ इस आंदोलन को आगे बढ़ाएंगे।

*अरविन्द श्रीधर

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