विश्वभर में युद्ध चर्चा का विषय हैं। शक्तिशाली देश शक्ति और सत्ता संतुलन के लिए अपने से कमजोर देशों पर कब्जा करना चाहते हैं। उन्हें आर्थिक रूप से कमज़ोर करके उनकी कमर तोड़ देना चाहते हैं। इन युद्धों के पीछे शक्तिशाली ताकतें, विदेश नीतियाँ, समझौते, समर्पण सब काम करते हैं। इन युद्धों के परिणाम भविष्य की गर्त में छुपे हैं। किन्तु इनसे सबसे अधिक प्रभावित होती हैं वहाँ की महिलायें। कितना भी विकसित देश हो महिलाओं की सुरक्षा और उनके साथ हो रहे भेदभावों को पूर्णतः मिटा नहीं सका है।
महिलाओं की भलाई सीधे तौर पर देश की भलाई से जुड़ी होती है। जिन देशों में महिलाओं के साथ कट्टरता का व्यवहार होता है या हथियारों पर अधिक व्यय किया जाता है वहाँ की स्थितियाँ सुखद नहीं हैं। ऐसे अनेक उदाहरण हैं जिनमें लोकतंत्र के अभाव में ऐसे कानूनों को बढ़ावा मिला है जो महिलाओं की स्थितियों को नारकीय बना देते हैं।
महिलाओं की समानता और लैंगिक संघर्ष की लडाइयां सदियों से चली आ रही है। वर्ष 2035 तक के लिए निर्धारित सतत विकास के 17 लक्ष्यों में एक यह भी है। किन्तु युद्ध इस दिशा में किये गए प्रयासों को बहुत पीछे धकेल देते हैं ।
सुरक्षा और अधिकारों की दृष्टि से देखा जाए तो डेनमार्क, स्विट्जरलैंड, स्वीडन, फिनलैंड और लक्जमबर्ग महिलाओं की दृष्टि से सबसे सुरक्षित और शीर्ष देश हैं। डेनमार्क ऐसा देश है जहां सभी महिलाओं को बैंक खाते तक पहुंच प्राप्त है,जहां पूर्णतः लैंगिक समानता वाला कानूनी कोड है तथा न्याय तक महिलाओं की पहुंच है।
जर्मनी और नीदरलैंड विश्व बैंक की उन देशों की सूची में नवीनतम नाम हैं जहां महिलाओं को पूर्णतः समान अधिकार प्राप्त हैं। राजनीतिक हिंसा और मातृ मृत्यु दर के चलते अमेरिका सर्वोत्तम देशों में शामिल नहीं है। जबकि अफगानिस्तान, यमन, मध्य अफ्रीकी गणराज्य और दक्षिण सूडान में आधे से अधिक महिलाएं सतत संघर्ष के लिए अभिषप्त हैं।
2023 से इजराइल-हमास युद्ध निरंतर जारी है। इस संघर्ष में गाजा पट्टी पर सबसे ज्यादा खतरे में महिलाएं, लडकियां और बच्चे हैं। उनके साथ दुर्व्यवहार की हदें पार कर दी गईं। संयुक्त राष्ट्र के विशेषज्ञों ने गर्भवती और स्तनपान कराने वाली महिलाओं के प्रति भयावह व्यवहार, महिलाओं और लडकियों के साथ यौन हिंसा और बर्बरता पर विस्तार से रिपोर्ट तैयार की है।
अफगान में महिलाओं का दर्द अकल्पनीय है । अफगानिस्तान की तालिबान सरकार ने शरिया कानून के तहत अपने यहाँ की महिलाओं का जीना दूभर किया हुआ है। सत्ता में आने के बाद से तालिबानी हर जगह से इस कानून के नाम पर महिलाओं को खदेड़ रहे हैं।उन्हें शिक्षा से वंचित किया जा रहा है। महिलाओं का हंसना, बोलना, गाना,बजाना सब पर पहरा है। वे अकेली यात्राएं नहीं कर सकतीं, यहाँ तक कि टैक्सी में भी अकेले बैठकर नहीं जा सकतीं। यदि ऐसा हुआ तो उनके साथ टैक्सी ड्राईवर को भी सजा मिलेगी। पुरुष डॉक्टरों से इलाज की मनाही है। महिलाओं को अपना चेहरा ढक कर रखना होता है। उनके लिवास पर भी मोरालिटी पुलिस की नजर होती है।लड़कियों के लिए नौ साल की उम्र तक विवाह करके बच्चे पैदा करने पर जोर है। नए घरों में खिड़कियाँ नहीं बनाई जा सकतीं, ताकि महिलाएं बाहर ना झाँक सकें। पहले से बनी हुई खिडकियों को बंद करने का भी आदेश है।
और इस सब के पीछे स्त्री चरित्र को सुरक्षित रखने का कुतर्क दिया जा रहा है।
महिलाओं के प्रति ऐसी भयानक तस्वीरों की कल्पना शरीर में रोंगटें खड़े कर देती है. इनके विरुद्ध कोई आवाज़ उठाने वाला नहीं है। यहाँ तक कि विश्व स्तर की महिला संस्थाएँ भी इनकी मदद नहीं कर सकीं। कभी कभार कोई स्वर सुनाई भी दे तो उसे दबाने के लिए और बड़ी संख्या में स्वर मौजूद होते हैं।
सूडान में युद्ध ने महिलाओं और लड़कियों की सुरक्षा को बड़े खतरे में डाल दिया। यहां विस्थापित व्यक्तियों में आधे से अधिक महिलायें हैं, और वे लिंग आधारित हिंसा से लगातार जूझ रही हैं। वे अंतरंग साथी हिंसा, यौन शोषण,दुर्व्यवहार और मानव तस्करी जैसी परिस्थितियों का शिकार भी होती हैं।
दूसरी ओर ईरान की महिलायें हैं, जिनका संघर्ष 1979 से जारी है। महिलाओं ने अपने ही देश के उन कानूनों को चुनौतियां दीं जो उनके अधिकारों का हनन कर रहे थे। महिलाओं ने स्कार्फ जलाये, बाल कटवाए, सार्वजनिक रूप से स्वतंत्रता का उत्सव मनाते हुए सड़कों पर उतरीं। वे किसी भी रूढ़िवादी नेतृत्व स्वीकार नहीं करना चाहतीं।
भारत के संविधान में महिलाओं को समानता प्राप्त है। किन्तु वास्तविक धरातल पर अभी भी विभेद हैं। गांधी के बाद महिला समानता पर यदि किसी ने बात की तो वे डॉ राममनोहर लोहिया थे। जिन्होंने अपनी सप्तक्रान्ति में लिंग भेद पर बात की।
इसमें कोई दो राय नहीं कि महिलाओं की स्थिति में बहुत परिवर्तन आया है। शिक्षा, नौकरी, व्यापार, शोध, लेखन, इंजिनीयर, डॉक्टर, वैज्ञानिक, रक्षा, खेल किसी भी क्षेत्र से महिलायें अब वंचित नहीं हैं। चाँद पर पहुँचने की जिद हो या मंगल पे घर बसाने की, सभी जगह महिलाओं ने अपनी घरेलू जिम्मेदारियों के साथ यहाँ पहुँचने में सफलता प्राप्त की है ।
बात शुरू हुई थी युद्ध से। युद्ध का समाधान है शांति और अहिंसा। जहां शांति प्रयासों में महिलाओं की भागीदारी होगी, वहां एक ओर तो सफलता शीघ्र मिलेगी, दूसरी ओर शांति टिकाऊ भी होगी।
अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाना तभी सार्थक होगा जब विश्व की सभी महिलाओं को समान अधिकार प्राप्त हों, और सार्वजनिक जीवन में उनकी बराबर की सहभागिता हो।
*डॉ शिवा श्रीवास्तव
(लेखिका स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। लेख में व्यक्त विचार उनके व्यक्तिगत हैं।)