श्रावण मास शिवजी को अत्यंत प्रिय है।आईए, इस पुण्य मास में द्वादश ज्योतिर्लिंगों की मानसिक यात्रा करें।
लिंग कहते हैं चिन्ह को -आकृतिर्जातिलिंग्ख्या। शिवपुराण में बताया गया है कि सबसे पहला लिंग ज्योतिस्तंभस्वरूप है ; जो प्रणव(ॐ) है। यह सूक्ष्म लिंग प्रणवरूप तथा निष्कल है। स्थूल लिंग संपूर्ण ब्रह्मांड है।
सर्व लिंगमयी भूमि: सर्वं लिंगमयं जगत्।
लिंगयुक्तानि तीर्थानि सर्वं लिंगे प्रतिष्ठत्तम्।।
यह समस्त पृथ्वी लिंगमय है और सारा जगत लिंगमय है।सभी तीर्थ लिंगमय हैं ।सारा प्रपंच लिंग में ही प्रतिष्ठित है।
यद्यपि पृथ्वी के समस्त शिवलिंगों की गणना तो नहीं की जा सकती, पर उनमें द्वादश ज्योतिर्लिंग प्रधान हैं-
सौराष्ट्रे सोमनाथं च श्रीशैले मल्लिकार्जुनम्।
उज्जैयिन्यां महाकालमोंकारे परमेश्वरम्।।
केदारं हिमवत्पृष्ठे डाकिन्यां भीमशंकरम्।
वाराणस्यां च विश्वेशं त्रयंबकं गौतमी तटे।।
वैद्यनाथं चिताभूमौ नागेशं दारूकावने।
सेतुबन्धे च रामेशं घुश्मेशं च शिवालये।
द्वादशैतानि नामानि प्रातरुत्थाय य: पठेत्।
सर्व पापविनिर्मुक्त: सर्वसिद्धि फलं लभेत्।।
(शिवपुराण कोटिरूद्रसंहिता)
सौराष्ट्र में सोमनाथ, श्रीशैल पर मल्लिकार्जुन,
उज्जयिनी में महाकाल,ओंकार तीर्थ में परमेश्वर,हिमालय के शिखर पर केदार, डाकिनी क्षेत्र में भीमाशंकर,वाराणसी में विश्वनाथ,गोदावरी के तट पर त्रयंबक,चिताभूमि में बैद्यनाथ,दारूकावन में नागेश, सेतुबंध में रामेश्वर तथा शिवालय में घुश्मेश्वर का स्मरण करना चाहिए।
जो प्रतिदिन प्रात:काल उठकर इन बारह नामों का पाठ करता है,उसके सभी पाप छूट जाते हैं और उसे संपूर्ण सिद्धियों का फल प्राप्त होता है।
1 – श्रीसोमनाथ
सौराष्ट्र देशे विशदेऽतिरम्ये ज्योतिर्मयं चंद्रकलावतंसम्।
भक्तिप्रदानाय कृपावतीर्णं तं सोमनाथं शरणं प्रपद्ये।।
जो अपनी भक्ति प्रदान करने के लिए अत्यंत रमणीय तथा निर्मल गुजरात प्रदेश सौराष्ट्र में दया पूर्वक अवतीर्ण हुए हैं ; चंद्रमा जिनके मस्तक का आभूषण है ; उन ज्योतिर्लिंगस्वरूप भगवान श्री सोमनाथ की मैं शरण ग्रहण करता हूं।
जो परमतत्व आदि-अंतरहित,असीम,अगोचर,अजन्मा और सर्वव्यापक है, उसे ही शिव कहते हैं। उसका स्वरूप परम ज्योतिर्मय है और उससे ही इस संपूर्ण सृष्टि का उद्धव और विकास होता है, तथा उसी में सबका विलय होता है।
शिव पुराण कोटिरूद्रसंहिता के अनुसार भूतभावन भगवान शंकर प्राणियों के कल्याणार्थ तीर्थ-तीर्थ में लिंगरूप से वास करते हैं।
यद्यपि इस धराधाम पर असंख्य शिवलिंग हैं, फिर भी इनमें द्वादश ज्योतिर्लिंग सर्व प्रधान हैं ।श्रीसोमनाथ को इस धराधाम का आदि ज्योतिर्लिंग होने का गौरव प्राप्त है।
यह जगत्प्रसिद्ध आदि ज्योतिर्लिंग गुजरात प्रदेश के सौराष्ट्र में विद्यमान है। यह स्थान लकुलीश-पाशुपत मतके शैवों का केंद्रस्थल भी रहा है। इसी क्षेत्र में लीला पुरुषोत्तम भगवान श्री कृष्ण के संकल्प से यदुवंश का संहार हुआ था,तथा यहीं पर उन्होंने जरा नामक ब्याध के वाण के द्वारा अपने पादपद्मों के विद्ध हो जाने पर अपनी नरलीला का संवरण किया था। इस प्रकार प्रभास का यह पवित्र क्षेत्र ऋषियों के श्राप से यदुवंश के विनाश का प्रत्यक्ष साक्षी भी रहा है।
भारतीय उपमहाद्वीप के पश्चिम में अरब सागर के तट पर स्थित आदिज्योतिर्लिंग भगवान श्रीसोमनाथ के मंदिर की अनुपम छटा आदिकाल से ही तीर्थयात्रियों के आकर्षण का कारण रही है। भारत की इस प्राचीन तीर्थस्थली की दिव्य महिमा का वर्णन ऋग्वेद,
श्रीमद्भागवत,शिव पुराण,स्कंद पुराण आदि प्राचीन धर्म ग्रंथो में सुलभ है।
ऐसी मान्यता है की सोमनाथ ज्योतिर्लिंग का आविर्भाव पृथ्वी की उत्पत्ति के साथ ही हुआ है। पुराण की एक विशेष कथा के अनुसार भगवान ब्रह्मा ने भूमि खोदकर प्रभास क्षेत्र में मुर्गी के अंडे के बराबर स्वयंभू ज्योतिर्लिंग श्री सोमनाथ के दर्शन किए। उस लिंग को दर्भ और मधु से आच्छादित करके ब्रह्मा ने उस पर ब्रह्मशिला रख दी और उसके ऊपर श्रीसोमनाथ के बृहद्लिंग की प्रतिष्ठा की। चंद्रमा ने उस वृहद्लिंग का अर्चन किया।
सन 1225 में भावबृहस्पति के द्वारा लिखी गई श्रीसोमनाथ की प्रशस्ति के अनुसार भगवान श्री सोमनाथ का प्रथम मंदिर सोम(चंद्रमा)के द्वारा बनवाया गया था। दूसरे युग में लंकाधिपति राक्षसराज रावण ने इसका निर्माण चांदी के द्वारा कराया। भगवान श्रीकृष्ण के काल में इसका निर्माण काष्ठ के द्वारा हुआ और भीमदेव सोलंकी ने इसे शिला का बनवाया। अंत में राजा कुमारपाल के काल में इस मंदिर को श्रीसोमनाथ के तत्कालीन महाधिपति भावबृहस्पति के द्वारा विशेष भव्य रूप में निर्माण कराया गया।
शिव पुराण में श्री सोमनाथ के आविर्भाव का इतिहास दक्ष और चंद्रमा के मनोमालिन्य की कथा और दक्ष के द्वारा चंद्रमा को दिए गए श्राप से संबद्ध है। कथा आती है कि चंद्रमा के असद्व्यवहार से अप्रसन्न होकर दक्ष ने उन्हें क्षय रोग होने का शाप दे दिया। इससे चंद्रमा का दिव्य सौंदर्य तो क्षीण हुआ ही, चराचर जगत भी संतप्त हो गया। शाप से मुक्त होने के लिए ब्रह्मा जी के परामर्श से चंद्रमा ने प्रभास क्षेत्र में जाकर शिवजी की कठोर तपस्या की। महेश्वर को प्रसन्न किया और शाप से मुक्ति पाई।
भगवान शिव की कृपा प्राप्त करके कलाहीन चन्द्र पुनः कलाधर हो गए। चंद्रमा की प्रार्थना स्वीकार करके भगवान शिव भवानी सहित ज्योतिर्लिंग के रूप में सदा के लिए प्रभास क्षेत्र में स्थित हो गए। निराकार शिव का साकार लिंग श्रीसोमेश्वर या श्रीसोमनाथ ज्योतिर्लिंग के रूप में तभी से प्रसिद्ध हुआ।
(विस्तार से कथा पढ़ने के लिए शिवपुराण,कोटिरूद्र संहिता का अध्ययन करना चाहिए। गीता प्रेस गोरखपुर द्वारा प्रकाशित
पुस्तक ‘द्वादश ज्योतिर्लिंग’ में भी पौराणिक महत्व के साथ-साथ ऐतिहासिक तथ्यों का विस्तृत विवरण दिया गया है।)
भगवान श्रीसोमनाथ का मंदिर अपने चतुर्दिक यश समृद्धि एवं अद्भुत शिल्पकला के कारण सदा से ही विश्व विख्यात रहा है। यही कारण है कि विधर्मी लुटेरों द्वारा इसे बार-बार लूट और ध्वंस का शिकार होना पड़ा, परंतु श्रीसोमनाथ आदिदेव भगवान शिव का यह दिव्य देवालय अपने श्रद्धालुओं की असीम श्रद्धा से अनेक उत्थान-पतन के इतिहास का साक्षी होते हुए, बार-बार दिव्यता की पराकाष्ठा पर पहुंचता रहा।
वर्तमान मंदिर के निर्माण में लोह पुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल का अविश्ववरणीय योगदान रहा है।
प्रभास क्षेत्र शैव एवं वैष्णव दोनों का ही महातीर्थ है। इसके अंतर्गत आदि ज्योतिर्लिंग श्रीसोमनाथ के अलावा अग्निकुंड, अहिल्याबाई का मंदिर, प्राची त्रिवेणी, यादव स्थल,वाणतीर्थ आदि स्थित हैं।
प्रभास क्षेत्र से कुछ ही दूरी पर गोरखमढी, प्राची, मूलद्वारका,सूत्रपाड़ा छेला सोमनाथ आदि तीर्थ भी हैं।
सोमनाथ से लगभग 200 किलोमीटर की दूरी पर प्रमुख तीर्थ श्रीकृष्ण द्वारका है।
सोमनाथ तीर्थ रेल एवं सड़क मार्ग से जुड़ा हुआ है। केशोड एवं दिउ नजदीकी हवाई अड्डे हैं।
(गीता प्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘द्वादश ज्योतिर्लिंग’ से साभार)