कृषि नीतियों का पुनरीक्षण ज़रूरी…

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केंद्रीय बजट 2025-26 में कृषि क्षेत्र के विकास के लिए अनेक प्रावधान रखे गए हैं। प्रमुख हैं- पीएम धन-धान्य कृषि योजना के अंतर्गत 100 जिलों में उत्पादकता बढ़ाकर 1.7 करोड़ किसानों का विकास करना। दालों,खासकर अरहर,उड़द और मसूर में आत्मनिर्भरता के लिए एक खास मिशन का गठन करना। लगभग 7.7 करोड़ मछुआरों,किसानों तथा डेयरी किसानों की मदद के लिए किसान क्रेडिट कार्ड की ऋण सीमा बढ़ाकर ₹5 लाख तक करना। काॅम्प्रहैंसिव रूरल प्रोस्पेरिटी एंड रेसिलियंस कार्यक्रम के तहत ट्रेनिंग,टेक्नोलॉजी और निवेश द्वारा स्थानीय कृषि और रोजगार बढ़ाना,ताकि प्रवास विकल्प बने, मजबूरी नहीं। स्वयं सहायता समूह के सदस्यों और ग्रामीण इलाकों के लोगों की ॠण आवश्यकताओं के लिए ‘ग्रामीण क्रेडिट स्कोर’ का ढांचा तैयार करना।
कृषि अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करने की दिशा में इसे एक सकारात्मक प्रयास माना जा सकता है।

मध्य प्रदेश के आगामी बजट में भी कृषि क्षेत्र के लिए ऐसे ही किसान हितैषी प्रावधान अपेक्षित हैं।

सवाल है योजनाओं को अमली जामा पहनाने का और बजट में आवंटित राशि के शत प्रतिशत सदुपयोग का।

तमाम योजनाओं के क्रियान्वयन की जवाबदारी राज्य सरकारों की होती है। देखने सुनने में योजनाएं कितनी ही आकर्षक क्यों न हों,यदि उनका क्रियान्वयन ठीक ढंग से नहीं किया जाए तो वांछित परिणाम प्राप्त किया जाना असंभव है।
मध्य प्रदेश के एक उदाहरण के माध्यम से इसे आसानी से समझा जा सकता है। प्रदेश में प्रचलित खाद्य सुरक्षा मिशन,रेनफेड एरिया डेवलपमेंट, राष्ट्रीय कृषि विकास योजना, परंपरागत कृषि विकास योजना जैसी योजनाओं के लिए केंद्र द्वारा ₹422.04 करोड़ बजट स्वीकृत है।वर्ष 2024-25 में प्रदेश का कृषि विभाग उसमें से अब तक सिर्फ ₹ 105.51 करोड़ की एक ही किस्त प्राप्त कर सका है। निर्धारित व्यय नहीं हो पाने की वजह से शेष राशि अब तक जारी नहीं हो सकी है। इसका सीधा सा मतलब यह है कि योजनाओं का क्रियान्वयन ठीक ढंग से नहीं हुआ।

क्या इन तौर-तरीकों से कृषि और कृषि अर्थव्यवस्था के उन्नयन के लक्ष्य हासिल किए जा सकते हैं?स्पष्ट है,मध्य प्रदेश किसान कल्याण तथा कृषि विकास विभाग के वर्तमान ढर्रे के चलते तो यह संभव नहीं है।

दरअसल कृषि विभाग के समक्ष दो तरह की चुनौतियां हैं। पहली चुनौती तकनीकी प्रकृति की है।
भूमि का निरंतर विखंडन,कृषि जलवायु क्षेत्र की अनुशंसाओं को नजरअंदाज करना,सिंचित क्षेत्र का बहुत धीमी गति से बढ़ना, सिंचाई के संसाधन बढ़ाने में केवल जल संसाधन विभाग पर निर्भरता, समयानुकूल नीतियों के निर्माण पर ध्यान नहीं दिया जाना तथा केंद्र और राज्य की योजनाओं का सुचारू रूप से संचालन ना हो पाना आदि को इसके तहत रखा जा सकता है।
दूसरी चुनौती प्रशासनिक प्रकृति की है। विभाग के सेटअप में आवश्यकतानुसार सुधार नहीं किया जाना, विभाग के लिए वित्त अधिकार भाग 2 में आवश्यकतानुसार संशोधन नहीं होना जैसी समस्याओं को इसके तहत रखा जा सकता है।

सिंचित रकबा बढ़ाने के लिए केवल जल संसाधन विभाग पर निर्भरता की नीति पर पुनर्विचार किए जाने की आवश्यकता है। वर्ष 2013 तक भूमि एवं जल संरक्षण कार्यो के साथ-साथ 40 हेक्टेयर सिंचाई क्षमता से कम के स्टाप डैम एवं जल संग्रहण तालाबों का निर्माण कृषि विभाग द्वारा किया जाता रहा है।
एक ओर तो कृषि विभाग ने वर्ष 2013 सेअपने 81 भूमि संरक्षण उपसंभागों को निष्क्रिय कर रखा है, वहीं दूसरी ओर प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना जैसी महत्वपूर्ण योजना के घटक ‘हर खेत को पानी’ का क्रियान्वयन भी बंद है।
प्रदेश में सिंचित रकवा बढ़ाने का लक्ष्य ऐसे तो हासिल नहीं किया जा सकता।
राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य के अनुरूप नीतियों का पुनरीक्षण किया जाना भी जरूरी है। कृषि विस्तार नीति,प्रशिक्षण नीति,कृषि आदान उत्पादन एवं विपणन नीति,आयात-निर्यात नीति,भूमि एवं जल संरक्षण नीति,कृषि पर आधारित सहकारिता नीति,कृषि अनुसंधान एवं विकास नीति,परंपरागत फसलों का उत्पादन एवं संवर्धन नीति,कृषि उपज भंडारण एवं विपणन नीति,अंतर राज्य व्यापार नीति, कृषि एवं ऊसर भूमि प्रबंधन नीति,जैविक एवं गन्ना नीतियों में समयानुकूल संशोधन नितांत आवश्यक है।

देश में 15 कृषि जलवायु क्षेत्रों का निर्धारण 50 वर्ष पूर्व किया गया था। तब से स्थितियां बदली हैं। कृषि जलवायु क्षेत्रों का पुनरीक्षण भी आवश्यक है।

प्रदेश में कृषि निर्यात को बढ़ावा देने के लिए भारत सरकार की संस्था APEDA के समानांतर राज्य स्तरीय संस्थान की भी महती आवश्यकता है। कृषि उद्योग विकास निगम का उन्नयन कर उसे कृषि निर्यात संबंधी नीतियों के क्रियान्वयन की जिम्मेदारी सौंपी जा सकती है।
RKVY की योजना पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप फॉर एग्रीकल्चर वैल्यू चैन डेवलपमेंट का अधिकतम लाभ लिए जाने की भी आवश्यकता है।
राज्य में किसानों के पास उपलब्ध संसाधन एवं किसानों की विभिन्न श्रेणियों का डाटा बनाए जाने की भी आवश्यकता है। कंप्यूटरीकृत डाटा,योजनाएं बनाने एवं उनके क्रियान्वयन में मददगार साबित हो सकता है।
योजनाओं के लिए उपलब्ध धनराशि का शत प्रतिशत सदुपयोग हो,इसके लिए विभागीय ढांचे में सुधार, आज की सबसे बड़ी जरूरत है। इसके साथ ही प्रदेश में मौजूद विषय विशेषज्ञों की सहायता भी विकास मूलक गतिविधियों के लिए ली जा सकती है।

कृषि एवं कृषि आधारित अर्थव्यवस्था समय सीमा में अपने निर्धारित लक्ष्यों को हासिल कर सके, इसके लिए प्रचलित नीतियों के समयानुकूल पुनरीक्षण की आवश्यकता है।
सबसे बड़ी आवश्यकता है ऐसी कार्य संस्कृति को बढ़ावा देने की जिसमें प्रत्येक स्तर पर जिम्मेदारी तय हो।कर्मठ लोग पुरस्कृत हों और बेगार टालने वाले लोगों को यथायोग्य सबक मिले।

आशुतोष श्रीवास्तव
(लेखक कृषि मामलों के जानकार हैं। आलेख में व्यक्त विचार उनके व्यक्तिगत हैं।)

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