‘फोटो पत्रकारिता बदलती दुनिया बदलती तकनीक’ प्रो. धनंजय चोपड़ा की सद्य प्रकाशित पुस्तक है। दृश्य संचार के प्रभावी माध्यम के इस दौर में फोटो पत्रकारिता का महत्व बढ़ा है। चाहे मुद्रित माध्यमों की बात हो, अथवा टेलीविजन मीडिया की बात करें या फिर सोशल मीडिया पर नजर डालें, चित्र कथ्य को अधिक प्रभावी बनाता है। यह कहा जाता रहा है कि एक चित्र, एक हजार शब्दों से ज्यादा असर पैदा करता है। तथ्यों का प्रमाणीकरण करता है। झुठलाने की कवायदों के बीच साक्ष्य का काम करता है। एक समय था जब समाचारपत्रों को चित्रों का प्रकाशन करने के लिए बड़े पापड़ बेलना पड़ते थे। ‘ब्लाक’ बनवाना पड़ते थे। उधर ट्रेनों और बसों तक अखबारों के बंडल पहुँचाने की जद्दोजहद समय के विरुद्ध दौर की चुनौती पेश करती थी। अब न वे कठिनाइयाँ रहीं और न वे कैमरे। नित-नूतन प्रगति के इस युग में अधुनातन टेक्नोलाजी के बलबूते चीजें आसान हो गई हैं। नए-नए प्रयोग के अवसर और संभावनाएँ फोटो पत्रकारिता को नई शक्ति और संबल दे रहे हैं। मोबाइल अपने आप में असीम संभावनाओं से युक्त उपकरण के रूप में सर्वसुलभ संसाधन हैं। अब जोर फोटो की गुणवत्ता पर है। फोटो खींचते समय उस कोण की तलाश का महत्व ज्यादा है,जो कथ्य और कहन में चार चाँद लगा दे। अब तो जमाना कृत्रिम मेधा-आर्टीफीशियल इंटेलीजेन्स की दिशा में बढ़ चला है।
प्रो. धनंजय चोपड़ा दो दशक से ज्यादा समय तक मुख्य धारा की पत्रकारिता के प्रमुख हस्ताक्षर रहे हैं। इतना ही समय आपने मीडिया की शिक्षा के लिए भी दिया है। वे इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग के पाठ्यक्रम निदेशक हैं। उनकी पत्रकारी दक्षता का एक प्रमाण दैनिक भास्कर में प्रकाशित वह धारावाहिक वृत्तांत है जो आजादी के 75 वर्ष पूरे होने पर 15 कड़ियों में आया था। ‘भारत में कुंभ’ और ‘गणेश शंकर विद्यार्थी’ आपकी उत्कृष्ट पुस्तकें हैं जिनके एकाधिक संस्करण प्रकाशित हुए हैं। इसी शृंखला में लोकभारती प्रकाशन से आई पुस्तक ‘फोटो पत्रकारिता बदलती दुनिया, बदलती तकनीक’ हमारे हाथों में है। यह अपने विषय के सभी पहलुओं को समेटने वाली ऐसी कृति है कि इस एक अकेली पुस्तक को पढ़ने से फोटो पत्रकारिता के बारे में पर्याप्त ज्ञान अर्जित किया जा सकता है। इसमें फोटो पत्रकारिता का इतिहास, फोटो पत्रकारिता, दृश्य संचार, तकनीक एवं उपकरण, फोटो पत्रकारिता के विविध आयाम, फोटो एजेंसियाँ और आचार संहिता पर प्रकाश डाला गया है। फोटोग्राफी की पारिभाषिक शब्दावली तथा अनेक महत्वपूर्ण घटनाओं और व्यक्तित्वों के चित्रों का समावेश होने से पुस्तक की अर्थवत्ता बढ़ गई है।
परंतु डा. धनंजय चोपड़ा की इस पुस्तक में मुझे पचास के दशक में प्रयाग कुंभ की भगदड़ का वह चित्र देखने को नहीं मिला जो नार्दर्न इण्डिया पत्रिका/अमृत पत्रिका में प्रकाशित हुआ था। फोटोग्राफर नेपू (पूरा नाम मैं याद नहीं कर पा रहा हूं) ने यह फोटो लिया था। अस्थाई पुल पर भगदड़ में मारे गए तीर्थ यात्रियों की त्रासदी की गवाही देता यह फोटो सरकार के हादसे को कम करके बताने के प्रयासों की पोल खोलता था। नेपू खुद भगदड़ में फँस गया था। बड़ी मुश्किल से भीड़ से निकलकर दफ्तर पहुँच पाया था। फटेहाल नेपू को देखते ही प्रधान संपादक तुषार कांति घोष के मुँह से खुशी और विकलता से भरा वाक्य निकला- अरे, नेपू जिंदा है। और उन्होंने नेपू को गले से लगा लिया। उधर उत्तरप्रदेश के मुखिया गोविंद वल्लभ पंत जो शिष्टता और शालीनता के लिए जाने जाते थे, उनकी उबलती गुस्सा से वाक्य निकला- हरामजादा नेपू कहाँ है?
(राजकमल प्रकाशन के किताब उत्सव में 7 सितंबर को प्रो. धनंजय चोपड़ा की पुस्तक पर चर्चा के कार्यक्रम ‘सच दिखाने का सलीका: फोटो पत्रकारिता’ में वरिष्ठ पत्रकार पद्मश्री विजय दत्त श्रीधर के वक्तव्य का अंश)