किस्से कलमगिरी के’ – जीवंत पत्रकारिता का बेजोड़ दस्तावेज़

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किस्से कलमगिरी के’ वरिष्ठ पत्रकार कीर्ति राणा की पहली कृति है, जो उनकी चार दशकों की पत्रकारिता के अनुभवों का एक जीवंत और प्रेरक संकलन है। यह पुस्तक न केवल कीर्ति राणा के पत्रकारीय जीवन की कहानियों का दस्तावेज है, बल्कि यह उस दौर की पत्रकारिता की चुनौतियों, बदलावों और सामाजिक प्रभाव को भी उजागर करती है।

कीर्ति राणा भारतीय पत्रकारिता के उन चुनिंदा चेहरों में से हैं, जिन्होंने अपनी कलम को हमेशा सत्य और समाज के हित में चलाया। चार दशकों से अधिक समय तक मैदानी पत्रकारिता में सक्रिय रहे राणा ने इंदौर, मुंबई, उज्जैन, उदयपुर, श्रीगंगानगर और शिमला जैसे शहरों में अपनी छाप छोड़ी। उनकी पत्रकारिता का अंदाज राजेंद्र माथुर या प्रभाष जोशी जैसे दिग्गजों से भिन्न रहा, लेकिन सुरेंद्र प्रताप सिंह और महेंद्र बापना जैसे पत्रकारों की शैली से प्रेरित रहा। उनकी फील्ड रिपोर्टिंग, विशेष रूप से इंदौर जिला जेल में फांसी की लाइव कवरेज, पत्रकारिता के इतिहास में मील का पत्थर मानी जाती है। इस कवरेज पर आधारित एक लघु फिल्म भी बनी, जिसमें राणा की भूमिका भी थी।

“सत्य, प्रिय हो यह जरूरी नहीं, सत्य को किसी विशेषण की आवश्यकता भी नहीं है” यह वाक्य इस पुस्तक और लेखक के चरित्र की केंद्रीय भावना को उजागर करता है। राणा की खासियत उनकी बेबाकी, समर्पण, परिश्रम और सामाजिक संबंधों का निर्वहन रही है। उन्होंने न केवल समाचारों को कवर किया, बल्कि समाज के विभिन्न वर्गों के बीच अखबार की विश्वसनीयता को भी बढ़ाया। उनकी पुस्तक में यह स्पष्ट झलकता है कि वे एक ऐसे पत्रकार हैं, जिन्होंने कभी प्रबंधन के दबाव में अपने सहयोगियों को ढाल नहीं बनाया, बल्कि खुद उनके लिए ढाल बने।

‘किस्से कलमगिरी के’ एक आत्मकथात्मक शैली में लिखी गई है, जिसमें राणा ने अपनी पत्रकारीय यात्रा के अनुभवों को किस्सों के रूप में प्रस्तुत किया है। पुस्तक में उनके व्यक्तिगत और पेशेवर जीवन के कई पहलू शामिल हैं, जिनमें उनके सहयोगियों, संपादकों, और सामाजिक-धार्मिक हस्तियों के साथ संबंधों का जिक्र है। किताब में कमलेश्वर, डॉ ओम नागपाल, श्रवण गर्ग, विजय शंकर मेहता, सुधीर अग्रवाल, एन.के. सिंह, गोकुल शर्मा, रमेश अग्रवाल, कल्पेश याग्निक, राजकुमार केसवानी, हेमंत शर्मा जैसे पत्रकारिता के दिग्गजों के साथ उनके अनुभवों का उल्लेख है।

पुस्तक का कथानक दो मुख्य धाराओं में बंटा है: पहला, पत्रकारिता के उस दौर की कहानियां, जब संसाधनों और सुविधाओं की कमी थी, और दूसरा, आज की डिजिटल पत्रकारिता के दौर में सत्य की खोज की चुनौतियां। राणा ने अपनी स्पॉट रिपोर्टिंग के अनुभवों को विशेष रूप से उजागर किया है, जो उनकी पहचान का आधार बनी। उदाहरण के लिए, श्री सिंथेटिक्स के मजदूरों की लड़ाई और विभिन्न शहरों में उनकी पत्रकारीय भूमिका को पुस्तक में प्रमुखता से स्थान मिला है।

कीर्ति राणा की लेखन शैली सरल, बेबाक और पाठक को बांधे रखने वाली है। उनकी भाषा में हिंदी की सहजता और पत्रकारीय तटस्थता का मिश्रण है। वे अपनी बात को बिना लाग-लपेट के कहते हैं, जो उनकी पत्रकारिता का भी प्रतीक है। पुस्तक में कहीं-कहीं आत्मकथात्मक अंदाज में भावनात्मक गहराई भी झलकती है, खासकर जब वे अपने परिवार और रिश्तेदारों के त्याग की बात करते हैं। उनकी लेखनी में हास्य, गंभीरता और सामाजिक टिप्पणियों का संतुलन है, जो इसे नई पीढ़ी के पत्रकारों और सामान्य पाठकों दोनों के लिए आकर्षक बनाता है।

पुस्तक में कई स्थानों पर कविताओं, फिल्मी गीतों और साहित्यिक उद्धरणों का उपयोग किया गया है, जो इसे और भी रोचक बनाता है।

‘किस्से कलमगिरी के’ न केवल पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिए एक प्रेरणादायक दस्तावेज है, बल्कि यह सामान्य पाठकों के लिए भी समाज और पत्रकारिता के बदलते स्वरूप को समझने का माध्यम है। राणा ने उस दौर की पत्रकारिता की चुनौतियों को बखूबी दर्शाया है, जब स्पॉट रिपोर्टिंग के लिए तकनीकी संसाधन सीमित थे। आज के डिजिटल युग में, जहां फेक न्यूज और प्रायोजित सामग्री की बाढ़ है, यह पुस्तक सत्य की खोज और पत्रकारीय नैतिकता के महत्व को रेखांकित करती है।

पुस्तक का एक महत्वपूर्ण पहलू यह है कि यह युवा पत्रकारों को अनुभवों से सीखने का अवसर देती है। राणा ने स्वयं कहा है कि उनकी किताब में उनके अनुभव ही हैं, लेकिन ये अनुभव नई पीढ़ी के लिए मार्गदर्शक हो सकते हैं। यह पुस्तक पत्रकारिता के पेशे में आने वाली चुनौतियों, जैसे प्रबंधन का दबाव, व्यावसायिक प्रतिद्वंदता, पर्दे के पीछे की राजनीति, सामाजिक जिम्मेदारी और व्यक्तिगत जीवन का संतुलन, पर भी प्रकाश डालती है।

कीर्ति राणा ने अपनी पत्रकारिता के माध्यम से समाज के विभिन्न वर्गों के बीच अखबार की विश्वसनीयता को बढ़ाया। उनकी पुस्तक में यह स्पष्ट है कि वे जिस किसी भी शहर में रहे, वहां के सामाजिक और सांस्कृतिक ताने-बाने को समझने और उसका सम्मान करने में विश्वास रखते थे। उज्जैन में सिंहस्थ की कवरेज के दौरान उन्होंने धार्मिक और सामाजिक नेताओं के साथ गहरे संबंध बनाए। बोहरा धर्मगुरु बुरहानुद्दीन साहब का आशीर्वाद प्राप्त करना उनकी सामाजिक स्वीकार्यता का प्रमाण है।

पुस्तक में उदयपुर में आईआईएम जैसे राष्ट्रीय संस्थान खुलवाने जैसे सामाजिक मुद्दों का जिक्र है, जो राणा की पत्रकारिता के सामाजिक प्रभाव को दर्शाता है। उनकी यह खूबी कि वे अपने मातहत सहयोगियों को प्रबंधन के दबाव से बचाते थे, उनकी नेतृत्व क्षमता और मानवीयता को उजागर करती है।

हालांकि पुस्तक की सामग्री और लेखन शैली सराहनीय है, परन्तु कुछ पहलुओं पर और गहराई की आवश्यकता महसूस होती है। उदाहरण के लिए, पुस्तक में डिजिटल पत्रकारिता के दौर की चुनौतियों पर अधिक विस्तृत चर्चा हो सकती थी। आज के समय में सोशल मीडिया और ऑनलाइन पत्रकारिता ने पत्रकारिता के परिदृश्य को बदल दिया है, और इस पर राणा का दृष्टिकोण पाठकों के लिए और अधिक प्रासंगिक हो सकता था। इसके अलावा, पुस्तक में कुछ व्यक्तिगत किस्सों को बहुत विस्तार से बताया गया है, जो शायद सामान्य पाठकों के लिए कम रुचिकर हो।

‘किस्से कलमगिरी के’ एक ऐसी पुस्तक है, जो पत्रकारिता के सुनहरे दौर की याद दिलाती है और साथ ही वर्तमान चुनौतियों पर विचार करने के लिए प्रेरित करती है। कीर्ति राणा ने अपनी इस कृति के माध्यम से न केवल अपनी यात्रा को साझा किया है, बल्कि पत्रकारिता के मूल्यों और नैतिकता को भी रेखांकित किया है। यह पुस्तक पत्रकारिता के विद्यार्थियों, पेशेवर पत्रकारों और सामान्य पाठकों के लिए एक प्रेरणादायक और शिक्षाप्रद रचना है। राणा की बेबाकी और समाज के प्रति उनकी प्रतिबद्धता इस पुस्तक को एक अविस्मरणीय और संग्रहणीय कृति बनाती है।

*राजकुमार जैन
(स्वतंत्र विचारक एवं लेखक)

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2 Comments
  • “किस्से कलमगिरि के” यह कीर्ति राणा जी की पूरे पत्रकारिता जीवन का निचोड़ है वास्तव में यह पुस्तक पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिए उपयोगी सिद्ध होगी,

    राजकुमार जैन जी ने लेख के माध्यम से गागर में सागर भरने का महत्वपूर्ण काम किया है।

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