प्रकृति हमसे ज़िम्मेदाराना व्यवहार की अपेक्षा रखती है…

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जिस तेजी से बड़े वृक्ष विलुप्त हो रहे हैं,आने वाली पीढ़ियां शायद उन्हें चित्रों में ही देख पाएं। ताज्जुब की बात तो यह है कि यह विनाश लीला विकास के नाम पर खेली जा रही है। शहरीकरण के प्रतिफल स्वरूप दिनों-दिन फैल रहे कंक्रीट के जंगल और विकास के नाम पर बुने जा रहे 6 लेन-8 लेन सड़कों के संजाल की नींव में न जाने कितने वृक्ष दफ्न हो चुके हैं।
ऐसा लगता तो नहीं है कि विकास के नाम पर अब तक काटे गए वृक्षों की संख्या से संबंधित आंकड़े रखे गए होंगे,लेकिन यदि ऐसा किया जाता तो आंकड़े सुनकर रूह ज़रूर कांपती।

ऐसा नहीं है कि काटे गए वृक्षों की भरपाई के लिए परियोजनाओं में कोई प्रावधान नहीं रखा जाता। बिल्कुल रखा जाता है, बल्कि काटे गए वृक्षों से दो- तीन गुना अधिक पौधे रोपने का प्रावधान रखा जाता है। उन्हें सुरक्षित रखने की शर्त भी निर्माण एजेंसी के साथ रखी जाती है। लेकिन जिस तौर-तरीके से पौधारोपण किया जाता है,वह न केवल हास्यास्पद है, बल्कि पर्यावरण संरक्षण को लेकर हमारी समझ पर प्रश्नचिन्ह भी खड़े करता है।
हम सब ने देखा है कि कटते हैं आम,इमली,पीपल,
बरगद और नीम जैसे विशाल वृक्ष,और अधिकांश मामलों में उनकी जगह रोपे जाते हैं बोगनवेलिया,
कनेर और अन्य सजावटी पौधे। यह एक सामान्य चलन है।
रोपे गए सजावटी पौधों के आंकड़ों से फायलें तो संतुष्ट हो सकती हैं, कॉश प्रकृति भी हो पाती!

वृक्षों की कटाई का ठीकरा केवल विकास के सिर पर नहीं फोड़ा जा सकता। न जाने कितनी अमराइयां और बाग-बगीचे मनुष्य के लालच की भेंट भी चढ़े हैं। याद करिए अपने बचपन का गांव। क्या अमराई की जगह खेतों ने नहीं ले ली है?

दरअसल इस मामले में जितना दोष विकास एजेंसियों का है,उससे कहीं अधिक दोषी हमारा समाज है जो इस विनाशलीला का मूकदर्शक बना रहता है ; और जिसकी नजर में पर्यावरण संरक्षण की जिम्मेदारी या तो सरकार की है या यह मुद्दा गोष्ठियों में बौद्धिक जुगाली के लिए है।

कैसा विरोधाभास है कि एक ओर तो हम वृक्षों,नदियों और पहाड़ों तक में देवत्व की कल्पना करते हुए उनकी पूजा करते हैं और दूसरी ओर उनका अंधाधुंध दोहन भी पूरी निर्लज्यता के साथ करते हैं। एक ओर तो गोष्ठियों में ग्लोबल वार्मिंग के प्रति चिंता व्यक्त करते हैं और दूसरी ओर कटते हुए पेड़ों को देखकर आंखें मूंद लेते हैं।

प्रकृति संरक्षण के प्रति आपराधिक अनदेखी की यह प्रवृत्ति विगत कुछ वर्षों में तेजी से पनपी है। जब तक यह प्रवृत्ति कायम रहेगी, समस्या का स्थाई समाधान संभव नहीं है।

फिलहाल तो सबसे बड़ी समस्या ही यही है कि दिनों-दिन बिगड़ते प्राकृतिक संतुलन को लोग कब अपनी व्यक्तिगत समस्या समझेंगे?

कुछ वर्ष पहले मध्य प्रदेश ने एक दिन में सर्वाधिक पौधे रोपित किए जाने का विश्व रिकॉर्ड बनाया था। पौधारोपण के प्रति जागरूकता पैदा करने के लिए इस तरह के इवेंट एक दिन की सुर्खियां तो बन सकते हैं, लेकिन इसे व्यवहार में लाए जाने के लिए दीर्घकालीन नीतियों की आवश्यकता है।

बढ़ती हुई आबादी के लिए आवास भी चाहिए और आवागमन के लिए सुविधाजनक सड़कें भी। कल- कारखाने भी चाहिए और नदियों पर बड़े-बड़े बांध भी। और यह सब होगा तो जद में आने वाले पेड़ों की बलि भी होगी ; लेकिन उसकी भरपाई उतनी भी मुश्किल नहीं है जितनी निहित स्वार्थों के चलते बना दी गई है।

एक तो हर व्यक्ति को यह सोचना होगा कि पर्यावरण संरक्षण का काम सरकार से ज्यादा उनका अपना है ; और दूसरा, जिम्मेदार शासकीय एजेंसियों को ईमानदारी के साथ अपने उन कर्तव्यों का निर्वहन करना होगा जिसके लिए उनको तनख्वाह मिलती है।
उन्हें इस बात पर भी मंथन करना होगा कि क्या 100-150 वर्ष पुराने इमली,पीपल और बरगद के वृक्षों की कटाई से हुए नुकसान की भरपाई कनेर और बोगनबेलिया की झाड़ियां कर सकती हैं?

पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में शासकीय अमला एक और महत्वपूर्ण योगदान दे सकता है। माना कि राजनीतिक हस्तक्षेप हमारे देश की बहुत बड़ी समस्या है,लेकिन नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल के आदेशों का पालन तो बाध्यकारी है। सरकारी अमला यदि एन.जी.टी. के आदेशों का पालन ही करवा सके, तो हालात बहुत कुछ सुधर सकते हैं।

वर्षा ऋतु प्रारंभ होते ही एक बार फिर पौधारोपण की लहर चल पड़ी है। हो सकता है फिर कोई नया विश्व रिकॉर्ड बने, लेकिन पृथ्वी हमसे जिम्मेदाराना व्यवहार की अपेक्षा रखती है।
प्रकृति हमसे यह भी अपेक्षा रखती है कि हम उसकी पूजा भले ही ना करें; उसका दोहन करते समय कम से कम संयम तो बरतें।

*अरविन्द श्रीधर

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