कविता और डॉ. शिव चौरसिया : पिता पर मेरा लेख!

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हमारे हिंदुस्तान में बोली जाने वाली कई भाषाओं और असंख्य बोलियों में जितनी मीठी हमारी मालवी है, उतने ही मीठे हैं मालवी के कवि डॉ. शिव चौरसिया। मालवी की ही तरह सरल, सहज, संप्रेषणीय और मीठे। मालवा जितना ठेठ है, जितना निर्मल है उतने ही ठेठ और उतने ही निर्मल हैं डॉ. चौरसिया। उतनी ही निर्मल है उनकी कविताएं। सरलता, विनम्रता और निर्मलता ही उनके व्यक्तित्व और कृतित्व की विशेषता है। यही लोक साहित्य में उनका अवदान भी है और साहित्य में उनकी उपस्थिति का कारण भी।

लोक साहित्य के भव्य भंडार में मालवी की उपस्थिति यूं तो आज से करीब 1300 साल पहले ही दर्ज हो गई थी लेकिन कविता की पूरी आन-बान और शान के साथ मालवी में आधुनिक संवेदनाओं की अभिव्यक्ति करीब 100 बरस पहले शुरू हुई। देशकाल और परिस्थितियां बदल रहीं थीं और राजे-रजवाड़ों, खेत-खलिहानों, नदी-पोखरों, जतरा, मेलों, माच महोत्सवों में मगन मालवा भी बदल रहा था।

राष्ट्रीय स्तर पर जब साहित्य की भाषा के रूप में नई हिंदी करवट ले रही थी, लगभग उसी दौर में मालवा में आपसी लोक व्यवहार की बोली मालवी जीवन के राग-रंग, उलझन-उल्लास, समाज और संघर्ष को बयान करने के लिए संवर रही थी। मालवी के प्रारंभिक कवि पन्नालाल नायाब ने जो बीज रोपे वे कुछ ही सालों बाद लोक साहित्य की बगिया में अपने फूलों की सुगंध बिखेरने लगे। फिर तो मालवी में कविता की होड़ सी लग गई। आनंदराव दुबे, गिरिवरसिंह भंवर, हरीश निगम, बालकवि बैरागी, नरहरि पटेल, पुखराज पांडे, भावसार बा, मोहन सोनी, सुल्तान मामा की एक पूरी पीढ़ी कुछ आगे-पीछे ही सही साहित्य जगत में आई और अपनी धमाकेदार उपस्थिति से खालिस मालवी में हजारों लोगों की भीड़ भरे कवि सम्मेलन मंचों को जीत लिया। डॉ. शिव चौरसिया भी इनमें शामिल थे। अपनी कविताओं के साथ, श्रोताओं के हृदय पर राज करते हुए।

जो वे थे, जैसा उनके जीवन का संघर्ष था, वही उनकी कविताओं का स्वर बना। जैसा उनका स्वभाव है, जैसा उनका सोच है, वही उनकी कविताओं की पंक्ति-पंक्ति में अभिव्यक्त हुआ। सरलता, सहजता, विनम्रता, संघर्ष और साक्षी भाव। डॉ. चौरसिया की कविताएं न रस विशेष के दायरे में बंधी है न ही छंद की मर्यादाओं में उन्हें बांधा है। वे बस महसूस किए गए भावों की सहज बयानी भर है। इसी कारण सुनने वाले को प्रिय है।

कविता डॉ. चौरसिया के जीवन में ऐसे ही नहीं उतरी। कम उम्र में पिता के देहांत और जीवन चलाने के लिए छोटी-मोटी दर्जनों नौकरियों और सेल्समैनशिप के दौरान दुकानों के मालिक अपने प्रोडक्ट बेचने के लिए उनसे तुकबंदी भरे नारे लिखवाते थे। तुकबंदी जब जमने लगी तब कविता अपने आप बनने लग गई। पहली कविता गणेश वंदना कोई वर्ष 1961 में लिखी और एक गोष्ठी में सुनाई गई। सुनने वालों की वाह मिली तो मनोबल बढ़ा और कविता की यात्रा शुरू हो गई।

यह वह दौर था जब मालवी कला और साहित्य का केंद्र उज्जैन था। पद्मभूषण पं. सूर्यनारायण व्यास के प्रयासों से शिप्रा नदी के तट पर कार्तिक मास में लगने वाले मेले में मालवी के कवि सम्मेलन शुरू हुए। आज की तरह उस दौर में मनोरंजन के उतने साधन नहीं थे। नतीजा कवि सम्मेलनों में हजारों की भीड़ उमड़ती थी। लोग रतजगा करते और कार्तिक की ठंडी रातों में कविता का रसास्वादन करते।

इन मंचों पर अपने वरिष्ठ और साथी कवियों के साथ डॉ. चौरसिया ने अपने कविताओं से हजारों लोगों का दिल जीता। उनकी कविताओं में मालवा दर्पण की भांति प्रदर्शित होता है। चमकता है, दमकता है। सुनने वाले को आनंदित करता है। जब उनकी काव्य धारा बहती है तब मालवा का लोक, मालवा का मन, मालवा के फूल, मालवा की नदियां, खेत-खलिहान और संघर्ष तो अभिव्यक्त होते ही हैं, समाज और राष्ट्र के प्रति लोक भाषा के जरिये कवि की दृष्टि और कर्तव्य बोध भी मुखरित होता है। आदमी की आदमियत और उसके होने का अर्थ ही नहीं उसके जीवन की सार्थकता भी डॉ. चौरसिया की कविताओं में परिभाषित होती है। तभी तो विशाल हिंदुस्तान के तीन बड़े प्रांतों राजस्थान, गुजरात और मध्यप्रदेश में मालवी बोलने वाले दो करोड़ से ज्यादा लोग इन कविताओं को पढ़-सुनकर वाह-वाह कह उठते हैं।

जीवन के संघर्ष, परिवार के दायित्व, समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी के बीच सृजन आसान नहीं है। डॉ. चौरसिया का पूरा जीवन अभाव और संघर्ष के बीच सार्थक जीवन की अनूठी कहानी है। जब इस संघर्ष के साथ सृजन जुड़ता है तब सच्चे अर्थों में उनका जीवन सोने पर सुहागा बनकर बात-बात पर विचलित होने वाली नई पीढ़ी के लिए एक मिसाल बनकर सामने आता है।

आप सवाल कर सकते हैं कि डॉ. चौरसिया में ऐसा क्या है जो किसी को प्रेरणा दे सके। तो जवाब है दाल-रोटी तक के लिए जिसे बचपन में ही काम पर जुट जाना पड़ा, जिसने टॉकीजों में नौकरी की, मेलों में वॉटर बॉल बेची, ट्रांसफार्मर बनाए, अखबार बेचे, जिसके पास न पहनने के लिए ढंग के कपड़े थे, न पीठ पर हाथ रखने वाला घर में कोई बड़ा, उस आदमी ने पूरी जिंदगी अपने चरित्र को निष्कलंक, अपने व्यवहार को निष्कपट, अपने व्यक्तित्व को पारदर्शी और अपने जीवन को यदि सार्थकता के साथ जिया है तो क्या यह बड़ी बात नहीं है?

और ऐसी कहानी तो बहुत लोगों की हो सकती है लेकिन उनमें से कम ही होते हैं जो ‘अभावों के बीच सृजन कर दूसरों को सुख देने का जोखिम उठाते हैं।’ डॉ. शिव चौरसिया ने अपने पूरे जीवन यह जोखिम उठाया है। सुख बांटा है, प्रेम किया है, आदर दिया है। इसीलिए वे अजातशत्रु हैं!

वे जितने मीठे कवि हैं उतने ही प्रिय शिक्षक हैं। 23 दिसंबर 1940 में शाजापुर जिले के बेरछा गांव में एक गरीब परिवार में जन्म लेने के बाद उनका परिवार जन्म के कोई चार-पांच बरस बाद काम धंधे की तलाश में उज्जैन में आ गया था। यहीं प्रारंभिक स्कूली शिक्षा हुई और फिर किशोरावस्था की दहलीज पर वे कमाने लग गए लेकिन पढ़ाई चलती रही। वर्ष 1960 में हाईस्कूल और फिर दो साल बाद डीएड किया। 21 बरस की उम्र में प्रायमरी स्कूल में शिक्षक हो गए। पहली पोस्टिंग खाचरौद के एक गांव रिंगनिया में हुई। जहां पहुंचने के लिए तब 12-13 किलोमीटर रोज पैदल चलना पड़ता था। फिर तो गांव-गांव घूमे, गांव-गांव में बच्चों को पढ़ाया। कल का देश, कल का समाज गढ़ा।

पढ़ाई कभी नहीं रूकी। वह निरन्तर चली। साल 1964 में इंटर फिर 1967 में बीए, 1970 में एमए और 1974 में नोबेल विजेता डॉ. हरगोविंद खुराना के हाथों पीएचडी की उपाधि हासिल की। सब कुछ काम करते हुए, सब कुछ केवल और केवल अपने बूते! पीएचडी का विषय भी मालवा ही चुना। “मालवा के कवियों का हिंदी साहित्य में योगदान” विषय पर पीएचडी के पीछे भाव यही था कि मालवा की माटी जिसमें जन्में हैं, पले-बढ़े हैं, उसका कुछ कर्ज कलम के जरिये चुकाया जा सके। उस दौर के रचनाकारों और लोगों से यह बात सीखने जैसी है कि माटी का जो कर्ज हमारे पैदा होते ही, हमारे सिर चढ़ता है, हम जवानी में ही उसे चुकाने के लिए यदि संकल्पित हो जाते हैं तो जीवन की सांझ बेचैन नहीं, शांति और सुकून भरी महसूस होगी। तब बीता जीवन बेमानी नहीं, अपने आप में सम्माननीय हो जाता है।

डॉ. चौरसिया के विद्यार्थी इस बात के लिए उन्हें सदा याद रखते हैं और दूसरों से अलग पाते हैं कि वे कभी क्लास रूम में किताब लेकर नहीं गए। जो पाठ वे पढ़ाते रहे, उसकी क्लास में जाने से पहले ही इतनी तैयारी करते थे कि मूल पाठ के अलावा उसकी व्याख्या, उससे जुड़े संदर्भ और प्रसंग उन्हें मुखाग्र होते थे। उनकी शैली, उनकी व्याख्या और शब्द-शब्द, पंक्ति-पंक्ति का अर्थ वे इतनी सहजता से सरल करके प्रस्तुत करते थे कि उनकी पढ़ाई कविताएं आज भी उनके विद्यार्थियों को शब्द, अर्थ और व्याख्या सहित कंठस्थ है। उस दौर में शिक्षा विभाग के आला अधिकारियों तक भी उनकी इस अध्यापन कला का वैशिष्ट्य पहुंचा। तभी तो वर्ष 1981 में उन्हें मध्यप्रदेश सरकार ने राज्य स्तरीय शिक्षक सम्मान से विभूषित किया। राज्य स्तर की कई शैक्षिक समितियों में इनकी राय को मान मिला। जिसका सीधा फायदा उस दौर की शिक्षा प्रणाली, उस दौर के विद्यार्थियों के जरिये आज के समाज को मिला है।

वे जितने मधुर कवि हैं, जितने प्रभावी शिक्षक उतने ही संतुलित और जिम्मेदार संपादक रहे। शिक्षा विभाग की नौकरी और उसके बाद 1984 में उज्जैन के सांदीपनि महाविद्यालय में प्राध्यापक रहते हुए अपनी सामाजिक और साहित्यिक सक्रियता के बीच उन्होंने दर्जनों पत्रिकाओं और पुस्तकों का संपादन किया। जिनके जरिये उनकी संपादन कला का एक नया ही रूप सामने आया। वे मालवी के अलावा हिंदी में भी लिखते हैं। जितना पद्य लिखा है, उतना ही गद्य लिखा है। कहानियां भी लिखीं हैं और शोध पत्र भी। योग, व्यायाम और तैराकी उनके शौक हैं। मित्रों के बीच वे मगन रहते हैं तो परिवार में अपनी जिम्मेदारियों को पूरी लगन के साथ निभाते आए हैं।

उनकी कविताओं की मधुरता और सरलता से ज्यादा उनके जीवन और व्यक्तित्व की सहजता और निर्मलता ने समाज को उनकी तरफ आकर्षित किया है। साहित्य और कला के कई मंचों पर उन्हें इन्हीं विशेषताओं के कारण सराहा और सम्मानित किया गया है। माटी की सौरम और गजरों नाम की दो किताबें उनकी कविताओं को संकलित रूप में सामने लाती है।

मध्यप्रदेश के तीन विश्वविद्यालयों के लोक भाषा और साहित्य के पाठ्यक्रमों में अन्य बड़े कवियों के साथ उनकी कविताएं पढ़ी और पढ़ाई जाती है। विक्रम विश्वविद्यालय में स्नातकोत्तर स्तर पर उनकी कविताएं निर्धारित हैं। उनके द्वारा रचित मालवी कहानियों का मलयालम और अन्य भाषाओं में अनुवाद हुआ है। इलाहाबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में उनकी मालवी लोक कथाएं भी कोर्स का हिस्सा है।

यह मालवी का मान है। उस महकती चहकती मालवी का जो प्रकृति और इंसान, जीवन और संघर्ष सबकुछ को पूरी ताकत के साथ बयान करने में सक्षम है। जो अनजाने काल से पश्चिमी मध्यप्रदेश से लेकर राजस्थान और गुजरात तक लोक जन के कण्ठ में विराजित हैं। आज भी कोई दो करोड़ लोग जिसे बोलते हुए धन्य होते हैं। यह मान मालवा को और मालवी को, जिन लोगों के तप से मिला है उनमें एक हैं डॉ. शिव चौरसिया। हजारों में एक लेकिन विरले, मालवा की भांति मस्त और मालवी की तरह मीठे!

डॉ. विवेक चौरसिया
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार, साहित्यकार एवं पौराणिक साहित्य के गहन अध्येता हैं)

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