मूड ठीक करने के लिए 20 सेकंड की रील और भूख शांत करने के लिए 2 मिनट में तैयार होने वाले नूडल्स के इस दौर में यदि लोग ‘इंस्टेंट पुण्यकर्म’ के माध्यम से ‘इंस्टेंट पुण्यलाभ’ प्राप्त करने के तौर-तरीकों के पीछे भाग रहे हैं,तो किसी को आश्चर्यचकित नहीं होना चाहिए। इंस्टेंट कल्चर के इस दौर में अब किसी में इतना धैर्य नहीं बचा है कि वह अपनी आध्यात्मिक प्रगति के लिए शास्त्रोक्त विधि-विधानों के अनुसार भजन-पूजन और तीर्थसेवन में अपना समय जाया करे।
जब नामी-गिरामी बाबा भी ‘अभिमंत्रित रुद्राक्ष’ अथवा ‘एक लोटा जल’ को ही तमाम सांसारिक समस्याओं का हल बता रहे हों,तब कावड़ यात्राओं और मठों-आश्रमों पर भीड़ जुटना स्वाभाविक है।
इन दिनों अनेक बाबा और कथावाचक चमत्कारी सिद्धियों और टोटकों के माध्यम से लोगों की दैहिक- दैविक-भौतिक समस्याओं का समाधान कर रहे हैं। लोगों की समस्याएं हल हो रही हैं या नहीं, इसकी तो कोई पुख्ता जानकारी उपलब्ध नहीं होती,लेकिन बाबाओं के आश्रम जरूर फल- फूल रहे हैं।
बुंदेलखंड में एक कहावत है – “जब टाठी हिरात है,तो आदमी गघरा में भी खकूंड़त है” (जब थाली खो जाती है,तो लोग गागर में भी उसे ढूंढते हैं) जबकि सब जानते हैं कि गागर का मुंह छोटा होता है;उसमें थाली नहीं जा सकती।
हमारे देश की आस्थावान जनता का भी यही हाल है। साधारण से साधारण अंगूठाटेक व्यक्ति भी जानता है कि सनातन धर्म कर्मफल विधान पर आधारित है। आपसी बातचीत में लोग अक्सर ‘कर्मों का फल’ उक्ति का प्रयोग करते हैं।
हमारे धर्मग्रंथ सत्कर्म जनित पुण्य की महिमा और दुष्कर्म जनित पाप के बुरे नतीजों के आख्यानों से भरे पड़े हैं।
सनातन ज्ञान परंपरा के सर्वोच्च शिखर पर विराजमान श्रीमद्भगवद्गीता में प्रतिपादित ‘कर्मयोग’ इसका सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है।
लोक मानस में रची-बसी श्रीरामचरितमानस की यह चौपाई घर-घर में उद्धृत की जाती है –
कर्मप्रधान विश्व करि राखा।
जो जस करहिं सो तस फल चाखा।।
फिर भी लोगों को लगता है कि एक रुद्राक्ष धारण करने से अथवा शिवलिंग पर एक लोटा जल चढ़ा देने से दुष्कर्म जनित प्रारब्ध को काटा जा सकता है।
भारत मूलतः आस्थावानों का देश है। यहां धर्मग्रंथो को ईश्वर का वांग्मय स्वरूप माना जाता है। व्यास पीठ पर आसीन कथावाचक जब कोई बात कहता है तो आस्थावान जनता स्वभावत: उसका अनुशरण करने लगती है। कावड़ यात्राओं में उमड़ती लाखों लोगों की भीड़ और अभिमंत्रित रुद्राक्ष प्राप्त करने के लिए मची मारा-मारी को इसी के फलितार्थ के रूप में देखा जाना चाहिए।
कावड़ यात्रा क्यों की जाती है? शिवजी को जल क्यों चढ़ाया जाता है ? कुंभ और पवित्र नदियों में स्नान का क्या महत्व है? तीर्थसेवन अथवा तीर्थाटन का क्या विधान है? सनातन धर्म में कथा-भागवत श्रवण की इतनी महिमा क्यों बताई गई है? जैसी जिज्ञासाओं पर पुराणों में विस्तार से जानकारी मिलती है। लेकिन जब कथावाचकों का पूरा जोर इंस्टेंट पुण्यलाभ के तौर-तरीकों पर हो, तो शास्त्र की गहराई में जाने की जहमत कौन उठाएगा?
यहां मोटे तौर पर यह जान लेना जरूरी है कि पुराण कैसे अस्तित्व में आए?
सनातन परंपरा में वेद को प्रमाण माना गया है;अर्थात वेद और अन्य धर्मग्रंथो में मतांतर सामने आने पर वेदमत को ही प्रधानता दी जाती है। चूंकि वेदवाणी अत्यंत गूढ़ है,अतः वेदों के संदेश को सहज ग्राह्य बनाने के लिए उपनिषद अस्तित्व में आए।
फिर मनीषियों को लगा कि सनातन परंपरा के गूढ़ ज्ञान को जनसाधारण तक पहुंचाने के लिए इसे और भी सरलीकृत किया जाना आवश्यक है,तब कथा शैली में पुराण रचे गए।
पुराणों की कथाओं में दिव्य सनातन संदेश को प्रतीकों के माध्यम से वर्णित किया गया है। सनातन परंपरा, कथावाचकों से भी यही उम्मीद रखती है कि वह कथाओं में अंतरनिहित मूल संदेश को श्रोताओं के समक्ष उद्घाटित करेंगे।
पुराणकारों को किंचित भी यह आभास नहीं रहा होगा कि कलयुग के कथावाचक श्रीमद्भागवत सप्ताह को संगीतमय इवेंट और श्रीशिवपुराण को टोटका पुराण बना देंगे।
भारतीय ज्ञान परंपरा की ही एक अत्यंत समृद्ध शाखा है ज्योतिष,जो पूर्णतः गणितीय सूत्रों पर आधारित है। ज्योतिष विद्या खगोलीय घटनाओं का सटीक विश्लेषण करती है। इसके माध्यम से व्यक्ति के जीवन में घटित होने वाली तमाम घटनाओं का विश्लेषण किया जाना संभव है। लेकिन इन दिनों ज्योतिष विद्या का उपयोग भी इंस्टेंट पुण्य लाभ के लिए किया जा रहा है।
इसका ताजा उदाहरण है जनवरी-फरवरी 2025 में आयोजित प्रयागराज कुंभ के संबंध में बहुप्रचारित ज्योतिषीय तथ्य। कहा गया कि 144 वर्ष बाद ग्रह-नक्षत्रों की ऐसी युति बन रही है,जो सामान्यतः दुर्लभ है। बस,श्रद्धालु टूट पड़े दुर्लभ मुहूर्त में पुण्य लाभ कमाने के लिए। पहले डुबकी लगाने की ऐसी होड़ मची कि दर्जनों लोग अपनी जान से हाथ गंवा बैठे।
इससे पहले कि अव्यवस्थाओं पर कोई उंगली उठाता, एक चर्चित बाबा जी ने इन मौतों को ‘मोक्ष’ घोषित कर दिया। इससे अधिक इंस्टेंट पुण्य लाभ और क्या हो सकता है? आखिर सनातन परंपरा में मोक्ष को ही तो मनुष्य जन्म की सर्वोच्च उपलब्धि माना गया है!
लगभग हर व्रत त्योहार के मुहूर्त को दुर्लभ बताना इन दिनों ज्योतिष में आम चलन है। अभी हाल ही में रक्षाबंधन पर्व के बारे में भी यही प्रचारित किया गया कि ऐसा संयोग 95 साल बाद बन रहा है।

सवाल ज्योतिष की प्रामाणिकता अथवा उसकी गणनाओं का नहीं है। वह अपनी जगह ठीक हैं। लेकिन जब किसी दुर्लभ मुहूर्त पर कई गुना अधिक पुण्यलाभ अर्जित होने की बात प्रचारित होती है,तो धर्मप्राण जनता येन-केन-प्रकारेण उसे अर्जित करने के लिए टूट पड़ती है। इस आपाधापी में इंस्टेंट पुण्यलाभ प्रमुख हो जाता है,पर्व के मूल तत्व कहीं पीछे छूट जाते हैं।
दरअसल इन दिनों धर्मस्थलों में जो भीड़ देखी जा रही है,वह तीर्थाटन या तीर्थसेवन करने वाले श्रद्धालुओं की नहीं, मन बहलाव के लिए घूमने निकले सैलानियों की है। तीर्थसेवन की भावना से ओतप्रोत श्रद्धालु उच्छ्रंखल व्यवहार कर ही नहीं सकता।
हर तीर्थ की एक मर्यादा होती है;अनुशासन होता है। तीर्थ यात्रियों से अपेक्षा की जाती है कि वह तीर्थ की मर्यादा का पालन करें। मन-वचन-कर्म की पवित्रता,आहार-व्यवहार और आचरण की सुचिता,
अहंकार आदि नकारात्मक प्रवृत्तियों का त्याग,संयम सेवा सहिष्णुता और जीव मात्र के प्रति दया का भाव जैसे सद्गुणों के बगैर कोई भी तीर्थयात्रा फलीभूत नहीं हो सकती; ऐसा शास्त्रों मे कहां गया है।
शास्त्रों में इंस्टेंट पुण्य लाभ जैसी कोई अवधारणा नहीं है। जहां-जहां भी यह कहा गया है कि किसी तीर्थ विशेष के दर्शन अथवा पवित्र नदियों में एक डुबकी मारने से सारे पाप धुल जाते हैं,वहां-वहां इसका मतलब यही है कि आप तीर्थ की मर्यादा का पालन करते हुए दर्शन अथवा स्नान करें। इसे ही तीर्थसेवन कहा गया है।
*अरविन्द श्रीधर