स्वामी विवेकानंद, यह शब्द आते ही मनोमस्तिष्क में एक ऐसी महान विभूति का दृश्य चित्र तैरने लगता है,जो ज्ञान-विज्ञान, धर्म-अध्यात्म,त्याग, तप , साहस, शौर्य और पराक्रम के अजस्र स्त्रोत के रूप में ; भारत ही नहीं अपितु सम्पूर्ण विश्व में सर्वकालिक महान दार्शनिक और चिंतक के रूप में विद्यमान हैं। एक ऐसे युवा संन्यासी जिन्होंने मात्र 39 वर्षों के अपने अल्प जीवन में ही भारतीय ज्ञान परंपरा और संस्कृति की धरोहर से विश्व का साक्षात्कार कराया।
11 सितंबर 1893 को अमेरिका के शिकागो में विश्व धर्म सभा में अपना व्याख्यान प्रारंभ करते हुए जैसे ही उन्होंने ‘अमेरिका वासी बहनों और भाइयों’ कहा तो कुछ मिनटों तक वहां उपस्थित 7 हजार लोगों की तालियों की गड़गड़ाहट से आर्ट इन्स्टीट्यूट का सभागृह गुंजित होता रहा। फिर विश्व धर्मसभा के सबसे बड़े आकर्षण के केंद्र बनने से लेकर भारतीय ज्ञान-मेधा और हिन्दू धर्म के महान आर्ष सत्य के प्रखर संवाहक के तौर पर स्वामी विवेकानंद जग-प्रसिद्ध हुए। वह दिग्विजय की यात्रा भारत की महान सांस्कृतिक विरासत का प्रतिबिम्ब थी जो स्वामी विवेकानंद की ऋषि वाणी से अमेरिका में गूंजी।
इसी संदर्भ में विश्व धर्म महासभा में स्वामी जी के उद्बोधन का संक्षिप्तांश दृष्टव्य है — मैं एक ऐसे धर्म का अनुयायी होने में गर्व का अनुभव करता हूँ जिसने संसार को सहिष्णुता तथा स्वीकृति दोनों की ही शिक्षा दी है। हम लोग केवल सहिष्णुता में ही विश्वास नहीं करते, वरन समस्त धर्म सत्य मानते हैं | मुझे आप से कहने में गर्व है कि मैं ऐसे धर्म का अनुयायी हूँ जिसकी पवित्र भाषा संस्कृत में ‘exclusion’ शब्द अननुवाद्य है (जयध्वनि)। मुझे एक ऐसे देश का व्यक्ति होने का अभिमान है, जिसने इस पृथ्वी के समस्त धर्मों और देशों के उत्पीड़ितों और शरणार्थियों को आश्रय दिया है। मुझे आपको यह बतलाते हुए गर्व होता है कि जिस वर्ष यहूदियों का मन्दिर रोमन जाति के अत्याचार से धूल में मिला दिया गया था उसी वर्ष विशुद्धतम यहुदियों के एक अंश को जिसने दक्षिण भारत आकर उसी वर्ष शरण ली थी, अपने हृदय में स्थान दिया था। मैं उस धर्म का अनुयायी होने में गर्व अनुभव करता हूँ, जिसने महान ज़रथुष्ट्र जाति के अवशिष्ट अंश को शरण दी और जिसका पालन वह आज भी कर रहा है।”
स्वामी विवेकानंद ने केवल 30 वर्ष की अवस्था में ही विश्व के समक्ष भारत के ज्ञान की पताका फहराई थी। किंतु स्वामी विवेकानंद की निर्मित्ति के पीछे त्याग और तप की विराट शक्ति थी। जो उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस और गुरुमाता शारदा देवी के रूप में सदैव विद्यमान रही। लेकिन उस शक्ति की ग्राह्यता के लिए ‘विवेकानंद’ रुपी व्रतधारी का आदर्श जीवन चरित्र भी था। जो राष्ट्र-समाज,
धर्म-अध्यात्म को जहां एक ओर तर्क और विज्ञान की कसौटी पर रखता था तो दूसरी ओर असीम श्रद्धा के साथ महान हिन्दू पूर्वजों, धर्मग्रंथों, परम्पराओं के प्रति समर्पण का एकात्म भी प्रस्तुत करता था। एक ऐसा परिव्राजक संन्यासी जिसका क्षण-क्षण राष्ट्र और समाज के लिए समर्पित रहा। एक-एक विचार राष्ट्रीय जीवन को सशक्त -समृद्ध करने के लिए रहा। उन्होंने केवल कोरे उपदेश ही नहीं दिए बल्कि उसको साकार करने के लिए स्वयं को राष्ट्र की यज्ञ वेदी में समर्पित कर दिया। स्वामी विवेकानंद युवाओं के लिए सबसे बड़े आदर्श इसीलिए हैं क्योंकि उनके जीवन का एक-एक पक्ष, एक-एक विचार-अनंत ऊर्जा की विद्युतमय तरंगों से परिपूर्ण है। उनके विचार और दर्शन में तथ्य-तर्क, धर्म-कर्म, ज्ञान-विज्ञान सबका समावेश है। वे कहते हैं कि — “मनुष्य, केवल मनुष्य भर चाहिए। बाकी सब कुछ अपने आप हो जायगा। आवश्यकता है वीर्यवान, तेजस्वी, श्रद्धासंपन्न और दृढ़विश्वासी निष्कपट नवयुवकों की। ऐसे सौ मिल जायँ, तो संसार का कायाकल्प हो जाए।”
जब हम स्वयं के युवा होने का दावा करते हैं तो यह प्रश्न भी उठता है कि — क्या हम स्वामी जी के उन सौ युवाओं की अर्हता को पूरा करते हैं? इतना ही नहीं जब वे आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करते हैं तो हमें सर्वसामर्थ्यवान होने का बोध भी प्रदान करते हैं। स्वामी जी कहते हैं कि — “ आगे बढ़ो। हमें अनंत शक्ति, अनंत उत्साह, अनंत साहस तथा अनंत धैर्य चाहिए, तभी महान् कार्य संपन्न होगा। मेरे बच्चे, मैं जो चाहता हूँ वह है लोहे की नसें और फौलाद के स्नायु जिनके भीतर ऐसा मन वास करता हो, जो कि वज्र के समान पदार्थ का बना हो। बल, पुरुषार्थ, क्षात्रवीर्य और ब्रह्मतेज !”
स्वामीजी अपने कालखंड में समाज को संगठित करने के लिए युवाशक्ति में नव चैतन्यता भर रहे थे। साथ ही युवाओं को प्रशिक्षित करने के लिए वे आत्मोत्सर्ग की भावना से ओत-प्रोत रहते थे। इसीलिए उन्होंने उस समय जो कहा था वह आज भी उतना ही अधिक प्रासंगिक है — “मैं अच्छी तरह जानता हूँ, भारतमाता अपनी उन्नति के लिए अपने श्रेष्ठ संतानों की बलि चाहती है। संसार के वीरों को और सर्वश्रेष्ठों को ‘बहुजनहिताय, बहुजनसुखाय’ अपना बलिदान करना होगा। असीम दया और प्रेम से परिपूर्ण सैकड़ों बुद्धों की आवश्यकता है। पहले उनका जीवननिर्माण करना होगा, तब कहीं काम होगा। जो सच्चे हृदय से भारतीय कल्याण का व्रत ले सकें तथा उसे ही जो अपना एकमात्र कर्तव्य समझें – ऐसे युवकों के साथ कार्य करते रहो। उन्हें जागृत करो, संगठित करो तथा उनमें त्याग का मंत्र फूँक दो। भारतीय युवकों पर ही यह कार्य संपूर्ण रूप से निर्भर है। मैंने तो इन नवयुवकों का संगठन करने के लिए जन्म लिया है। यही क्या, प्रत्येक नगर में सैकड़ों और मेरे साथ सम्मिलित होने को तैयार हैं, और मैं चाहता हूँ कि इन्हें अप्रतिहत गतिशील तरंगों की भाँति भारत में सब ओर भेजूँ, जो दीन-हीनों एवं पददलितों के द्वार पर सुख, नैतिकता, धर्म और शिक्षा उड़ेल दें। और इसे मैं करूँगा, या मरूँगा।”
स्वामी विवेकानंद ने शिक्षा को अत्यंत सुंदर रूप में परिभाषित किया है। वे कहते हैं कि — “जो शिक्षा साधारण व्यक्ति को जीवन-संग्राम में समर्थ नहीं बना सकती, जो मनुष्य में चरित्र-बल, परहित-भावना तथा सिंह के समान साहस नहीं ला सकती, वह भी कोई शिक्षा है? जिस शिक्षा के द्वारा जीवन में अपने पैरों पर खड़ा हुआ जाता है, वही है शिक्षा।”
स्वामी विवेकानंद का अध्यात्म कोरा बुद्धिविलास नहीं अपितु सार्वभौम मानवता के उत्कर्ष के लिए निरंतर कर्मशील होने की अपेक्षा करता है।वह सच्चे अर्थों में भारतीयता के शाश्वत स्वरूप थे।
उनके महाप्रयाण दिवस 4 जुलाई के अवसर पर आईए, हम स्वामी विवेकानंद के आदर्शों को अपने जीवन में उतारें और उनके दिखाए मार्ग पर चलने का प्रयास करें। यही उस महामानव के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

~ कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल
( साहित्यकार, स्तम्भकार एवं पत्रकार)