अनादि नगरी अवंतिका अपने स्वभाव से ही उत्सव प्रिय है। सनातन परंपरा में जिन सप्तपुरियों को अनादि तीर्थ माना गया है, अवंतिका उनमें से एक है। देवताओं को प्रिय इस धर्म नगरी में अनवरत उत्सव चलते रहते हैं जो इस तीर्थ नगरी को सांस्कृतिक राजधानी जैसी प्रतिष्ठा प्रदान करते हैं।
उज्जयिनी के उत्सव केवल धार्मिक आयोजन भर नहीं अपितु यहां की प्राचीन समृद्ध संस्कृति के जीवंत प्रतीक भी हैं। इन उत्सवों में समन्वय की अनूठी मिठास घुली हुई है, इसीलिए यहां के उत्सव किसी एक वर्ग-संप्रदाय के न होकर समग्र सनातन परंपराओं का प्रतिनिधित्व करते हैं।
श्रावण एवं भाद्रपद मास में निकलने वाली महाकाल की सवारी ऐसा ही एक अनूठा लोकोत्सव है।
अवंतिका(उज्जैन)में भूतभावन भगवान महाकाल की मान्यता राजाधिराज के रूप में है और उन्हें अवंतिका का अधिपति माना जाता है – अवंतिकानाथ।

सवारी के संबध में लोक मान्यता है कि अवंतिकानाथ बाबा महाकाल महाराज अपनी प्रजा का हाल जानने के लिए पूरे लाव लश्कर के साथ भ्रमण पर निकलते हैं। वैसे तो भोलेनाथ भभूतप्रिय हैं लेकिन सवारी के दौरान उनकी सज-धज राजाधिराज की तरह ही होती हैं।
राजा द्वारा प्रजा के बीच में जाकर उनका हाल-चाल जानने की प्रथा हमारे देश की प्राचीन लोकतांत्रिक मूल्यों की प्रतीक है। यह परंपरा इस तथ्य की भी द्योतक है कि हमारे देश में शासन पद्धति कोई भी रही हो,शासक और शासित के बीच सीधे संवाद का लोकतांत्रिक भाव हमारे समाज में अत्यंत प्राचीन काल से ही विद्यमान है।
सवारी इस बात की प्रतीक भी है, कि यदि शासक, प्रजा के सुख -दुख में उसके साथ खड़ा हो,तो प्रजा भी शासक के सम्मान में पलक पांवड़े विछाने के लिए तत्पर रहती है।

लगभग 200 वर्ष पूर्व जब सवारी निकालने की प्रथा प्रारंभ हुई तब उज्जैन में सिंधियाओं का शासन था।
सिंधिया स्टेट की ओर से बाकायदा आदेश निकाला जाता था कि स्टेट के सभी कर्मचारी एवं अधिकारी अपनी परंपरागत वेशभूषा में सवारी में सम्मिलित हों।
सवारी की सज-धज एवं सवारी में सम्मिलित होने वाले विभिन्न मुघौटों (स्वरूप) में मराठा पगड़ी एवं परिधान की झलक आज भी स्पष्टतः दिखाई देती हैं।
अपने प्रारंभिक काल में सवारी में अपेक्षाकृत कम लोग शामिल होते थे और सवारी का मार्ग भी छोटा था। सवारी महाकाल मंदिर से प्रारंभ होकर तत्कालीन नगर के केन्द्र बिन्दु गोपाल मंदिर तक आकर वापिस महाकाल मंदिर लौट जाती थी।
धीरे-धीरे यह धार्मिक आयोजन लोकप्रिय होता गया और एक लोकोत्सव के रूप में प्रतिष्ठित हो गया। आज महाकाल की सवारी देश-देशान्तर में भव्य उत्सव के रूप में प्रसिद्ध है।
प्रारंभ में जहां सीमित संख्या में लोग सवारी में शामिल होते थे,आज श्रृद्धालुओं की संख्या लाखों में पहुंच गई है। शाही या राजसी सवारी के दिन तो जैसे जन सैलाब उमड़ पड़ता है। सवारी मार्ग के दोनों ओर, हर दिशा में,छज्जों और छतों पर पालकी के दर्शन के लिए आतुर जनसैलाब ही दिखाई देता है।
सिंधिया स्टेट के समय स्टेट के सैनिक राजाधिराज को सलामी देते थे। अब यह दायित्व मध्य प्रदेश पुलिस के सशस्त्र जवान निभाते हैं। घुड़सवार सशस्त्र जवानों का दल मार्च पास्ट करते हुए सवारी के आगे-आगे चलता है।
प्रशासन के वरिष्ठ अधिकारी एवं जनप्रतिनिधि पालकी को अपने कंधों पर उठाना अपना सौभाग्य समझते हैं; वैसे यह सौभाग्य उन कहार परिवारों को प्राप्त है,जो वंश परंपरा से महाकाल की पालकी उठाने का काम करते आ रहे हैं।
मध्य प्रदेश पुलिस का रस्सा दल पालकी के आसपास मजबूत घेरा बनाकर चलता है।

सवारी के आगे-आगे चलने वाले चोबदार पालकी आने की उद्घोषणा करते चलते हैं। कड़ावीन के धमाके दर्शनार्थियों के रूप में सवारी मार्ग पर खड़ी प्रजा को सावधान करते हैं कि अवंतिकानाथ पधार रहे हैं।
ढोल,तासे एवं बैंड अपने नाद से सवारी मार्ग को गुंजायमान करते हुए आगे आगे चलते हैं। भजन मंडलियां भोलेनाथ की महिमा का गान करते हुए चलती हैं।अखाड़ों के युवा करतब दिखाते हुए अपनी कला कौशल का प्रदर्शन करते हैं,तो कुछ भक्त शिव के विभिन्न गणों का स्वांग रचकर सवारी की भव्यता में और भी वृद्धि कर देते हैं।
विगत कुछ वर्षों में डमरू वादकों का दल भी आकर्षण का केंद्र बन गया है।
प्रत्येक सोमवार को झांकियों एवं स्वरूपों की संख्या बढ़ती जाती है। प्रथम सवारी में पालकी में मनमहेश, द्वितीय सवारी में पालकी में श्री चंद्रमौलेश्वर और हाथी पर श्री मनमहेश,तृतीय सवारी में पालकी में श्री चंद्रमौलेश्वर,हाथी पर श्री मनमहेश और गरुड़ पर श्री शिव तांडव, चतुर्थ सवारी में पालकी में श्री चंद्रमलेश्वर, हाथी पर श्री मनमहेश,गरुड़ रथ पर श्री शिवतांडव और नंदी रथ पर श्री उमामहेश,पांचवी सवारी में पालकी में श्री चंद्रमौलेश्वर,हाथी पर श्री मनमहेश,गरुड़ रथ पर श्री शिव तांडव,नंदी रथ पर श्री उमामहेश और रथ पर होलकर स्टेट, तथा राजसी
सवारी में पालकी में श्री चंद्रमौलेश्वर, हाथी पर श्री मन महेश,गरुड़ रथ पर श्री शिव तांडव,नंदी रथ पर श्री उमा महेश,रथ पर श्री होलकर स्टेट और रथ पर श्री सप्तधान्य मुखारविंद के रूप में भगवान विराजमान होते हैं।

शिप्रा तट पर जब सवारी पहुंचती है तो तट के दोनों ओर का दृश्य अद्भुत होता है। हजारों नर नारी अंवतिका नाथ की एक झलक पाने के लिए तट के दोनों ओर जिसे जहां स्थान मिले वहां खडे़ रहते हैं।
पालकी के नगर भ्रमण का समय निश्चित है। महाकाल मंदिर सभा मंडप में विधिवत पूजा-अर्चना के बाद शाम 4 बजे सवारी प्रारंभ होती है जो महाकाल चौराहा ,गुदरी चौराहा, बक्षी बाजार, कहारवाड़ी से होती हुई शाम 5:00 बजे रामघाट पहुंचती है। यहां शिप्रा के जल से भगवान का अभिषेक और पूजन अर्चन किया जाता है।वापसी में सवारी रामानुज कोट, मोड़ की धर्मशाला, कार्तिक चौक,खाती मंदिर, सत्यनारायण मंदिर, ढाबा रोड,टंकी चौराहा,छत्री चौक,गोपाल मंदिर,पटनी बाजार और गुदरी चौराहे से होती हुई मंदिर पहुंचती है।
व्यापक प्रचार- प्रसार के चलते इस लोक उत्सव की लोकप्रियता देश की सीमाओं को लांघकर विदेशों तक जा पहुंची है। हजारों विदेशी नागरिक भी इस अनूठे लोकोत्सव का साक्षी बनने के लिए उज्जैन आते हैं।
महाकाल सवारी की भव्यता,लोकप्रियता एवं प्रतिष्ठा भी अब वैसी ही होती जा रही है,जैसी जगन्नाथ पुरी में प्रतिवर्ष होने वाली रथ यात्रा की है।
श्रद्धालुओं के लिए तो महाकाल सवारी का अपना आकर्षण है ही, मध्य प्रदेश सरकार नवाचारों के माध्यम से इसे पर्यटकों के लिए भी आकर्षक बना रही है। पहली बार हर सवारी के लिए अलग-अलग थीम निर्धारित की गई हैं। परंपरागत भजन मंडलियों के अलावा प्रदेश के जनजातीय लोक कलाकारों के दल भी अब सवारी में शामिल होते हैं। कहा जा सकता है कि सवारी अब सिर्फ मालवी लोक संस्कृति की नहीं, पूरे प्रदेश की जनजातीय लोक कलाओं की समन्वित झांकी बन गई है।
मासपर्यंत चलने वाले श्रावण महोत्सव का स्वरूप भी अखिल भारतीय स्तर का हो गया है। देश के नामी कलाकार श्रावण महोत्सव में प्रस्तुति देना अपना सौभाग्य समझते हैं।

इस वर्ष चार सवारी सावन माह में (14 जुलाई, 21 जुलाई, 28 जुलाई और 4 अगस्त 2025) और दो सवारी भादों माह में (11 और 18 अगस्त 2025) निकाली जाएंगी।
यदि अब तक आपने महाकाल सवारी के दर्शन नहीं किए हैं तो यकीन मानिए आप एक ऐसे दिव्य अनुभव से वंचित हैं,जो महाकाल की नगरी उज्जैन में प्रतिवर्ष कम से कम छह बार साकार होता है।
*अरविन्द श्रीधर