बेतवा नदी का उद्गम पर लुप्त होना, मात्र उसके द्वारा सिंचित एवं पालित श्रेत्र के लोगों के लिए जीवन मरण का प्रश्न नहीं है, बल्कि संपूर्ण मानवता के लिए चेतावनी है कि यदि अब भी नहीं सुधरे तो भविष्य में अस्तित्व ही खतरे में पड़ सकता है!
वर्तमान पूंजीवादी विश्व व्यापारीकरण के जमाने में पैसा कमाने की होड़ में आधुनिकता एवं विकास के नाम पर जल एवं अन्य प्राकृतिक संसाधनों का जिस प्रकार अंधाधुंध दोहन हो रहा है, वह भी इसका एक कारण है! विडंबना है कि प्रकृति, पर्यावरण एवं संस्कृति संरक्षण एवं संवर्धन के लिए कार्यरत शासकीय और अशासकीय संस्थाएँ हमेशा की तरह 22 मार्च को जल दिवस मनाने का विज्ञापनी प्रपंच करती ज़रूर नज़र आयेंगीं, परन्तु इस मुद्दे पर वही लीपापोती होगी! खाने के दाँत और हैं दिखाने के और!
ऐसी घटनाओं पर सारा दोष सरकारों एवं राजनीति पर मढ़कर अपनी जिम्मेदारी से बचने की परंपरा है। जबकि भारतीय संस्कृति में जीवन के हर समय में जो धर्म-कर्म-कांड एवं सोलह संस्कार तय किये गये हैं, वे सभी किसी-न-किसी रूप में प्रकृति संरक्षण-संवर्धन से जुड़े हुए हैं! लेकिन हर क्षेत्र में नीमहकीमों की तरह दुकान खोले बैठे तथाकथित ‘जल सेवक’ एवं ‘पर्यावरणविद’ जनता के बीच समाजसेवी का चेहरा और सरकार तथा व्यापारियों के बीच उनके मददगार बने रहकर अपना ‘ब्रांड’ चमकाते देखे जा सकत हैं!
इस स्थिति के लिए तुलसीदासजी कह गये हैं- “ झूठइ लेना झूठइ देना, झूठइ भोजन झूठ चबेना। बोलहिं मधुर बचन जिमि मोरा, खाइ महा अहि ह्रदय कठोरा।।‘ जब कुएँ में ही भांग पड़ी हो तो दोष किस पर मढ़ा जाये….?
लेकिन प्रजातंत्र में सरकार इससे नहीं बच सकती, परन्तु वहाँ भी जनता के भाई-बहिन बैठे हैं, जो सबकी नब्ज़ जानते हैं…! वे मुफ्त राशन एवं आश्वासनों के प्रलोभनों के सम्मोहन के बीच कागज़ी जाँच समितियाँ बैठा कर सबको संतुष्ट कर देते हैं। क्योंकि याददाश्त बहुत छोटी होती है! परन्तु यह नहीं भूलना चाहिए कि प्रकृति का कालचक्र किसी को नहीं छोड़ता!
पृथ्वी के अंदर भौतिक एवं रासायनिक प्रक्रियाओं के कारण जो विस्फोटक घटनाक्रम घटता रहता है, उसके परिणामस्वरूप भूमिगत ‘प्लेटों’ के बीच पैदा होने वाली दरारों में बह रहे तरल पदार्थ एवं पानी द्वारा निर्मित जलभृत (पानी के भंडार) एक दूसरे से मिलकर अंदर एक बहती हुई नदी बना लेते हैं, जो बाहर सतह पर नदी की धारा (बेतवा) की तरह प्रकट होती है। नदियाँ तीन प्रकार से बनती हैं, पहली उपरोक्त प्रकार, दूसरी वर्फीले पहाड़ों से निकलकर और वर्फ के पिघलनें से एवं तीसरी बरसाती पानी एवं वर्फ पिघलने के कारण बनी झीलों से निकली नदियाँ।
पानी सृष्टि में जितना था, वह हमेशा उतना जल, वर्फ़ और वाष्प के रूप में बना रहता है। सूर्य को नदियों का जनक कहा गया है। वह सतही पानी को वाष्प के रूप में बादलों में एकत्रित करता है, और बरसात के माध्यम से संपूर्ण प्रकृति को तरबतर करते हुए भूमिगत जलस्रोतों को भरते हुए समुद्र में वापस पहुँच जाता है। यह चक्र निरंतर एक प्राकृतिक व्यवस्था जिसे वैज्ञानिक भाषा में पारिस्थितिकी (ईकोलॉजी) कहते हैं के अंतर्गत चलता रहता है। यही प्रक्रिया बर्फीले पहाड़ों पर होती है। सूर्य की तपस से ग्लेशियर पिघलते हैं, वह पानी नदियाँ समृद्ध करते एवं पृथ्वी की प्यास बुझाते हुए सतही जलाशयों में पहुँच जाता है। ग्लेशियर शीतकाल में पुन: बनते रहते हैं। लेकिन जब प्राकृतिक पारिस्थितिकी प्रक्रिया का संतुलन बिगड़ जाता है, तब अल्प या अधिक वर्षा होने लगती है , ग्लेशियर कम होते जा रहे हैं एवं समुद्र में पानी बढ़ रहा है।
बेतवा भूमिगत नदी है, एक समय जिसके चारों ओर घने जंगल हुआ करते थे। उस समय वहाँ बहुत सीमित स्तर पर प्राकृतिक खेती होती थी, परन्तु अब जंगल साफ होते जा रहे हैं, रासायनिक खेती वह भी गेहूँ का रकबा कई गुना बढ़ता जा रहा है, जिसकी सैंकड़ों ट्यूबवेलों द्वारा अनाप-शनाप सिंचाई की जा रही है। वहीं रासायनिक एवं कीटनाशकों के दुष्प्रभाव से सतही एवं भूमिगत जलस्रोतों के मूल छिद्रस्रोत बंद हो जाते हैं, नदी किनारे ईंट-भट्टों के कारोबार के दुष्परिणाम स्वरूप नदी में खुलने वाले जलस्रोत बंद हो जाते हैं। ऐसा ही नदी में छोड़े जा रहे मल-मूत्र एवं नगरीय तथा औद्योगिक कचरा तथा धार्मिक कर्मकांडों पर विसर्जित सामग्री आदि से होता है।
आज बहुत गंभीरता से इस घटना पर बिना किसी राजनीति एवं व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा के निर्णय लेने की जरूरत है। बेतवा अब पवित्र पौराणिक बेतवा नहीं रही, बल्कि कलियासोत बन कर रह गयी है! आज सरकार को ही नहीं , आमजनता को जागने की जरूरत है…! धर्म-संस्कृति को बचाने के लिए धर्माचार्यों के आगे आने की ज़रूरत है…!
डॉ. सुरेश गर्ग
(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता है एवं बेतवा उत्थान समिति के माध्यम से नदी के उत्थान हेतु कार्यरत हैं।)

विश्व जल दिवस (22 मार्च) के अवसर पर बेतवा के उद्गम स्थल ग्राम झिरी में पर्यावरण एवं नदी प्रेमी एकत्रित हुए। पर्यावरणविदों, ग्रामीण विकास विभाग के अधिकारियों, बेतवा उत्थान समिति के सक्रिय सदस्यों एवं ग्राम पंचायत झिरी के जनप्रतिनिधियों की उपस्थिति में बेतवा को पुनर्जीवित करने के संबंध में ठोस कार्य योजना पर चर्चा हुई।