हिन्दी साहित्य की उपलब्धि : गीतों के गाँव में

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गीतों के आकाश में एक और नये गीत नक्षत्र का उदय हुआ है जो हिन्दी साहित्य जगत के लिये निश्चित ही एक उपलब्धि है । इस गीत कृति का ऐसे समय में आना महत्वपूर्ण है जब गीत अपनी परम्पराओं से विमुख हो कुछ नये प्रतिमान स्थापित करने की अंतहीन भ्रमित सी दिशा में दौड़ रहा है, जिसकी मानस चेतना में प्रश्न तो बहुतेरे हैं किन्तु समाधान किसी का नहीं ।
इस कृति की अपेक्षा इसलिये भी और भी सुदृढ़ हो जाती है क्योंकि इसकी प्रस्तावना/ भूमिका डाॅ. श्रीराम परिहार, श्री संतोष चौबे जैसे हिन्दी साहित्य जगत के चिरपरिचित मूर्धन्य साहित्य मनीषियों द्वारा प्रतिपादित की गयी है । यहाँ एक बात स्पष्ट करता चलूँ कि मेरी मानसी चेतना के आधार पर गीत की समीक्षा तो सम्भव नहीं अपितु एक औपचारिकता निर्वहन मात्र है । मेरी मान्यता के अनुसार गीत तो अजन्मा है । गीत का तो अवतरण होता है –
गीत न तो लिखा जाता है,
गीत न तो पढ़ा जाता है,
गीत सुना भी नहीं जाता,
गीत तो जिया जाता है ।
गीत को जीने का मनोयोग लेकर इस गीत संग्रह को हाथ में उठाकर इसके आवरण पृष्ठ पर दृष्टि डालें तो किसी वनांचल के शान्त एकान्त में एक नहीं अनेक मोर किसी पुष्प पल्लवित वृक्ष की शीतल छाँव तले नृत्य करते प्रतीत हो रहे हैं । बस यहीं से इस कृति के भीतर की गीतात्मकता और गेयता का प्रमाण परिलक्षित होने लगता है । कृति का पन्ना पलटते हैं तो ज्ञात होता है कि इसका प्रकाशन देश के प्रतिष्ठित प्रकाशक “आईसेक्ट प्रकाशन” द्वारा किया गया है ।
कृति के पन्ने पलटने के उपक्रम में विद्वत्जनों की भूमिकाएँ और कृतिकार के आत्म कथन का अवलोकन करते हुए इस संकलन के प्रथम गीत – “गीतों के गाँव में”, जो कि इस संग्रह का शीर्षक गीत भी है, के प्राणतत्व से परिचय करने पर जाना कि जो पीड़ा गाँव से शहरों की ओर पलायन की प्रतिभागी है, ठीक वैसी ही पीड़ा शहरों के कोलाहल भरे वातावरण में क्षरण होते जीवन मूल्यों की पुनः स्थापना हेतु शहरों की चकाचौंध से गाँव की ओर पलायन की अभिलाषी है । पृष्ठ 29 पर गीत की पंक्तियाँ देखें –
“आओ फिर लौट चलें गीतों के गाँव में ।
रस की रसवन्ती में छंदों की छाँव में ।।
निष्ठा के गोमय से मन आँगन लीप धरें ।
अंतर की तुलसी पर आशा के दीप धरें ।
सुनें चलो रसभीनी श्रुतियाँ अभिलाषा की,
चिड़ियों की चहकन में, कौवों की काँव में ।।”
गाँवों की ओर लौटने का तात्पर्य अपनी परम्पराओं की ओर उन्मुख होकर जीवन मूल्यों की सहजता, सरलता और प्रमाणिकता की पुनर्स्थापना करने का प्रयास है ।
गीतकार राम वल्लभ आचार्य के इस गीत संग्रह में गीतों का वैशिष्ट्य देखने को मिलता है । जहाँ बदलते मौसमों का स्फुरण है, उल्लास है, मादकता भी है । पृष्ठ 36 पर गीत की ये पंक्तियाँ देखें –
“मेघ कलश बरसे अम्बर से ।
पावस की पावन ऋतु आई, मेघ घिरे बरसे ।”
बिखराये अलकें ऋतु कामिनि ।
घन घन बीच निरत रत दामिनि ।
घड़ घड़ मेघ मृदंग बजाये, नद निर्झर हरसे ।।”
मन को आह्लादित करता मौसम का एक और गीत जिसमें गीतकार सृष्टिजन्य अनुशासन और बंधनों को तोड़ता हुआ गीत की परिकल्पना में सांसारिक यथार्थ की बात कुछ इस तरह करता है । पृष्ठ 43 पर देखें गीत की इन पंक्तियों को –
“अनायास टूट गये संयम व्रत संत के ।
लगता है मादक दिन आ गये वसंत के ।।

खेतों में पियरायी सरसों अब लहक उठी ।
विरहिन के अंतस में प्रिय की सुधि चहक उठी ।
शकुंतला देख रही सपने दुष्यंत के ।।”
मेरे इस कथन की पुष्टि कि गीत तो जिया जाता है, गीतकार राम वल्लभ आचार्य भी अपने इस गीत के माध्यम से करते हुए जीवन प्रमोद की अनेक अनुशंसायें प्रस्तुत करते हैं और प्रतिकूलता के प्रवास में भी सकारात्मकता के आवास की सदेच्छा रखते हैं ।
पृष्ठ 38 पर देखें गीत की ये पंक्तियाँ –
“दर्द सारे ज़माने का पीता हूँ मैं ।
गीत गाता नहीं गीत जीता हूँ मैं ।।

हो अँधेरा अगर तो दिवाकर बनूँ ।
हो गरल तो पिऊँ और शंकर बनूँ ।
मैं कभी हारकर पथ में बैठा नहीं,
आचरण में ढली कर्म गीता हूँ मैं ।।”
गीतकार बढ़ते प्रदूषण और बिगड़ते पर्यावरणीय मानकों के प्रति भी संवेदनशील और सजग है । मानव निर्मित दूषित प्रयोजनों की परिणिति के प्रति समाज को सचेत करते हुए संग्रह के कुछ गीत भी अनुकरणीय बन पड़े हैं । पृष्ठ 117 पर गीत की इन पंक्तियों को देखें –
“हो प्यार ज़िन्दगी से तो प्रदूषण मिटायें ।
जीवन की ज़रूरत है पर्यावरण बचायें ।।

कृति के पन्ने पलटते पलटते कई गीत ऐसे भी मिले जो सामाजिक चेतना के सरोकार की बात करते हैं । इन गीतों में गीतकार अपने मन के निश्छल भावों को अनुभव के आधार पर कुछ इस प्रकार प्रतिपादित करता है । पृष्ठ 76 पर देखें गीत की पंक्तियाँ –
“बीज बोते चलो बंधुवर प्यार के,
सुख की फसलें स्वयं ही लहक जायेंगी ‌।
आप औरों को चंदन लगाते चलो
उँगलियाँ आपकी खुद महक जायेंगी ।।

पौध क्यारी में रौपे बिना बंधुवर,
फूल खिलता नहीं चाहने से कभी ।
हो भले ही बड़े, यदि बड़प्पन नहीं,
मान मिलता नहीं माँगने से कभी ।
आचरण श्रेष्ठ अपना बनायें अगर
यश की चिड़ियाँ स्वयं ही चहक जायेंगी ।।
कुल मिलाकर चिन्तन के धरातल का सनातन सत्य यही है कि सृष्टि के मूल में युगों युगों से विद्यमान प्रेम तत्व ही सृजन की संवाहक औषधि है, जिसे इस गीत संग्रह के कृतिकार डाॅ. राम वल्लभ आचार्य ने जाना, परखा और हृदयंगम भी किया है । कृति में निहित गीतों की माला के 101 गुरियों को फेरते फेरते मैंने यह पाया कि इस संग्रह के अधकांश गीत प्रेम का पारायण करते करते ही जिये गये हैं । गीतकार ने सामाजिक सरोकार, राष्ट्रीय चेतना और आध्यात्मिक दर्शन के गीतों को भी इस संग्रह में समुचित स्थान दिया है । बिना प्रेम की अभिव्यक्ति के साहित्य के विभिन्न आयामों में सिद्धहस्त लेखन कर पाना किसी भी रचनाकार के लिये कठिन श्रम साध्य ही नहीं असंभव ही होता है । पृष्ठ 86 पर एक प्रेम गीत की पंक्तियाँ देखें –
” प्राण में जब खिले कामना के सुमन,
गीत मकरंद बनकर महकने लगे ।
मन गगन पर पड़ी कामना की किरण
शब्द खग छंद बनकर चहकने लगे ।।

रूप का चन्द्रमा नैन नभ पर खिला,
मन में लावण्य की कौमुदी छा गयी।
किन्तु जब कामना कृष्णपक्षी हुई,
जाने कब वर्जना की अमा आ गयी ।
जब विरह की अनल में सपन जल उठे
भाव अंगार मन में दहकने लगे ।।”
बस यूँ ही इस गीत संग्रह के गीतों का अमिय पीते पीते आनंद के अभीष्ट अर्थात विश्रामस्थली तक पहुँच कर गीत के सात्विक सनातन बोध तत्व की गहनता को थोड़ा जान सका हूँ । पृष्ठ 164 पर संग्रह के अंतिम गीत की पंक्तियाँ देखें –
“बोल सको तो प्रेम भरे दो शब्द आज बोलो,
भले चित्र को मेरे कल माला मत पहनाना ।।

सुखी देख तुमको चिंता मिट जाती है मन की ।
व्यथित देखकर तुम्हें व्यथा बढ़ जाती जीवन की ।
आकर बैठो पास हृदय की गाँठें तो खोलो,
चाहे कल यादों से अपना मन मत समझाना ।।”
मैं अपनी लगभग 50 वर्षीय गीत यात्रा और एक समीक्षक की दृष्टि से यह कह सकता हूँ कि डाॅ. राम वल्लभ आचार्य के इस गीत संग्रह की भाषा सहज सरल और बोधगम्य है । गीतों के छंद विधान की निपुणता मात्रिक और वार्णिक दोनों में ही दृष्टिगत होती है । कुछ गीतों में लयभंग एवं खटक का आभास होता है जिसका निवारण गीत पंक्ति के शब्दों का स्थान परिवर्तन करके किया जा सकता था । प्रकाशन की दृष्टि से “आईसेक्ट पब्लिकेशन का कार्य श्रेष्ठतम और स्वागत योग्य है ।
कृति का नाम – गीतों के गाँव में
कृतिकार का नाम – डाॅ. राम वल्लभ आचार्य
कृति की रचनाओं की विधा – गीत
प्रकाशक – आइसेक्ट पब्लिकेशन, भोपाल
मूल्य – ₹ 250/- मात्र

समीक्षक – ऋषि श्रंगारी (गीतकार)

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