प्लास्टिक : पर्यावरण का सबसे बड़ा संकट

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यू.एन.ई.पी. ने विश्व पर्यावरण दिवस 2025 की विषयवस्तु रखी है – ‘प्लास्टिक प्रदूषण का अंत’

बरसों पहले किसी कस्बे में नई-नई खुली प्लास्टिक सामग्री की दुकान की दीवार पर लिखा यह वाक्य पढ़ा था – आत्मा और प्लास्टिक कभी नष्ट नहीं होते।
दुकानदार का उद्देश्य संभवतः प्लास्टिक सामग्री के टिकाऊपन को प्रचारित करना रहा होगा। उसे शायद ही यह एहसास रहा होगा कि प्लास्टिक की जिस विशेषता को वह उपभोक्ताओं के हित में बता रहा है, वही विशेषता आगे चलकर विश्व व्यापी पर्यावरणीय संकट का कारण बनने वाली है।

खोजकर्ताओं को शायद ही यह कल्पना रही होगी कि प्रारंभिक काल में जिस प्लास्टिक को वरदान माना जा रहा था, अंधाधुंध उपयोग के चलते वह सिर्फ मानव सभ्यता के लिए नहीं,संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए अभिशाप बन जाएगा।

आज जल,थल और नभ सर्वत्र प्लास्टिक कचरा विद्यमान है। हिमालय की चोटियां हों, उत्तरी- दक्षिणी ध्रुव हों अथवा समंदर की गहराई,कोई भी जगह प्लास्टिक कचरे से अछूती नहीं बची। अंतरिक्ष में भी न जाने कितने भटके अथवा नष्ट हो चुके उपग्रहों के अवशेष तैर रहे हैं।

प्लास्टिक अब एक ऐसी समस्या है जिसे ना तो निगलते बन रहा है और न उगलते।

1855 में पहली बार पार्केसिन प्लास्टिक बनाया गया था । 1907 में लियो बेकलैंड ने पहली बार पूर्ण सिंथेटिक प्लास्टिक बैकेलाइट बनाया।
इसे एक युगांतरकारी खोज माना गया। दैनिक जीवन में काम आने वाली अनेक चीजें प्लास्टिक से बनाई गईं, जिससे लोगों को सहूलियत हुई।

एक रिपोर्ट के अनुसार 1950 के दशक तक प्लास्टिक का उत्पादन सीमित था। पूरी दुनिया में कुल मिलाकर लगभग 2 मिलियन टन प्लास्टिक का उत्पादन होता था,जो अब लगभग 500 मिलियन टन तक पहुंच गया है।
पिछले कुछ दशकों में प्लास्टिक उत्पादन में बेतहाशा वृद्धि हुई है।

आज प्लास्टिक दैनिक जीवन का अपरिहार्य हिस्सा हो चुका है। सोते-जागते, खाते-पीते, चलते-फिरते, बोलते- सुनते, घर-बाहर,यत्र-तत्र-सर्वत्र प्लास्टिक के बगैर आप दैनिक गतिविधियों की कल्पना भी नहीं कर सकते।

इसमें दो मत नहीं कि प्लास्टिक से निर्मित वस्तुओं से दैनिक जीवन में आसानी हुई है,लेकिन पृथ्वी इस आसानी की बहुत बड़ी कीमत चुका रही है।

यूएनईपी के अनुसार हर दिन महासागरों,नदियों और जल स्रोतों में लगभग 2000 ट्रक प्लास्टिक फेका जाता है। समुद्र के प्रति वर्ग मील में लगभग 46000 प्लास्टिक के टुकड़े पाए जाते हैं। समुद्री जीव इसे निगलने पर विवश हैं। इसके कारण लाखों जलीय जीव जंतुओं की मृत्यु हो रही है। मार्च 2025 तक महासागरों में 75 से 199 मिलियन टन प्लास्टिक कचरा मौजूद होने का अनुमान लगाया गया है।

पृथ्वी पर मौजूद प्लास्टिक कचरे की स्थिति तो और भी विकट है। एक अनुमान के अनुसार मार्च 2025 तक पृथ्वी पर प्लास्टिक कचरे की मात्रा 30 करोड़ टन तक पहुंच चुकी है।
यदि उचित समाधान नहीं खोजा गया तो हजारों वर्षों तक यह यूं ही पड़ा रहेगा और विभिन्न माध्यमों से हमारी खाद्य श्रृंखला में प्रवेश कर असाध्य रोगों का कारण बनेगा।
प्लास्टिक कचरा जानवरों के लिए भी घातक बनता जा रहा है। गाय और अन्य घरेलू जानवरों के पेट से 25-50 किलो प्लास्टिक निकलने की खबरें हम आए दिन पढ़ते- सुनते रहते हैं।

समस्या जितनी भयावह है, लोग उतने आगाह नज़र नहीं आते। यह बेपरवाही पृथ्वी के भविष्य के लिए चिंताजनक है। कैसी विडंबना है कि हम सब कुछ जानते हुए भी हजारों टन प्लास्टिक का उत्पादन किए जा रहे हैं, जबकि इसके निस्तारण की कोई व्यवस्था फिलहाल मौजूद नहीं है।

संतोष की बात है कि दुनिया के 25 देश इस भयावह समस्या से निपटने के लिए साथ आए हैं। ग्लोबल प्लास्टिक एक्शन पार्टनरशिप (GPAP) की निदेशक क्लेमेंस स्मिड का कहना है कि 25 देशों का इस पहल में शामिल होना यह दिखाता है कि दुनिया प्लास्टिक प्रदूषण को खत्म करने के लिए एकजुट हो रही है। हम प्लास्टिक के उत्पादन प्रबंधन और पुनर्चक्रण के तरीकों को बदलने के लिए काम कर रहे हैं।
भारत की ओर से महाराष्ट्र राज्य GPAP का सदस्य है।

अब एक नजर भारत में प्लास्टिक के उत्पादन,
उपयोगऔर पुनर्चक्रण की स्थिति पर डाल लेते हैं। भारत में प्रति व्यक्ति प्लास्टिक की अनुमानित खपत लगभग 13.6 किलोग्राम है।प्लास्टिक के उत्पादन ,उपयोग और अपशिष्ट के मामले में भारत की गणना दुनिया के अग्रणी देशों में होती है। विश्व के प्लास्टिक कचरे में लगभग 20% हिस्सेदारी भारत की है। देश में लगभग 4 मिलियन टन प्लास्टिक अपशिष्ट प्रतिवर्ष उत्पादित होता है, जिसमें से केवल एक चौथाई ही पुनर्चक्रित या उपचारित हो पाता है।
यद्यपि प्रति व्यक्ति खपत के हिसाब से भारत विकसित देशों से पीछे है,लेकिन पर्यावरण को प्रभावित करने वाले अन्य घटकों के प्रति लचर रवैए के चलते हमारी समस्या कहीं अधिक विकराल नजर आती है।
2014 से स्वच्छता सरकार की प्राथमिकता में है, लेकिन अभी भी यह नहीं कहा जा सकता कि इसे लेकर लोग उतने सचेत हुए हैं, जितना अपेक्षित था। कुछ एक शहरों को छोड़ दिया जाए तो अभी भी स्वच्छता अभियान एक सरकारी कवायद ही है, स्वस्फूर्त व्यवहार नहीं।

एक और समस्या है। हमारे देश में कानून तो बन जाते हैं। प्लास्टिक कचरे के उत्पादन एवं निष्पादन को लेकर भी बने, लेकिन उनका पालन एवं जिम्मेदार एजेंसियों द्वारा उनके क्रियान्वयन में तत्परता नहीं दिखाई जाती।
प्लास्टिक और पॉलिथीन से संबंधित कानूनी और प्रशासनिक मामलों में भी यही हो रहा है। नाम के लिए सब्जी के ठेले लगाने वालों अथवा छोटे दुकानदारों से पॉलिथीन की जप्ती की जाती है। जुर्माना लगाया जाता है।लेकिन अमानत पॉलीथिन और प्लास्टिक के उत्पादकों पर कार्यवाही प्रायः नहीं होती, जबकि बड़ी जिम्मेदारी उनकी ही बनती है।
जिम्मेदारी तो उस सरकारी तंत्र की भी बनती है जिसकी नाक के नीचे अमानक पॉलीथिन और प्लास्टिक का उत्पादन होता रहता है।

पता नहीं यह तथ्य कितने लोगों को झकझोरता है कि दुनिया के पांच सर्वाधिक प्रदूषित देशों में भारत का भी नाम है। अन्य चार देश हैं बांग्लादेश,
पाकिस्तान,बहरीन और नेपाल।

स्पष्ट है कि भारत को कहीं अधिक सघन प्रयासों की आवश्यकता है। लेकिन जब तक पर्यावरण संरक्षण महज इवेंट बना रहेगा, स्थाई समाधान की उम्मीद बेमानी है। जितनी जल्दी यह लोक व्यवहार बनेगा, पृथ्वी और पृथ्वी पर जीवन के लिए उतना ही अच्छा होगा।

*अरविन्द श्रीधर

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