समय है,पर्यावरण अनुकूल गणेशोत्सव के ‘श्रीगणेश’ का…

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श्री गणेश प्रथम पूज्य भी हैं और विघ्नहर्ता भी। सनातन संस्कृति में हर कार्य का आरंभ गणेश पूजन से करने की परंपरा है। सामान्य बोलचाल की भाषा में ‘श्रीगणेश करने’ का अर्थ ही कार्यारंभ से लिया जाता है।
गणेश जी के आविर्भाव के संबंध में पुराणों में अलग-अलग कथाएं आती हैं। सर्वाधिक प्रचलित कथा के अनुसार उनकी उत्पत्ति माता पार्वती की देह के मैल अथवा अनुलेप सामग्री से हुई मानी जाती है। पार्वती जी ने अपनी देह के अनुलेप अथवा मेल से एक मानव आकृति गढ़ी। वही आकृति भगवान गणेश के रूप में अभिहित हुई।

भगवान गणेश के अवतरण की कथाओं से लगाकर उनका स्वरूप,अस्त्र-शस्त्र,वाहन और प्रिय भोग सब कुछ गहन प्रतीकात्मक संदेश प्रदर्शित करते हैं।
मैल अथवा अनुलेप से निर्मित आकृति का गणेश स्वरूप में अभिहित होने का अर्थ यही है कि गणेश जी की उत्पत्ति मिट्टी से हुई है।
इस दृष्टि से देखा जाए तो गणेशोत्सव के दौरान मिट्टी से बनी हुई मूर्तियों की स्थापना ही शास्त्र सम्मत है।

दिखावे के लिए प्लास्टर ऑफ पेरिस अथवा अन्य हानिकारिक रासायनिक पदार्थों से निर्मित मूर्तियां न तो शास्त्र सम्मत हैं और न ही पर्यावरण के अनुकूल।
यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि स्थापना के साथ-साथ विसर्जन का भी एक विधान है। जल में विसर्जित मूर्ति का विघटित होकर अथवा घुलकर पुन: प्रकृति के साथ मिल जाना ही विसर्जन है।
प्लास्टर ऑफ पेरिस अथवा केमिकल युक्त पदार्थ से बनी हुई मूर्तियां विघटित नहीं होती हैं,जो पर्यावरण के लिए तो नुकसानदेय है ही,परंपरा और शास्त्रीय विधान के भी प्रतिकूल है।

वैसे तो विघ्नहर्ता श्री गणेशजी की पूजा-अर्चना अनादिकाल से होती आ रही है,लेकिन आधुनिक काल में इसे सार्वजनिक लोकोत्सव बनाया लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान लोगों को एक मंच पर लाकर उनमें राष्ट्रीयता की भावना भरने के उद्देश्य से तिलक महाराज ने सार्वजनिक गणेश उत्सव मनाना प्रारंभ किया था।
एक पवित्र और महान उद्देश्य की पूर्ति के लिए प्रारंभ किया गया सार्वजनिक गणेशोत्सव वर्तमान आयोजकों से भी सोद्देश्यता की अपेक्षा रखता है।

वर्तमान में सबसे बड़ा उद्देश्य होना चाहिए गणेशोत्सव को पर्यावरण के अनुकूल बनाना। इसके लिए सबसे पहली शर्त है मिट्टी अथवा पर्यावरण के अनुकूल पदार्थों से निर्मित गणेश प्रतिमा की स्थापना और सजावट के लिए प्राकृतिक वस्तुओं का इस्तेमाल करना। साथ ही स्थापना से लगाकर विसर्जन तक यथासंभव शास्त्रसम्मत विधि-विधानों का पालन करना।

याद रखना होगा कि भव्यता में क्षणिक आकर्षण तो होता है, लेकिन जरूरी नहीं कि वह उन उद्देश्यों की पूर्ति भी करे जिनके लिए गणेशोत्सव मनाया जाता है।

प्रसन्नता की बात है कि प्लास्टर ऑफ पेरिस के उपयोग से होने वाली पर्यावरणीय क्षति की तरफ कुछ जागरूक लोगों का ध्यान गया है। ऐसे लोगों और संगठनों द्वारा प्रयास किया जा रहा है कि अधिक से अधिक लोग अपने पंडालों में मिट्टी या पर्यावरण अनुकूल पदार्थों से निर्मित मूर्तियों की स्थापना करें।
इसके लिए प्रशिक्षण भी दिया जा रहा है और लोगों को मिट्टी,गोबर और कागज की लुगदी आदि से निर्मित गणेश जी की प्रतिमाएं उपलब्ध भी कराई जा रही हैं।

उज्जैन के राजीव पाहवा विगत 10-12 वर्षों से कार्यशालाएं आयोजित कर मिट्टी से गणेश बनाने का प्रशिक्षण प्रदान कर रहे हैं। उनका कहना है कि क्यों ना लोग अपने घरों में स्वयं के द्वारा गढ़ी गई गणेश प्रतिमा की स्थापना करें। इससे लोगों में रचनात्मक गतिविधियों की ओर रुझान बढ़ेगा।

भोपाल की नीतादीप बाजपेई भी इस मुहिम में लगी हुई हैं। बल्कि उन्होंने अपनी इस मुहिम को नए-नए आयाम भी दिए हैं। नीतादीप और उनकी संस्था मिट्टी और गोबर से गणेश प्रतिमाओं का निर्माण तो करती ही हैं, विभिन्न सजावटी सामान और कलात्मक आभूषण भी गोबर से बनाती हैं। नाथद्वारा में विराजमान भगवान श्रीनाथजी ने भी नीतादीप द्वारा गोमय से निर्मित आभूषण धारण किए हैं। रक्षाबंधन के अवसर पर उनकी संस्था द्वारा गोमय से कलात्मक राखियों का निर्माण किया गया था,जिन्हें देशव्यापी सराहना प्राप्त हुई थी।
उनकी संस्था द्वारा अब तक सैकड़ो महिलाओं को इस काम के लिए प्रशिक्षित किया जा चुका है।
कुछ अन्य संस्थाएं भी इस दिशा में काम कर रही हैं।

पर्यावरण अनुकूल गणेशोत्सव मनाने की जिम्मेदारी सिर्फ राजीव पाहवा,नीतादीप बाजपेई जैसे लोगों और गिनी चुनी स्वयंसेवी संस्थाओं की नहीं है,अपितु हम सबकी है। तो चलिए,हम भी अपने-अपने घरों और मोहल्ले के पंडालों में पर्यावरण अनुकूल गणेशोत्सव मनाने का ‘श्रीगणेश’ करते हैं।

*अरविन्द श्रीधर

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