निर्वाचन आयोग की निष्पक्षता पर छाई धुंध हटना चाहिए…

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सामान्यतः निर्वाचन आयोग पर लगे आक्षेपों को हारे हुए राजनीतिक दलों का प्रलाप माना जाता है।लगभग हर चुनाव के समय यह होता है,और हर राजनीतिक दल यह करता रहा है। यह घटनाक्रम इतना सामान्य हो गया है कि कई बार गंभीर आक्षेप भी इसकी धुंध में गुम हो जाते हैं।

सबसे अधिक आक्षेप लगाए जाते हैं इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन(ईवीएम)पर जो कअपने प्रारंभिक काल से ही यह सबके निशाने पर रही है। अपनी- अपनी सुविधानुसार हर राजनीतिक दल ने इसके समर्थन और विरोध में आवाज़ उठाई है।

2009 के लोकसभा चुनाव में पहली बार ईवीएम मशीन पर सवाल खड़े किए गए थे।अनेक बड़े नेताओं ने ईवीएम के जरिए चुनावी धांधली के आरोप लगाए थे।
जीवीएल नरसिम्हा राव ने तो बाकायदा एक किताब ही लिखी थी – ‘डेमोक्रेसी एट रिस्क ! कैन वी ट्रस्ट अवर इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन?’

2017 में एक बार फिर 13 राजनीतिक दलों ने ईवीएम पर सवाल उठाए, लेकिन इसे लेकर उठाई जा रही शंकाओं के समर्थन में उनके द्वारा कोई ठोस तथ्य प्रस्तुत नहीं किए गए। वही अपुष्ट कहानियां दोहराई गईं, जो पहले से ही प्रचलित थीं और जिनके बारे में निर्वाचन आयोग स्पष्टीकरण दे चुका था।

ईवीएम पर बार-बार उठ रही उंगलियों से छुटकारा पाने के लिए चुनाव आयोग ने 2017 में एक महत्वपूर्ण पहल की। उसने राजनीतिक दलों को बाकायदा चुनौती दी कि किसी भी राजनीतिक दल का विशेषज्ञ अथवा टेक्नीशियन आयोग के समक्ष ईवीएम को हैक करके दिखाए। सिर्फ दो दल सामने आए और उन्होंने भी कुछ किया धरा नहीं। केवल आयोग में हाजिरी बजाकर वापस आ गए। बाकी दलों ने इस पहल को चुनाव आयोग का छलावा बताकर किनारा कर लिया। लेकिन ईवीएम के जरिए चुनावों को प्रभावित करने के आरोप-प्रत्यारोप बदस्तूर जारी रहे।

इतना ही नहीं, कुछ लोगों ने ईवीएम हैकिंग का सार्वजनिक प्रदर्शन कर इसकी खामियां उजागर करने का प्रयास किया।सनसनी तो फैली लेकिन प्रदर्शन को विश्वसनीय नहीं माना गया। जानकारों का कहना था कि जिस मशीन के माध्यम से हैकिंग का प्रदर्शन किया गया था,वह निर्वाचन आयोग द्वारा प्रयोग में लाई जाने वाली मशीन नहीं थी।

बीच-बीच में ऐसी घटनाएं जरूर सामने आईं जब माॅक पोल के दौरान ईवीएम मशीनों में खराबी की वजह से उन्हें बदला गया। लेकिन यह एक सामान्य प्रक्रिया है,जो राजनीतिक दलों के एजेंटों के समक्ष की जाती है।
यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि ईवीएम ही नहीं,कोई भी मशीन खराब हो सकती है।

जो लोग चुनाव प्रक्रिया से जुड़े रहे हैं वह भली भांति जानते हैं कि ईवीएम के जिला मुख्यालय स्थित स्ट्रांग रूम में पहुंचने से लेकर मतगणना होने तक की प्रक्रिया के प्रत्येक चरण को न केवल चुनाव आयोग के अधिकारियों की कड़ी निगरानी में अंजाम दिया जाता है,बल्कि राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों की उपस्थिति में ही पूरी कार्यवाही संपन्न होती है।

ईवीएम की पारदर्शिका को सुनिश्चित करने के उद्देश्य से निर्वाचन आयोग द्वारा एक और कदम उठाया गया है। ईवीएम मशीन के साथ वोटर वेरीफाइड पेपर ऑडिट ट्रेल (VVPAT) सिस्टम को जोड़ा गया है,जिसके जरिए मतदाता को यह पता चलता है कि जिस कैंडिडेट के लिए उसने बटन दबाई है वोट उसे ही गया है।
2014 के आम चुनाव में यह व्यवस्था प्रयोग के तौर पर आठ लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र में आज़माई गई थी, और 2019 के आम चुनाव में इसे देश के सभी 543 लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र में लागू कर दिया गया।

ऐसा नहीं है की ईवीएम की विश्वसनीयता पर सिर्फ राजनीतिक सभाओं में अथवा निर्वाचन आयोग के समक्ष ही सवाल उठाए गए हों। इस संबंध में दर्जनों याचिकाएं न्यायालय में लगाई गईं, लेकिन तथ्यों के अभाव में सभी खारिज कर दी गईं।

कहा जा सकता है कि ईवीएम की विश्वसनीयता के संबंध में उठाई गई तमाम आशंकाएं,अब तक तो निराधार ही साबित हुई हैं।

लेकिन इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि निर्वाचन आयोग की कार्य प्रणाली पर प्रश्न पूछने की कोई गुंजाइश ही नहीं है। बल्कि यह कहा जाना अधिक उचित होगा कि आयोग अपनी कार्य प्रणाली के चलते प्रश्न पूछने के पर्याप्त अवसर देता है।

2024 के आम चुनाव के लिए आयोग द्वारा सात चरणों में मतदान कराया गया था, जिसे जरूरत से ज्यादा लंबा चलने वाला चुनाव कार्यक्रम कहा गया। आलोचकों का कहना था कि एक ओर तो ‘एक देश एक चुनाव’की बात की जा रही है,वहीं दूसरी ओर मेन पावर की कमी और व्यवस्थाओं में लगने वाले समय की आड़ लेकर चुनाव कार्यक्रम को लंबा खींचना ; इन दोनों बातों में कोई संगति नहीं बैठती।
विपक्ष के इस आरोप को भी हवा में नहीं उड़ाया जा सकता कि पूरा कार्यक्रम सत्तापक्ष की सुविधा के हिसाब से बनाया गया था।

आदर्श आचार संहिता के अनुपालन को लेकर भी आयोग की निष्पक्षता पर प्रश्न खड़े होते रहे हैं। एक ही प्रकृति के मामलों में किसी के प्रति कठोर रुख अपनाने और किसी के प्रति उदार रुख अपनाने के दर्जनों प्रकरण गिनवाए जा सकते हैं। यही स्थिति राजनीतिक दलों द्वारा की गई शिकायतों पर कार्यवाही को लेकर भी देखी जा सकती है।

नवंबर 2024 में महाराष्ट्र विधानसभा के चुनाव संपन्न हुए थे। विपक्षी दलों द्वारा इन चुनावों की शुचिता और निष्पक्षता को लेकर कुछ प्रश्न उठाए गए थे। पहला प्रश्न था- शाम 5:00 बजे जारी किए गए मतदान प्रतिशत के आंकड़े और दूसरे दिन सुबह जारी किए गए फाइनल आंकड़े में लगभग 8% का अंतर था, जिसे विपक्षी दलों ने संदिग्ध माना।
दूसरा,आयोग द्वारा मतदान के फाइनल आंकड़े जारी करने में बहुत अधिक देरी की गई। और तीसरा लेकिन सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा था मतदाता सूचियों में गड़बड़ी का।
थोड़ी देर के लिए यह माना जा सकता है कि पहला प्रश्न राजनीति से प्रेरित है और हार की हताशा में इसे तूल दिया गया हो,लेकिन दूसरे और तीसरे प्रश्न का समाधान कारक जवाब न मिलना,आयोग की लचर कार्यप्रणाली का उदाहरण ही माना जाएगा।
यह कहना कि पूरे आंकड़े एकत्रित करने में समय लगता है और अंतिम आंकड़ों तक परिवर्तन की गुंजाइश बनी रहती है,तकनीकी सूचना क्रांति के इस दौर में गले उतरने वाली बात नहीं है।

जहां तक मतदाता सूची का प्रश्न है। इससे संबंधित पूरी जिम्मेदारी निर्वाचन आयोग की होती है।अब यदि कुछ ही महीनों में बड़ी संख्या में लोगों के नाम मतदाता सूची में जोड़े-घटाए जाएंगे और एक ही पते पर 100-150 लोगों के नाम दर्ज होंगे,तो मामला प्रथमदृष्टया संदेहास्पद तो लगेगा ही?
इसे महज़ मानवीय त्रुटि कहकर पल्ला नहीं झाड़ा जा सकता। इन संदेहों को दूर करने की जवाबदारी निर्वाचन आयोग की है।

फिलहाल निर्वाचन आयोग बिहार में मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण को लेकर निशाने पर है। आयोग का यह कहना कि बिहार की मतदाता सूची में बड़ी संख्या में गैर भारतीयों के नाम हैं,खुद के ऊपर प्रश्न चिन्ह लगाने जैसा है। आखिर पूर्व की मतदाता सूचियां भी तो आयोग द्वारा ही बनाई गई थीं।
प्रश्न उठता है कि जब आयोग को पता था कि सूची में अवांछित लोगों के नाम दर्ज हैं,तो उसने समय रहते पुनरीक्षण की कार्यवाही क्यों नहीं की? अब जब विधानसभा के चुनाव सिर पर हैं तब हड़बड़ी में इसे क्यों किया जा रहा है?
इस पूरी प्रक्रिया में मुख्य आपत्ति यह है कि मतदाता सूची में नाम शामिल करने के लिए जो दस्तावेजी सबूत नागरिकों से मांगे जा रहे हैं, वह उनके पास सहजता से उपलब्ध नहीं हैं।
हालांकि सर्वोच्च न्यायालय ने आधार कार्ड,मतदाता परिचय पत्र और राशन कार्ड को भी मान्यता देने का निर्देश दिया है, फिर भी आयोग द्वारा निर्धारित समय सीमा में लगभग 8 करोड़ लोगों के दस्तावेजों का परीक्षण किया जाना संभव नहीं है। जबकि आयोग ने 30 सितंबर 2025 को अंतिम मतदाता सूची प्रकाशित करने का लक्ष्य रखा है।

पुनरीक्षण की हड़बड़ी में बूथ स्तरीय अधिकारियों द्वारा की जा रही गड़बड़ियों की वजह से पूरी प्रक्रिया ही संदेहास्पद हो गई है,जिसके कारण राजनीतिक दलों और मीडिया को संदेह करने का मौका मिल गया है।

इससे कोई इनकार नहीं कर सकता कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में चुनाव सबसे महत्वपूर्ण प्रक्रिया है जिसके लिए मतदाता सूची का शुद्ध होना बहुत जरूरी है। मतदाता पुनरीक्षण के खिलाफ लगाई गई याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च अदालत ने भी यही कहा है कि वह एक संवैधानिक संस्था को उस कार्य को करने से नहीं रोक सकती, जो उसे करना चाहिए।

कोई नहीं चाहेगा कि भारत की मतदाता सूचियों में बांग्लादेश,नेपाल और म्यांमार के लोगों के नाम दर्ज हों, जैसा कि दावा किया गया है ; लेकिन इसे दुरुस्त करने की कार्यवाही हड़बड़ी में नहीं,योजनाबद्ध तरीके से की जानी चाहिए।
जिन बीएलओ के भरोसे गहन पुनरीक्षण किया जा रहा है, उन्हें गहन ना सही लेकिन कार्यसाधक प्रशिक्षण तो दिया ही जाना चाहिए। पर्याप्त संसाधन प्रपत्र आदि भी दिए जाने चाहिए ; और इसके साथ ही जिम्मेदारी भी निर्धारित की जानी चाहिए।

आयोग से यह अपेक्षा रखी जाना भी असंगत नहीं है कि उसके द्वारा प्रसारित सूचनाएं कथित सूत्रों पर आधारित नहीं बल्कि ठोस सबूतों पर आधारित हों। आखिर निर्वाचन आयोग एक संवैधानिक संस्था है,जिससे तदर्थवाद की उम्मीद नहीं की जाती।

निर्वाचन आयोग द्वारा इससे पहले भी देश के विभिन्न प्रांतो में मतदाता सूचियों का गहन पुनरीक्षण किया जाता रहा है।
सवाल पुनरीक्षण पर नहीं,तौर-तरीकों पर उठाए जा रहे हैं। ऐसा तो नहीं है कि आयोग को अचानक पता चला कि बिहार में 2003 से मतदाता सूचियों का पुनरीक्षण नहीं हुआ है जिसे तुरंत किया जाना जरूरी है!
दरअसल समय पर गहन पुनरीक्षण करवाने से चूके आयोग द्वारा हड़बड़ी में इसे करने का निर्णय लिया गया,जिसकी वजह से एक जरूरी और सामान्य सी गतिविधि संदेहास्पद बन गई।

अभी भी वक्त है। आयोग बिहार में हुई चूक से सबक लेते हुए शेष प्रदेशों के लिए समयबद्ध योजना बनाए। योजना बनाते समय इस बात का ध्यान रखा जाए कि पुनरीक्षण केवल नाम के लिए ही गहन ना हो बल्कि परिणाम की दृष्टि से विश्वसनीय भी हो, क्योंकि निष्पक्ष निर्वाचन के लिए शुद्ध निर्वाचक नामावली का होना बेहद आवश्यक है।
इस अभ्यास का उपयोग आयोग अपनी विश्वसनीयता और निष्पक्षता पर छाई धुंध को साफ करने के अवसर के रूप में भी कर सकता है।

लोकतंत्र को स्वस्थ और सबल बनाने में संविधान प्रदत्त अधिकारों से सज्ज निर्वाचन आयोग की महती भूमिका है। आयोग की कार्यप्रणाली का निष्पक्ष और पारदर्शी होना स्वस्थ लोकतंत्र के लिए जरूरी शर्त है। यह और भी जरूरी है कि जनसामान्य में आयोग की शाख एक निष्पक्ष संवैधानिक संस्थान के रूप में प्रतिष्ठित हो।

*अरविन्द श्रीधर

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