भंगोर्या : उमंग और उल्लास से सराबोर लोक उत्सव
भंगोर्या मालवा-निमाड़ के आदिवासी अंचल का प्रमुख लोकोत्सव है, जिसे आम बोलचाल में भगोरिया कहा जाता है।
फाल्गुन की शुरुआत के साथ ही रोजगार की तलाश में देश के दूर दराज प्रदेशों में गए आदिवासी समाज के लोग अपने-अपने गांव लौटने लगते हैं।
आदिवासी लोग अपने स्वभाव से ही सहज,सरल और मेहनती होते हैं। यही कारण है कि निर्माण कार्यों में मेहनत मजदूरी करने के लिए ठेकेदारों और निर्माण एजेंसियों की पहली पसंद होते हैं। यह लोग निर्माण स्थल पर परिवार सहित निवास करते हैं।रोजगार के लिए अपने गांव-फलिए से पलायन, आदिवासी समाज का शौक नहीं,अपितु मजबूरी है।
लेकिन उनके दिलों में अपना गांव हमेशा धड़कता रहता है। साल भर हाड़ तोड़ मेहनत करने के बाद, शायद ही इस समाज का कोई व्यक्ति होगा जो अपने गांव नहीं लौटता हो।
उनके जीवन की तमाम दुश्वारियां, फागुनी बयार और मादल की थाप के बीच जैसे तिरोहित हो जाती हैं। मस्ती,उमंग और उल्लास का बेजोड़ समागम है भगोरिया पर्व। यह सामाजिक समरसता एवं अपनी जड़ों के प्रति अटूट प्रेम का प्रतीक भी है।
भंगोर्या अथवा भगोरिया के बारे में अनेक मिथक प्रचलित हैं। प्रसार माध्यमों ने अपने-अपने तरीके से किस्से कहानियां गढ़कर इस लोक पर्व की एक अलग ही छवि बना दी है। जबकि वास्तविकता कुछ और है।
कहा जाता है कि राजा भोज के शासनकाल में भील राजाओं कासुमार और बालून ने भागोरा से इस पर्व की शुरुआत की थी। उस दौर में ना तो अधिक संसाधन थे और ना ही सामाजिक मेल- मिलाप का कोई और तरीका। हॉट-बाजार ही मेलजोल और आवश्यक जिंसों की खरीदारी का केंद्र हुआ करते थे। इसी मेल मिलाप के दौरान रिश्तो के ताने-बाने भी बुने जाते थे। धीरे-धीरे इसने परंपरा का रूप ले लिया और कालांतर में यह आदिवासी समाज का सबसे बड़ा लोक पर्व बन गया।
मालवांचल में प्रचलित कहावत “हाट बाजार भी करी लांगा औऱ बेईजी से भी मिली लांगा” शायद यहीं से प्रचलन मे आयी होगी।
आदिवासी समाज की एक और बात प्रशंसनीय है कि उनमें लड़के और लड़कियों के बीच कोई भेद- भाव नहीं किया जाता। दोनों के जन्म के समय एक जैसी खुशियां मनाई जाती हैं। आदिवासी समाज में कन्या भ्रूण हत्या के मामले सुनने में नहीं आते। आदिवासियों को अपनी मेहनत पर भरोसा होता है, इसीलिए विवाह के समय कोई यह नहीं पूछता कि लड़का कितना कमाता है। उन्हें भरोसा होता है कि विवाह के बाद दोनों मिलकर अपनी गृहस्थी चला लेंगे।
शिक्षा के प्रचार-प्रसार और सूचना क्रांति के दौर में इन मेलों के स्वरूप में भी परिवर्तन हुआ है। लेकिन जो परिवर्तित नहीं हुआ है वह है आदिवासी समाज का अपनी जड़ों के प्रति प्रेम।
सहजता,सरलता और कर्मठता उनके जीवन का स्थाई भाव है, जिसे चटख रंग, बांसुरी की तान और मादल की थाप से निरंतर ऊर्जा मिलती है।
फागुन की आमद के साथ ही एक बार फिर मालवा निमाड़ के आदिवासी अंचल में बांसुरी की तान और मादल की थाप गूंज उठी है। जैसे-जैसे होली नज़दीक आएगी,भगोरिया मेलों की सज-धज और भी बढ़ती जाएगी।
अब तो भगोरिया मेले पर्यटकों को भी लुभा रहे हैं। इन मेलों की प्रसिद्धि सुनकर हजारों पर्यटक यहां आने लगे हैं। हर आगंतुक से यही अपेक्षा है कि वह इस लोकोत्सव के मूल भावों का ही दर्शन करें।
सुविधा के लिए थार,झाबुआ एवं अलीराजपुर जिलों के प्रमुख भगोरिया मेलों की जानकारी यहां दी जा रही है…
जिला -धार
07 मार्च शुक्रवार – धरमराय व पड़ियाल (डही), धामनोद, मनावर, जोलाना।
08 मार्च शनिवार- कवड़ा व बाबली (डही), खलघाट, मांडू।
09 मार्च रविवार- बड़वान्या (डही), राजगढ़, गंधवानी, टांडा, भारुड़पुरा।
10 मार्च सोमवार – फिफेड़ा (डही), बाग, निसरपुर, डेहरी, धानी, गुमानपुरा।
11 मार्च मंगलवार- करजवानी (डही), कुक्षी, नालछा, धरमपुरी, तिरला।
12 मार्च बुधवार- अराड़ा (डही), सरदारपुर, सलकनपुर, गोलपुरा।
13 मार्च गुरुवार- डही, रिंगनोद, दत्तीगांव, गुजरी, बाकानेर, सिंघाना
जिला झाबुआ एवं अलीराजपुर
07 मार्च- वालपुर, कट्ठीवाड़ा, उदयगढ़, भगोर, बेकल्दा, माण्डली व कालीदेवी
08 मार्च- नानपुर, उमराली, राणापुर, मेघनगर, बामनिया, झकनावदा व बलेड़ी
09 मार्च- छकतला, कुलवट, सोरवा, आमखुट, झाबुआ, झिरण, ढोल्यावाड़, रायपुरिया, काकनवानी व कनवाड़ा
10 मार्च- अलीराजपुर, आजाद नगर, पेटलावद, रंभापुर, मोहनकोट, कुन्दनपुर, रजला, बडागुडा व मेड़वा
11 मार्च- बखतगढ़, आम्बुआ, अंधारवाड़, पिटोल, खरडू, थांदला, तारखेड़ी व बरवेट
12 मार्च- बरझर, खट्टाली, चांदपुर, बोरी, उमरकोट, माछलिया, करवड़, बोड़ायता, कल्याणपुरा, मदरानी व ढेकल
13 मार्च- फुलमाल, सोण्डवा, जोबट, पारा, हरिनगर, सारंगी, समोई व चैनपुरा
*पंकज जैन, धार
(लेखक एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं। लेख में व्यक्त विचार उनके व्यक्तिगत हैं।)


