यह न तो सन 712 ईस्वी है, न सन 1199 ईस्वी। न ही कोई सन 1757, 1761 अथवा 1764 है। जब युद्ध कठिन सीमावर्ती क्षेत्रों में सिर्फ सैनिक लड़ते थे तथा उनके पास सीमित हथियार होते थे। तकनीक का अर्थ केवल घेराबंदी और व्यूह रचना था। उन युद्धों का उद्देश्य केवल राज्य का विस्तार एवं अपना आधिपत्य जमाकर राजस्व बढ़ाना होता था। आम जनता को कोई लेना–देना नहीं होता था। कुछ दुर्दांत और क्रूर विजेता राजा/बादशाह अपने सैनिकों को लूटपाट और महिलाओं के सम्मान पर हमला करने की छूट दे देता था। जैसा दिल्ली ने अपनी छाती पर खूनी खेल 1757 में एक महीने तक देखा था।
और यह भी सत्य है कि न ही यह सन 1948, 1962,1965, 1971, या 1999 ईस्वी है। तब भी युद्ध का अर्थ सीमा, सैनिक और सरकार की नीति का अंग था। राज्य का विस्तार तथा कर अधिरोपित करने का सिद्धांत समाप्त हो चुका था। थोपे गए युद्ध हमें अपनी सुरक्षा हेतु लड़ने पड़े थे। हमने बलात आक्रमण का उत्तर देकर कश्मीर का भूभाग भी बचाया तथा भारत ने लाहौर के हवाई अड्डे के बर्की थाने के रोजनामचे पर अधिकार कर वहां तिरंगा भी लहराया और फिर दुश्मन के दो टुकड़े भी किए। कारगिल की चोटियों को भी शत्रु विहीन किया। लेकिन चीन द्वारा पंचशील का उल्लंघन कर घोंपे खंजर को भी नहीं भूले हैं।
उस समय तक सामाजिक चेतना का इंडेक्स देश के प्रति अधिक संवेदनशील और उत्तरदायित्व पूर्ण था। आम नागरिक एक–दूसरे के विचार और भावनाओं का सम्मान करते थे। किसी का भी निजी विचार कुछ भी हो लेकिन देश के प्रति सभी सतर्क रहते थे। संचार, सूचना और प्रसारण जैसे साधन गलाकाट प्रतियोगिता में फंसे हुए नहीं थे।
लेकिन आज दुनिया में युद्ध की विभीषिका मानव जाति के लिए अपना अर्थ बदल चुकी है। यूक्रेन और रूस तथा इजरायल और फिलिस्तीन के युद्ध सारी मानवीय संवेदना को परे रख कर लड़े जा रहे हैं। उनके उद्देश्य भी भिन्न हैं।
हम हमेशा शांति के पक्षधर रहे हैं। किंतु पाकिस्तानी सोच विगत कई वर्षों से लगातार भारत के सिद्धांत और विचार पर आक्रमण कर रही है।
यह सीमाओं का युद्ध नहीं संस्कृतियों का युद्ध है। विगत दिनों जब पाकिस्तान के सेना प्रमुख मुनीर ने कहा था कि भारतीय विचार और पाकिस्तानी सोच अलग है ,आशंका तो तब ही खड़ी हो गई थी कि अपने पूर्ववर्तियों के नक्शे–कदम पर चलते हुए मुनीर अपनी महत्वाकांक्षा पूरी करने फिर से इस क्षेत्र की शांति के साथ खिलवाड़ करने वाला है;और यह आशंका सत्य निकली।
अब युद्ध सिर्फ सीमा पर सैनिकों के बीच नहीं लड़े जाते। वैश्विक स्तर पर यह बड़ा व्यवसाय बन गया है।
अब युद्ध के सिद्धांत भी नहीं रहे।फिर शत्रु जब पूर्णतः नीति विहीन, सिद्धांत शून्य, हठी, और उस्तरा थामे बंदर की प्रकृति वाला हो तो वह नीच से भी नीच हरकत करने से बाज नहीं आएगा।
नागरिक क्षेत्र उसके निशाने पर होंगे तथा हथियारों के दुष्ट व्यापारी उसे “लगे छू” करके अपना उल्लू सीधा करेंगे ही। इसलिए हमारे संचार साधन तथा सूचना और प्रसारण के माध्यमों को बहुत ही संयम, सतर्कता और मर्यादा में रहना जरूरी है। किसी भी प्रकार की सनसनी और नकारात्मकता नागरिक सुरक्षा हेतु घातक हो सकती है। राष्ट्रीय दूरदर्शन चैनल, आकाशवाणी तथा मंत्रालय की जिम्मेदारी जहां बहुत बड़ी है,वहीं निजी चैनलों और सोशल मीडिया पर भी सतर्कता तथा सावधानी की आवश्यकता है।
हर भारतीय नागरिक को भी सावधान रहना चाहिए कि उसका कोई कृत्य, टिप्पणी अथवा आचरण जाने–अनजाने में ही सही,दुश्मन को लेशमात्र भी लाभ न पहुंचा दे।
अब जब मुनीर ने षडयंत्र कर ही दिया पहलगाम में तो इंद्रप्रस्थ को भारत के भाल पर सुशोभित सिंदूर को आश्वस्त करना ही था कि वह देश में सुरक्षित है। पहलगाम के सिंदूर की कीमत तो मुनीर और शाहबाज को चुकानी ही होगी।
*चौ मदन मोहन समर