आपातकाल, जिसे हम भूल न जाएँ

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मत कहो आकाश में कोहरा घना है
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है

दुष्यंत कुमार की ये पंक्तियाँ 25 जून, 1975 की अर्द्धरात्रि में प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा लगाए गए आपात्काल से उपजे माहौल को बखूबी बयान करती हैं। इमरजेंसी और सेंसरशिप के नाम पर बहुत सारी करतूतें ऐसी हुईं जो शर्मनाक मखौल की तरह याद की जाएँगी। लोकतंत्र की हत्या हुई। मानवीय गरिमा और मौलिक अधिकारों पर आघात हुआ। व्यक्तिगत स्वतंत्रता छीन ली गई। देश पर आतंक और भय का साया था। प्रेस को भी सेंसर के शिकंजे में जकड़ा गया।

उन दिनों मैं देशबंधु में उप संपादक था। रात्रि लगभग 8 बजे भोपाल के मारवाड़ी रोड स्थित देशबंधु के कार्यालय में पुलिस का एक दस्ता पहुँचा। सबको काम करने से रोक दिया गया। अखबार हैण्ड कंपोजिंग से बनता था। पेज गैली और प्रूफ गैली में टाइप जमाए जाते थे। पुलिसवालों ने उन्हें बिखेर दिया। और भी अखबारों में ऐसा हुआ होगा। यह हड़बड़ी में की गई कार्रवाई थी। तब तक आपातकाल की घोषणा नहीं हुई थी। परंतु दिल्ली से कुछ संकेत रहा होगा। बहरहाल, दूसरे दिन अखबार नहीं निकल पाया। यह पहला अनुभव था जो एहसास करा रहा था कि आने वाला समय कैसा गुजरने वाला है।

आपातकाल के किले में सेंध- नगण्य ही सही, कुछ पत्रकार दो टूक बयानी का करिश्मा कर रहे थे। ऐसे ही एक पत्रकार थे, रीडर्स डाइजेस्ट के उप संपादक अशोक महादेवन। उन्होंने ‘टाइम्स ऑफ इण्डिया’ के मुंबई संस्करण के ‘ओबिचुरी कालम’ में एक विज्ञापन प्रकाशित कराया। यह अपने आप में इमरजेंसी विरोधी दस्तावेज बन गया। विज्ञापन का काम देखने वाले कर्मचारी ने अबूझ पहेली जैसे इस विज्ञापन को किसी एंग्लो-इंडियन व्यक्ति के देहावसान का शोक संदेश समझा। प्रकाशन के एक दिन बाद विज्ञापन दाता ने फोन पर अखबार को बताया कि इस विज्ञापन में ‘‘सत्य के प्रिय पति, स्वतंत्रता के प्रिय पिता, और विश्वास, आशा, न्याय के प्रिय भाई लोकतंत्र की मृत्यु का संदेश है।’’ तब अखबार में हड़कंप मच गया। उस दौर में अनाम बुलेटिनों के जारी होने का भी सिलसिला चला।

लोकतंत्र विरोधी आपातकाल और सेंसरशिप लागू करने के विरोध में नईदुनिया इन्दौर, दैनिक जागरण-कानपुर समेत कुछ पत्रों ने संपादकीय कॉलम खाली छोड़ा। काशी के ‘गांडीव’ ने पहले पेज पर ऊपर शीर्षक लिखा ‘संपादकीय’ और नीचे 108 बार लिखा ‘प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी जिन्दाबाद।’ संपादक भगवानदास अरोड़ा ने अपना नाम भी दिया। इस सांध्यकालीन पत्र के बाजार में आते ही संपादक को मीसा में गिरफ्तार कर लिया गया। कमलेश्वर ने सारिका का सेंसर की कालिख पुता अंक जस का तस छाप दिया। 110 पत्रकारों को मीसा, 60 पत्रकारों को डी.आई.आर. और 83 पत्रकारों को अन्य कारणों से गिरफ्तार किया गया। 51 पत्रकारों की अधिमान्यता समाप्त की गई। सात विदेशी संवाददाताओं को देश निकाला दिया गया और 29 के भारत में प्रवेश पर रोक लगा दी गई। 97 पत्र, पत्रिकाओं के विज्ञापन रोके गए। (ये आँकड़े श्वेत पत्र से लिए गए हैं। )
माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय ने स्वतंत्र भारत में भारतीय भाषाओं की पत्रकारिता शोध परियोजना (2005-10) के अंतर्गत ‘पत्रकारिता का आपातकाल’ विषय पर शोध अध्ययन कराया था। यह अध्ययन अमरेन्द्र कुमार राय ने किया था। इस अध्ययन का निष्कर्ष विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति अच्युतानंद मिश्र के शब्दों में ‘‘निर्भीक और स्वतंत्र प्रेस होने की सबसे बड़ी गारंटी उसका जिम्मेदार प्रेस होना है। प्रतिरोध प्रेस का आवश्यक गुण है, जिसे हर कीमत पर कायम रखा जाना चाहिए। साथ ही, असहमति के स्वरों को भी प्रेस में पर्याप्त स्थान मिलना चाहिए।’’

मनीषी संपादक नारायण दत्त की टिप्पणी ध्यान देने योग्य है – ‘‘पूरे देश-समाज की तरह समाचारपत्रों ने भी सरकार के आगे जिस तरह घुटने टेक दिए वह हमारे स्वतंत्रता आंदोलन की पूरी पंरपरा के विरुद्ध था। जिस ‘मिशनरी पत्रकारिता’ को आज की पीढ़ी के पत्रकार उपहास की दृष्टि से देखते हैं, उसकी भावना अगर शेष रही होती तो अखबारों के मुँह पर ताला जड़ना संभव न होता।’’……….. ‘‘इमरजेंसी का विरोध करने वाले एक नेता ने बाद में पत्रकारों और पत्र मालिकों से यह कहा कि ‘आपसे झुकने को कहा गया था, आप रेंगने लगे’, तो सही ही कहा था। जब समाचारपत्र टटपुंजिया प्रेसों में छपते थे और पत्रकार सर्वथा अपर्याप्त वेतनों पर काम करते थे, तब उनमें जो साहस था वह विलुप्त हो चुका था।

आपातकाल के दिनों में दिल्ली के एक बड़े अंग्रेजी अखबार के संपादक ने 1942 की फिरंगी हुकूमत की सेंसरशिप का अनुभव रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार नेमिशरण मित्तल से सवाल किया, उस समय आप सेंसर से कैसे निपटते थे मित्तल जी का जवाब था – निपट तो आप भी सकते हैं। पर क्या करें? आपका तो कुत्ता भी कमबख्त ए.सी. में सोता है!

विजय दत्त श्रीधर

स्थापक-संयोजक
सप्रे संग्रहालय, भोपाल
Mobile : 7999460151

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