बचपन में जब हम दादी माँ के संग आँगन में बैठ कर तारों भरे आकाश को देखा करते थे, तब आकाशगंगा के फैलाव में मनुष्यता का सहज विस्तार महसूस होता था। अब, जब हाथ में स्मार्टफोन थामे, उंगलियों के स्पर्श मात्र से ब्रह्मांड का सारा ज्ञान सुलभ है, तब भी मन भीतर कहीं सूना और अकेला सा रह जाता है।
क्या सचमुच हम प्रगति कर रहे हैं, या केवल अपने मानवत्व के कोमल धागों को स्वयं से छीनते जा रहे हैं?
डिजिटल युग में, जहाँ संचार की रफ्तार प्रकाश से होड़ करती है, वहाँ संवाद खोते जा रहे हैं। कभी जो बातें आँखों में बसी भावनाओं से कही जाती थीं, अब वे इमोजी के पीले चेहरों में सिमट कर रह गई हैं। डिजिटल दुनिया ने हमें जोड़ा जरूर है, लेकिन जुड़ने की गहराई कहीं छिन गई है। एक ओर वैश्विक गाँव का स्वप्न है, दूसरी ओर आत्मीयता का अवसान।
मित्रों की सूचियाँ लंबी होती जा रही हैं, परंतु विश्वास से भरे संवाद दिन-ब-दिन दुर्लभ। लाइक, शेयर, कमेंट — इन आभासी अनुमोदनों के पीछे छुपी वास्तविक मुस्कानें, सहानुभूति के चुपचाप बढ़े हाथ, और मौन में बसी समझदारी कहीं खो सी गई है। सोशल मीडिया के समुद्र में तैरते हम सब कहीं अपनी पहचान, अपना अंतरतम खोने लगे हैं।
डिजिटल उपकरण, जो कभी साधन मात्र थे, अब साध्य बन बैठे हैं। सुबह नींद खुलते ही पहला स्पर्श मोबाइल का, रात को सोने से पहले अंतिम विदा भी उसी से। रिश्ते अब नोटिफिकेशन की तरह झपकते हैं — कभी ऑन, कभी म्यूट । डिजिटल आत्माएं, जैसे मशीनों में बसी हों, भावनाओं की जगह एल्गोरिद्म ने ले ली है। प्यार अब ‘टेक्स्ट’ में मापा जाता है, दुःख को ‘GIF’ से व्यक्त किया जाता है, और प्रसन्नता को ‘स्टोरी’ में साझा कर दिया जाता है।
किन्तु प्रश्न उठता है — क्या इसी का नाम मनुष्यता है?
मनुष्यता तो वह थी जब बूढ़ी आँखों में सपनों की चमक देख, युवा पीढ़ी उन्हें अपने कंधों पर उठा लेती थी। वह थी जब गाँव का तालाब सभी के मन का दर्पण होता था, जहाँ अजनबी भी पानी मांगते हुए अपना सा लगता था। वह थी जब किसी अनजाने के आँसू हमें विचलित कर देते थे, जब हम बिना कहे किसी दुखी के साथ बैठ जाते थे — बस मौन में भागीदारी करने।
आज, डिजिटल युग में, हम भावनाओं को फिल्टर करते हैं। दुःख भी अब इंस्टाग्राम योग्य बनता है। ज़रा सोचिए — क्या हमने अपने अंतरतम को भी एक ब्रांड में बदल दिया है?
फिर भी, सब कुछ अंधकारमय नहीं है। डिजिटल वर्तमान में भी मनुष्यता के दीप जल रहे हैं। कहीं कोई व्यक्ति भीड़ में गिरे किसी अनजान को उठाता है और उसका वीडियो नहीं बनाता, बल्कि उसकी मदद करता है। कहीं कोई वर्चुअल कम्युनिटी एक पीड़ित परिवार के लिए चुपचाप चंदा जुटाती है, बिना दिखावे के। कहीं कोई युवा उद्यमी तकनीक का प्रयोग कर विकलांगों के लिए नई राहें खोलता है।
मनुष्यता, दबे सुर में सही, मगर आज भी गा रही है।
जरूरत है उन सुरों को पहचानने की। हमें चाहिए कि तकनीक को साधन बनाएँ, साध्य नहीं। डिजिटल संचार को मानवीय संवाद में बदलें। वर्चुअल हाथ मिलाने के साथ-साथ, वास्तविक जीवन में भी हाथ थामने का साहस रखें। स्क्रीन पर नहीं, आँखों में झाँक कर मुस्कुराएँ।
हमें चाहिए कि इस डिजिटल भीड़ में भी अपनी संवेदनाओं को जीवित रखें। किसी के दुःख में ‘सेड इमोजी’ भेजने के बजाय, समय निकालकर एक फ़ोन कॉल करें। किसी की उपलब्धि पर ‘क्लैपिंग GIF’ भेजने के बजाय, उनके पास जाकर बधाई दें।
डिजिटल वर्तमान की भीड़ में चलते हुए भी, बीच-बीच में रुककर यह पूछें — क्या मैं अभी भी मनुष्य हूँ? क्या मेरी आत्मा अभी भी संवेदना के स्पंदन से जीवित है?
जीवन कोई डेटा सेट नहीं है जिसे एनालाइज़ किया जाए। यह एक कविता है, जिसे महसूस किया जाना चाहिए।
प्रेम, करुणा, मित्रता — ये सब कोई ऐप डाउनलोड करने से नहीं आते; ये हृदय के सहज उद्गार हैं, जिन्हें संजोना पड़ता है, सींचना पड़ता है।
आज भी जब किसी माँ की गोद में बच्चा निश्चिंत सोता है, जब कोई प्रेमी प्रेमिका के लिए स्टेशन पर भीगते हुए प्रतीक्षा करता है, जब किसी वृद्ध को कोई युवा बिना कहे सड़क पार करवा देता है — तब विश्वास हो उठता है कि मनुष्यता अभी जीवित है।
डिजिटल वर्तमान ने हमें एक नया औजार दिया है, पर उसकी धार से अपने ही रिश्तों को काटना बुद्धिमानी नहीं। यह औजार रिश्तों को तराशने का माध्यम बन सकता है, यदि हम चाहें। यदि हम टेक्नोलॉजी के समंदर में गोता लगाते हुए भी अपने हृदय के द्वीप को न डूबने दें, तो शायद हम इस नए युग में एक नई मनुष्यता का निर्माण कर सकें।
समस्या डिजिटल युग में नहीं है, समस्या उस दृष्टि में है, जिससे हम इसे अपनाते हैं। अगर हम तकनीक को मानवता का सेतु बनाएं, दीवार नहीं, तो डिजिटल वर्तमान भी मनुष्यता का सुंदर परिचायक बन सकता है।
अंततः, मनुष्यता कोई खोया हुआ खजाना नहीं है, जिसे हमें डिजिटल जाल में ढूँढना हो। वह तो हमारे भीतर ही है — हमारी हर उस छोटी सी क्रिया में, जो बिना किसी स्वार्थ के किसी के लिए की जाती है।
आइए, इस डिजिटल वर्तमान में, मनुष्यता की उस सरल, सुंदर, सच्ची धारा को फिर से अपने भीतर खोजें, महसूस करें, और जिएँ।

— विवेक रंजन श्रीवास्तव