पचास साल से धधक रही ‘शोले’ की आँच

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सिनेमाघरों में देखी फ़िल्में हमारे मानस पटल पर हमेशा के लिये दर्ज हो जाती हैं। दशकों बाद भी कोई फिल्म रसिक आपको सर खुजाते हुए यह बता सकता है कि अमुक फिल्म उसने कब, कहाँ, किस टॉकीज में देखी थी? उस फिल्म के कलाकार, गाने, निर्माता-निर्देशक के नाम भी लोगों को जीवन भर याद रहते है। यही तो सिनेमा का जादुई आकर्षण है जो सर चढ़कर बोलता है।
कालजयी फिल्म ‘शोले’ की रिलीज़ को 15 अगस्त 2025 को पचास साल पूरे हो गए।भारतीय फिल्मों की विकास यात्रा में यह ऐतिहासिक प्रसंग इसलिए भी सुर्ख़ियों में है क्योंकि कोरोना काल के बाद से ही सिनेमा का आकर्षण लगातार कम होता जा रहा है। जब लोगों को घर बैठे किफायती खर्च में टेलीविजन पर सब कुछ देखने को मिल रहा है तो वे मल्टीप्लेक्स में ऊँची दरों पर टिकट खरीदकर मनोरंजन करने क्यूँ जायें?
जाहिर है जब फ़िल्में अपना आकर्षण खोती जा रही हैं और ओटीटी के जरिये वेब सिरीज का क्रेज़ लगातार बढ़ रहा है तो सिनेमा का ट्रेडिशनल फ़ॉर्मेट हाशिये पर जाना स्वाभाविक है। नई सदी में सिनेमा का नया स्वरुप “सब कुछ बदल डालूँगा” की तर्ज़ पर बेहद आक्रामक रहा है। फिल्म निर्माण में कॉर्पोरेट कल्चर के पदार्पण के साथ ही फिल्म उद्योग और फिल्म व्यवसाय के पारंपरिक तौर तरीकों को ग्रहण लग गया। सिंगल स्क्रीन सिनेमाघर आउट डेटेड होकर ढहाये जाने लगे।
आलीशान एयरकंडिशन्ड मल्टीप्लेक्स की चमक-दमक ने दर्शकों की भीड़ अपनी ओर खींच ली। पर महँगे टिकट खरीदकर.. पॉपकॉर्न खाते हुए.. कोल्ड ड्रिंक सुड़कते हुए सिनेमा देखने का यह जादू भी दो दशक ही चला। कोरोना काल में घरों में कैद ज़िन्दगी को टेलीविजन ने ही ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ जैसे पुराने धारावाहिकों की संजीवनी सुंघाई और संक्रमणकाल गुजरते ही ठहरी हुई ज़िन्दगी ने ऐसी रफ़्तार पकड़ी कि लोग मनोरंजन के लिये सिनेमाघर का रास्ता ही भूल गये।
बहरहाल, हिन्दी फिल्मों का गिरता स्तर और फ़िल्मी सितारों का घटता आकर्षण भी इसकी एक बड़ी वजह मानी जा सकती है। इस कठिन समय में ‘शोले’ जैसी कल्ट क्लासिक फिल्म का पचास साल बाद फिर सुर्ख़ियों में आना सिनेमा के स्वर्णिम युग से निकली यादों की बारात में शामिल होने सरीखा है। स्मृतिकोष से ‘शोले’ की यादों को तरोताज़ा करना अपनी ही पुरानी तस्वीरों को फोटो अल्बम में देखकर आनंदित होने जैसा है।
सत्तर के दशक की शुरुआत में फ़िल्म समीक्षक के बतौर मेरी पहली पारी उज्जैन के दैनिक अवंतिका और ब्रिगेडियर सहित कुछ अन्य अख़बारों में प्रकाशित फ़िल्म समीक्षाओं से हुई थी। माधुरी-मायापुरी में ‘दाग़’ ‘अमानुष’ और ‘दो जासूस’ जैसी कुछ फ़िल्म समीक्षाओं के पुरस्कृत होने से हौसला बढ़ता चला गया। संयोग से उन दिनों डाकुओं पर आधारित फिल्मों का बोलबाला था। ‘मेरा गाँव मेरा देश’ ‘प्राण जाये पर वचन न जाये’ ‘हीरा’ ‘धर्मा’ ‘प्रतिज्ञा’ ‘खोटे सिक्के’ और ‘पुतलीबाई’ जैसी दस्यु प्रधान फिल्मों को बॉक्स ऑफिस पर यथोचित कामयाबी मिल रही थी।
सबसे छोटे पर्दे वाले टाकीज़ में लगी थी फिल्म
आज से पचास साल पहले किसी नई फिल्म की थिएट्रिकल रिलीज के तौर-तरीके बिल्कुल अलग थे। फिल्म निर्माता मुंबई में सितारों की मौजूदगी में फिल्म का भव्य प्रिमियर शो आयोजित करते और फिल्म डिस्ट्रीब्यूटर/ एक्जिबिटर उसके वितरण अधिकार खरीदकर अपने-अपने सिने सर्किट में रिलीज करते। बाद में चुनिंदा फिल्मों के ऑल इंडिया प्रिमियर का रिवाज शुरू हुआ। सेंट्रल सर्किट सिने एसोसिएशन (सीसीसीआई) का मुख्यालय इन्दौर में था और श्री संतोष सिंह जैन ‘डैडी’ करीब पचास साल तक उसके अध्यक्ष रहे। मध्य प्रदेश और राजस्थान के अधिकांश शहरों में सीसीसीआई से जुड़े डिस्ट्रीब्यूटर ही फिल्म रिलीज करते थे।
‘शोले’ भले ही मुंबई में 15 अगस्त 1975 को रिलीज हुई, पर मध्य प्रदेश के अधिकांश शहरों में दर्शकों को यह फिल्म डेढ़-दो महीने बाद ही देखने को मिली। इन्दौर में इसे स्मृति और मधुमिलन टॉकीज में देखने की स्मृतियाँ आज भी लोगों के मन में ताज़ा हैं। जबकि उज्जैन में ‘शोले’ 31 अक्टूबर 1975 को स्थानीय रीगल टॉकीज में रिलीज़ हुई थी, जिसका पर्दा शहर के अन्य सभी सात सिनेमाघरों की तुलना में सबसे छोटा था। भोपाल में पाँच सप्ताह पूर्व ही यह फिल्म 26 सितंबर 1975 को कृष्णा टॉकीज़ में प्रदर्शित हो चुकी थी।
23 जुलाई 1976 को जब ‘शोले’ की गोल्डन जुबिली मनाई जा रही थी तब यह फिल्म भोपाल के कृष्णा टॉकीज में 43 वें सप्ताह में और उज्जैन के रीगल सिनेमा में 38 वें सप्ताह में चल रही थी। मजे की बात यह है कि देश की राजधानी दिल्ली में भी ‘शोले’ ने मुंबई, बेंगलुरू और अहमदाबाद के डेढ़-दो माह बाद अपनी गोल्डन जुबिली मनाई। कोलकाता और चेन्नई को भी यह अवसर बाद में मिला। उन दिनों सिनेमाघरों में टिकट दरें भी अपेक्षाकृत काफी कम थी.
सिनेमाघरों में मिलता था स्टूडेंट कन्सेशन
बालकनी का टिकट एक रूपये साठ पैसे में मिला जाया करता था जो बाद में बढ़ाकर तीन रूपये बीस पैसे कर दिया गया। आज की पीढ़ी के युवा दर्शकों को यह जानकर आश्चर्य होगा कि सत्तर के दशक के मध्य में मध्य प्रदेश सरकार ने छात्र आन्दोलनों को शांत करने के लिये कॉलेज में पढने वाले छात्र-छात्राओं को सिनेमाघरों में स्टूडेंट कन्सेशन देने का प्रावधान किया था। बालकनी में उनके लिये दो पंक्तियाँ रिज़र्व रहती थीं और स्टूडेंट कन्सेशन की टिकट खिड़की भी अलग होती थी। यह सुविधा नई फिल्म रिलीज़ होने के तीन-चार दिन बाद फोटोयुक्त आइडेंटिटी कार्ड दिखाने पर ही मिलती थी।
‘शोले की रिलीज़ के कुछ ही हफ़्तों पहले ‘धर्मात्मा’ ‘प्रतिज्ञा’ ‘गीत गाता चल’ ‘एक महल हो सपनों का’ ‘रानी और लाल परी’ ‘काला सोना’ जैसी फ़िल्में सिनेमाघरों में पहुँची थी। जबकि वर्ष के प्रारंभ में प्रदर्शित ‘दीवार’ ‘वारंट’ ‘जूली’ ‘रफूचक्कर’ ‘चुपके-चुपके’ ‘चोरी मेरा काम’ जैसी अनेक फ़िल्में पहले से टिकी हुई थी। ‘जय संतोषी माँ’ और ‘खोटे सिक्के’ भी ‘शोले’ के दहकने के पूर्व ही रिलीज़ हो चुकी थी। इन दोनों फिल्मों का ‘शोले’ से जबरदस्त कनेक्शन बाद में जुड़ा; जब ‘जय संतोषी माँ’ जैसी धार्मिक फिल्म को देखने ‘शोले से ज्यादा भीड़ उमड़ने लगी, वहीं जागरूक दर्शकों को ‘शोले’ और ‘खोटे सिक्के’ की कहानी में कुछ हद तक समानता नज़र आई।
बहरहाल, सारे किन्तु-परन्तु के बावजूद ‘शोले’ अपने आप में एक बेजोड़ फिल्म है, जिसकी आँच आज पचास साल बाद भी धधक रही है। जबकि अन्य समकालीन प्रतिद्वंद्वी फ़िल्में काल के गाल में समा चुकी हैं। यकीनन ‘शोले’ ने हिन्दी सिनेमा के इतिहास में मील के पत्थर सरीखा स्थान हासिल किया है। तभी तो फिल्म इतिहासकार भारतीय फिल्मों के इतिहास का वर्णन ‘शोले’ के पहले और ‘शोले’ के बाद की फिल्मों का विषद अध्ययन कर करने लगे हैं। दुनिया में फिल्म निर्माण की ट्रेनिंग देने वाला शायद ही कोई संस्थान हो जहाँ भारत की सर्वाधिक लोकप्रिय फिल्म ‘शोले’ पढ़ाई न जाती हो। ‘शोले’ की यही तपिश उसका ‘आल टाइम हिट’ कीर्तिमान भी है; रिलीज़ के शुरूआती कुछ दिनों में दर्शकों की बाट जोहने के बावजूद।
बीते पचास सालों में ‘शोले’ को लेकर ढेर सारे किस्से दन्त कथाओं की तरह प्रचलित हुए हैं। मसलन गब्बर सिंह के रोल के लिये पहले डैनी डेन्जोंगपा लिया गया था या इमरजेंसी में सेंसर बोर्ड की कैंची तेजी से चलने के कारण फिल्म का क्लाइमेक्स बदलना पड़ा था। बेंगलुरु के पास राम नगरम आज भी सैलानियों के आकर्षण का केंद्र बना हुआ है; जहाँ विशाल सेट लगाकर ‘शोले’ की शूटिंग हुई थी। लिहाजा अंत में एक कम सुना किस्सा और जान लीजिये।
‘शोले’ के एक्शन सीक्वेंस की शूटिंग के दौरान स्पेशल इफ़ेक्ट के लिये निर्देशक रमेश सिप्पी ने हॉलीवुड के तकनीकी विशेषज्ञों की सेवाएँ ली थी। इस टीम में दक्षिण भारतीय फिल्मों से जुड़ा एक हुनरमंद टेक्नीशियन भी शामिल था। ‘शोले’ की अपार सफलता से उत्साहित रमेश सिप्पी ने दुगने जोश से बनाई ‘शान’ की करारी असफलता के बाद जब ऋषि कपूर और डिम्पल कपाड़िया के साथ रोमांटिक फिल्म ‘सागर’ बनाने का फैसला किया तो प्रेम त्रिकोण के तीसरे कोण की भूमिका में ‘शोले’ की टीम के उसी टेक्नीशियन को चुना जिसका नाम था- “कमल हासन”..!

विनोद नागर
(वरिष्ठ फिल्म अध्येता और सिने समीक्षक)

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