जब 11 जुलाई 2025 को पूरी दुनिया विश्व जनसंख्या दिवस मना रही है, तब भारत एक ऐतहासिक मोड़ पर खड़ा है। यह दिन केवल एक प्रतीकात्मक अवसर नहीं, बल्कि देश और विश्व के भविष्य की दिशा तय करने का एक संवेदनशील क्षण है। यह हमें एक ऐसे दौर की ओर ले जा रहा है जहाँ नीतियों, योजनाओं, जनभागीदारी और सामाजिक चेतना के समुचित समावेश के बिना आगे बढ़ना संभव नहीं है।
भारत अब न केवल विश्व की सबसे अधिक जनसंख्या वाला देश बन चुका है, बल्कि वह जनसंख्या संरचना और सामाजिक जटिलताओं के नए अध्याय में भी प्रवेश कर चुका है। अनुमानतः 1.46 अरब की आबादी के साथ, भारत ने चीन को पीछे छोड़ दिया है। यह उपलब्धि नहीं, बल्कि जिम्मेदारी है — एक ऐसा अवसर जिसमें नीति निधार्रण, संसाधनों का न्यायसंगत
वितरण, सामाजिक सुरक्षा,और मानव विकास को प्राथिमकता देनी होगी।
संयुक्त राष्ट्र द्वारा इस वर्ष की थीम – “जन अधिकारों और विकल्पों के माध्यम से जनसंख्या को सशक्त बनाना” – भारत के
लिए अत्यंत प्रासंगिक है। जब हम ‘सशक्तिकरण’ की बात करते हैं, तो उसमें केवल शिक्षा या रोजगार शामिल नहीं होते,बल्कि उसमें स्वास्थ्य, लिंग समानता, जीवन की गुणवत्ता, और निर्णय लेने की स्वतंत्रता भी शामिल होती है।
यह समझना अत्यावश्यक है कि जनसंख्या केवल एक आंकड़ा नहीं है, यह एक जीवंत समाज का प्रतिबिंब है। यह भारत के गाँवों, कस्बों, नगरों और महानगरों में बसने वाले करोड़ों सपनों की साझी अभिव्यक्ति है। जब हम कहते हैं कि भारत की औसत आयु मात्र 29 वर्ष है,और 68% जनसंख्या कायर्शील आयु वर्ग में है, तो हम यह भी कह रहे हैं कि हमारे पास दुनिया का सबसे बड़ा युवा बल है।
यह डेमोग्राफिक डिविडेंड एक वरदान है, लेकिन यह तभी फलदायी होगा जब हम इसे सुनियोजित और समिन्वत रणनीतियों के माध्यम से विकसित करें। इतिहास गवाह है कि जापान, दक्षिण कोरिया और चीन ने इसी अवसर का उपयोग कर अपने देश की आर्थिक वृद्धि को तीव्र गति दी है। लेकिन यह भी सच है कि कई देश इस अवसर को चूक भी गए — और उनके सामने बेरोजगारी, सामाजिक असंतोष और वृद्ध आबादी की चुनौतियां खड़ी हो गईं।
भारत की कुल प्रजनन दर अब 1.9 तक पहुँच चुकी है, जो प्रतिस्थापन स्तर 2.1 से नीचे है। यह आँकड़ा पहली दृष्टि में जनसंख्या नियंत्रण की दिशा में एक उपलब्धि प्रतीत होती है, परंतु इससे एक नई चुनौती भी उत्पन्न होती है: डेमोग्राफिक
डिवडेंड की सीमित समयसीमा। विशेषज्ञों के अनुसार यह अवसर 2041 तक चरम पर रहेगा और 2055 तक समाप्त हो जाएगा।
इन दो दशकों में भारत को यह तय करना है कि वह अपनी विशाल जनसंख्या को संभावनाओं की खान बनाता है या समस्याओं का बोझ। इसके लिए आवश्यक है कि हम शिक्षा, स्वास्थ्य, पोषण, कौशल विकास, रोजगार, नवाचार, और सामाजिक समावेशन के क्षेत्रों में क्रान्तिकारी सोच और कायार्न्वयन की दिशा में आगे बढ़ें।
जनसंख्या के विषय में बात करते समय अक्सर हम संख्याओं में उलझ जाते हैं – कितने लोग हैं, कितनी वृद्धि हो रही है,कितनी जनसंख्या शहरी है और कितनी ग्रामीण। परंतु ये आँकड़े तभी अथर्पूर्ण बनते हैं जब उनके पीछे की कहानियों को समझा जाए — उन युवाओं की जो रोजगार की तलाश में घर छोड़ देते हैं, उन मिहलाओं की जो असमानता से लड़ती हैं, उन बच्चों की जो कुपोषण के कारण जीवन की दौड़ में पीछे रह जाते हैं, और उन बुजुर्गो की जो स्वास्थ्य सेवाओं की अनुपलब्धता से उपेक्षित हो जाते हैं।
इस लेख का उद्देश्य यह नहीं है कि हम केवल आँकड़ों का विश्लेषण करें, बल्कि यह कि हम उन मानवीय पहलुओं की पहचान करें, जो इन आँकड़ों के पीछे छिपे हैं। यही वह दृष्टिकोण है जिससे हम एक नीतिगत, भावनात्मक और मानवीय दृष्टिकोण से विश्व जनसंख्या दिवस को सार्थक बना सकते हैं।
अब समय आ गया है कि हम यह स्वीकार करें कि हमारी जनसंख्या एक चुनौती नहीं, बल्कि एक प्रेरणा है — एक आह्वान है कि हम इस विशाल जनसागर को शिक्षा, स्वास्थ्य, अवसर और आत्मिवश्वास से लैस करें। यही हमारे लिए एक स्वर्णिम अवसर होगा और यही भारत के भविष्य को निर्धारित करेगा।

*माहे आलम,
(लेखक, माई भारत,युवा कायर्क्रम एवं खेल मंत्रालय,भारत सरकार में उपनिदेशक के पद पर कार्यरत हैं। लेख में व्यक्त विचार उनके व्यक्तिगत हैं।)