भारतीय सभ्यता के गौरवशाली इतिहास में दुर्गों का स्थान अत्यंत महत्वपूर्ण है। ये केवल पत्थरों और चूने-गारे से निर्मित भवन नहीं हैं, अपितु हमारी संस्कृति, परंपरा और स्वाधीनता की अमर गाथाओं के साक्षी हैं। हिमालय की बर्फीली चोटियों से लेकर दक्षिण के समुद्री तटों तक, पूर्व के पहाड़ी क्षेत्रों से लेकर पश्चिम के रेगिस्तानी भू-भाग तक, भारत की धरती पर बिखरे ये दुर्ग हमारे पूर्वजों की वीरता, बुद्धिमत्ता और दृढ़ संकल्प के प्रतीक हैं। सदियों से ये दुर्ग न केवल भौगोलिक सुरक्षा के केंद्र रहे हैं, बल्कि सांस्कृतिक और आध्यात्मिक चेतना के संवाहक भी हैं।
भारतीय इतिहास में दुर्गों का महत्व केवल सैन्य दृष्टिकोण से नहीं मापा जा सकता। दुर्ग राज्य की सुरक्षा के साथ-साथ प्रशासनिक व्यवस्था के केंद्र भी होते थे। भारतीय राज्य-व्यवस्था के शास्त्रीय चिंतन में दुर्ग की अवधारणा को समझने के लिए कौटिल्य के ‘सप्तांग सिद्धांत’ को जानना आवश्यक है। इनके संदर्भ में आचार्य कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में कहा है-
‘स्वाम्यमात्यजनपददुर्गकोशदण्डमित्राणि प्रकृतयः।’
अर्थात् राज्य के संचालन हेतु स्वामी, अमात्य, जनपद, दुर्ग, कोश, सेना, मित्र ये सात प्रकृतियाँ आवश्यक हैं। कौटिल्य के अनुसार, किसी राज्य की रक्षात्मक क्षमता और आक्रामक शक्ति का आकलन उसके दुर्गों से ही होता है। उन्होंने चार प्रकार के दुर्गों – औदक दुर्ग, पर्वत दुर्ग, धन्वान दुर्ग और वन दुर्ग का विस्तृत विवरण दिया है।

गुप्तकाल से लेकर मध्यकाल तक, भारतीय शासकों ने दुर्ग निर्माण को सर्वोच्च प्राथमिकता दी। हर्षवर्धन के शासनकाल में थानेसर और कन्नौज के दुर्ग उत्तर भारत की राजनीतिक गतिविधियों के केंद्र थे। राजपूत काल में दुर्गों का महत्व और भी बढ़ गया। ये न केवल सैन्य गढ़ थे, बल्कि कला, संस्कृति और शिक्षा के केंद्र भी थे। 10वीं से 12वीं शताब्दी के दौरान राजस्थान में निर्मित चित्तौड़गढ़, कुंभलगढ़, और रणथंभोर जैसे दुर्गों ने आक्रमणकारियों के विरुद्ध धर्म और संस्कृति की रक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। महमूद गजनवी से लेकर मुहम्मद गोरी तक के आक्रमणों के दौरान भारतीय दुर्गों ने अदम्य साहस का परिचय दिया।
भारतीय इतिहास में दुर्गों के रणनीतिक उपयोग का सबसे उत्कृष्ट उदाहरण छत्रपति शिवाजी महाराज की दुर्ग नीति है। उन्होंने दुर्गों को केवल रक्षात्मक संरचना न मानकर, आक्रामक रणनीति का आधार बनाया। शिवाजी महाराज की दुर्ग नीति तीन मुख्य सिद्धांतों पर आधारित थी – नए दुर्गों का निर्माण, पुराने दुर्गों की मरम्मत और सुदृढ़ीकरण, तथा शत्रु के दुर्गों पर अधिकार। उन्होंने अपने शासनकाल में सैकड़ों दुर्गों पर नियंत्रण स्थापित किया था। डॉ. लोकेंद्र सिंह अपनी पुस्तक ‘हिन्दवी स्वराज्य दर्शन’ में लिखते हैं कि “हिन्दवी स्वराज्य के दुर्ग सामान्य नहीं हैं। भारतवर्ष जब विदेशी आक्रांताओं के अत्याचारों एवं दासता के अंधकार से घिरता जा रहा था, तब इन दुर्गों से स्वराज्य का संदेश देने वाली मशाल जल उठी थी।” वास्तव में ये दुर्ग हमारी अमर गाथाओं का जीवंत प्रमाण हैं। इनकी हर दीवार में वीरता की अनगिनत कहानियां छुपी हैं। छत्रपति शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक का साक्षी रायगढ़ दुर्ग आज भी हिन्दवी स्वराज्य का उद्घोष करता है। प्रतापगढ़ दुर्ग से लेकर सिंहगढ़ और कोलाबा जलदुर्ग तक शिवाजी महाराज के शौर्य के, हिन्दवी स्वराज्य के उनके संकल्प के और भारतीय गौरव के चिह्न अक्षुण्ण हैं।

राजस्थान के दुर्ग अपने स्थापत्य में बेजोड़ हैं, वे समृद्ध विरासत और गौरवशाली इतिहास को अपने में संजोए हुए आज भी उतने ही सुदृढ़ हैं, जितने सदियों पहले थे। चित्तौड़गढ़ दुर्ग वीरता और त्याग का प्रतीक है। इस दुर्ग का निर्माण 7वीं शताब्दी में मौर्य शासकों द्वारा कराया गया था। यह तीन जौहरों का साक्षी रहा है। यहां 1303 ई. में अलाउद्दीन खिलजी के आक्रमण के दौरान रानी पद्मावती ने, 1535 ई. में गुजरात के बहादुर शाह के आक्रमण के समय रानी कर्मावती ने और 1568 ई. में अकबर के आक्रमण के समय अन्य वीरांगनाओं ने अपने सम्मान की रक्षा के लिए सामूहिक जौहर किया था। मान, सम्मान और गौरव की रक्षा के लिए प्राण त्याग देने वाली वीरांगनाओं का बलिदान आज भी प्रत्येक भारतीय के हृदय में अंकित है। जैसलमेर का सोनार किला अपनी अनूठी जीवंत परंपरा के लिए प्रसिद्ध है। यह रेशम मार्ग पर स्थित एक महत्वपूर्ण व्यापार केंद्र था, जो भारत को मध्य एशिया से जोड़ता था। यह विश्व का एकमात्र जीवंत दुर्ग है जहां आज भी हजारों लोग निवास करते हैं। दक्षिण में हम्पी का दुर्ग विजयनगर साम्राज्य की भव्यता का प्रमाण है, जहां हजारों अवशेष आज भी उस युग की समृद्धि की कहानी कहते हैं।
इस दृष्टि से मध्यप्रदेश अत्यंत विशेष है। यहां के दुर्ग भारतीय इतिहास और संस्कृति के अमूल्य खजाने हैं। ग्वालियर का किला, जिसे भारत के सबसे अद्भुत किलों में गिना जाता है, का इतिहास 8वीं शताब्दी से प्रारंभ होता है। यह तोमर वंश के शासनकाल में अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंचा और मान सिंह तोमर के शासनकाल में यह संगीत तथा कला का प्रमुख केंद्र बना। यहीं ध्रुपद गायन शैली का विकास हुआ और तानसेन जैसे महान संगीतकार का जन्म हुआ। रानी लक्ष्मीबाई का अंतिम संघर्ष भी इसी दुर्ग के निकट कालपी के मैदान में हुआ था। चंदेरी का किला भी समृद्ध धरोहर को अपने में समेटे हुए है। इसे 11वीं शताब्दी में प्रतिहार वंश द्वारा स्थापित किया गया था। 1528 ई. में बाबर के सेनापति द्वारा आक्रमण के दौरान यहाँ के राजपूत वीरों ने अपने प्राणों की आहुति देकर मातृभूमि की रक्षा की। असीरगढ़ का दुर्ग, जिसे ‘दक्खन का द्वार’ कहा जाता है, भारत की भौगोलिक और रणनीतिक महत्ता को समझने की कुंजी है। क्योंकि यह उत्तर और दक्षिण भारत के बीच रणनीतिक मार्ग को नियंत्रित करता था। अकबर ने इस दुर्ग को जीतने के लिए व्यापक घेराबंदी की थी। इसी प्रकार रायसेन का किला भी अपने आप में अनूठा और संस्कृति के सशक्त प्रहरी के रूप में अक्षुण्ण खड़ा है। उदयसिंह द्वारा 10वीं शताब्दी में स्थापित इस किले पर 1543 ई. में शेरशाह सूरी ने आक्रमण किया। तब रानी रत्नावली ने सतीत्व की रक्षा के लिए 700 महिलाओं के साथ जौहर किया था।

भारतीय दुर्ग केवल सैन्य संरचनाएं नहीं थीं, बल्कि ये कला, संस्कृति और धर्म के केंद्र भी थे। दुर्गों की स्थापत्य कला में स्थानीय जलवायु, भौगोलिक परिस्थितियों और सामरिक आवश्यकताओं का पूर्ण ध्यान रखा जाता था। राजस्थानी दुर्गों में लाल बलुआ पत्थर और संगमरमर का उपयोग किया गया है, जबकि दक्षिण भारतीय दुर्गों में ग्रेनाइट का प्रयोग देखा जा सकता है। दुर्गों में जल संग्रहण की व्यवस्था अत्यंत वैज्ञानिक थी। चित्तौड़गढ़ में 84 जलकुंड, जैसलमेर में सिलीसेढ़ तालाब और ग्वालियर में सूरजकुंड इसके उदाहरण हैं।
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में दुर्गों की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण रही है। 1857 के विद्रोह के दौरान झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने अपने दुर्ग से ब्रिटिश सेना का डटकर मुकाबला किया। तात्या टोपे ने कालपी के दुर्ग से ब्रिटिश सेना के विरुद्ध संघर्ष का नेतृत्व किया। बिहार के जगदीशपुर में वीर कुंवर सिंह ने अपने दुर्ग से 80 वर्ष की आयु में ब्रिटिश सेना का सामना किया। 20वीं सदी में भी क्रांतिकारियों ने दुर्गों का उपयोग अपने गुप्त अड्डों के रूप में किया। राम प्रसाद बिस्मिल और अशफाकउल्लाह खान ने उत्तर प्रदेश के विभिन्न दुर्गों में अपनी गुप्त बैठकें आयोजित कीं। आजाद हिंद फौज के संस्थापक सुभाष चंद्र बोस ने भी भारतीय दुर्गों से प्रेरणा लेकर अपनी सेना का संगठन किया।

इस प्रकार हम देखते हैं कि हमारे किले और दुर्ग न केवल स्थापत्य के, बल्कि शौर्य, साहस, संघर्ष और त्याग तथा बलिदान के प्रतीक भी हैं। किले सिर्फ ईंट-पत्थर के नहीं हैं, ये हमारी संस्कृति के प्रतीक हैं। संस्कार और स्वाभिमान, आज भी इन किलों की ऊंची-ऊंची दीवारों से झांकते हैं।आज के युग में भारतीय दुर्ग न केवल पर्यटन के केंद्र हैं, बल्कि राष्ट्रीय गौरव और सांस्कृतिक पहचान के प्रतीक भी हैं। यूनेस्को द्वारा कई भारतीय दुर्गों को विश्व धरोहर घोषित किया गया है।
भारत के दुर्ग हमारी सभ्यता के अमर स्तंभ हैं। ये केवल अतीत के अवशेष नहीं, बल्कि भविष्य की प्रेरणा हैं। ये दुर्ग स्वराज्य की भावना के साक्षी हैं और आज भी हमें स्वाभिमान से जीने की प्रेरणा देते हैं। हमारे दुर्ग केवल पत्थरों के ढांचे नहीं, बल्कि हमारे संस्कार, हमारी परंपराएं और हमारे जीवंत आदर्श हैं। जब तक ये दुर्ग खड़े रहेंगे, तब तक भारतीय सभ्यता की गाथा गूंजती रहेगी।

*पुरु शर्मा