माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय,भोपाल द्वारा नवागत छात्रों के लिए आयोजित सत्रारंभ कार्यक्रम ‘अभ्युदय 2025’ के दौरान ‘पत्रकारिता साहित्य एवं संस्कृति’ विषय पर
वरिष्ठ पत्रकार एवं पत्रकारिता इतिहास के अध्येता पद्मश्री विजय दत्त श्रीधर का व्याख्यान…
पत्रकारिता, साहित्य एवं संस्कृति
जिज्ञासा मानव का मूल स्वभाव है। ज्ञान पिपासा इसी का विकसित स्वरूप है। भारतीय ज्ञान परंपरा के आदि स्रोत ऋग्वेद का सूक्त है- आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः। ग्रंथालय धरती पर इस सूक्त को साकार करने वाले ज्ञान-मंदिर हैं। ये भाषा, साहित्य, संस्कृति, कला, विज्ञान आदि सभी विषयों के संचित ज्ञान का महासागर हैं। जो अपने जीवन में अध्ययनशीलता का गुण जाग्रत कर लेते हैं, वे ग्रंथों और ग्रंथालय से नाता जोड़ लेते हैं। यह उनका स्वयं पर उपकार होता है, क्योंकि यह प्रवृत्ति अच्छा मनुष्य बनने का पथ प्रशस्त करती है।
भारत में हिन्दी पत्रकारिता की शुरुआत 30 मई, 1826 को पाँच भाषाओं की गंगोत्री कहे जाने वाले कोलकाता से होती है। इसका श्रेय युगल किशोर शुक्ल के हिन्दी साप्ताहिक ‘उदन्त मार्तण्ड को है। सन 1931 के आरंभ तक यह माना जाता था कि हिन्दी पत्रकारिता का इतिहास सन 1845 में काशी से प्रकाशित ‘बनारस अखबार’ से शुरू होता है। मई 1931 के ‘विशाल भारत’ में शोध अध्येता ब्रजेन्द्रनाथ बंद्योपाध्याय का आलेख ‘हिन्दी समाचारपत्रों की आरंभिक कथा’ प्रकाशित हुआ। उन्हें राजा राधाकांत देव के ग्रंथालय में ‘उदन्त मार्तण्ड’ की फाइल मिली। उन्होंने ‘उदन्त मार्तण्ड’ के प्रथम अंक का चित्र और कुछ उद्धरण आलेख में प्रस्तुत किए। तब स्पष्ट हुआ कि हिन्दी पत्रकारिता का इतिहास 30 मई, 1826 को ‘उदन्त मार्तण्ड’ के प्रकाशन के साथ आरंभ हुआ। ग्रंथालय और अध्ययनशीलता का यह प्रेरक दृष्टांत है।
पत्रकारिता और साहित्य के नाते का दृष्टांत भी ‘उदन्त मार्तण्ड’ में विद्यमान है। ‘उदन्त मार्तण्ड’ में एक व्यंग्योक्ति मिलती है-‘‘एक यशी वकील वकालत का काम करते-करते बुड्ढा होकर अपने दामाद को वह काम सौंप के आप सुचित हुआ। दामाद कई दिन वह काम करके एक दिन आया ओ प्रसन्न होकर बोला हे महाराज आपने जो फलाने का पुराना ओ संगीन मोकद्दमा हमें सौंपा था सो आज फैसला हुआ यह सुनकर वकील पछता करके बोला कि तुमने सत्यानाश किया। उस मोकद्दमे से हमारे बाप बढ़े थे तिस पीछे हमारे बाप मरती समय हमें हाथ उठा के दे गए ओ हमने भी उसको बना रखा ओ अब तक भली भाँति अपना दिन काटा ओ वही मोकद्दमा तुमको सौंप करके समझा था कि तुम भी अपने बेटे पोते परोतों तक पलोगे पर तुम थोड़े से दिनों में उसको खो बैठे।’’
भारतीय वाङ्मय में संचार के सूत्र तलाशने वाले ‘देवर्षि नारद’ और ‘संजय’ का उदाहरण देते हैं। नारद के संचार संप्रेषण का मूल मंत्र है लोकमंगल। संजय के वृत्तांत का मूल तत्व है जस की तस प्रस्तुति। आज की पत्रकारिता, विशेष रूप से सोशल मीडिया के प्रयोक्ताओं को कदाचित महाभारत से ही ‘फेक न्यूज’ की प्रेरणा मिली। कुरुक्षेत्र में युधिष्ठिर से कहलवाया गया था- ‘अश्वत्थामा हतौ: नरो वा कुंजरो वा। इस मनोवैज्ञानिक प्रहार से द्रोणाचार्य का वध संभव हो पाया।
पत्रकारिता और साहित्य के अंतरसंबंध पर मतैक्य नहीं है। स्वाधीनता आंदोलन के दौर में बहुमुखी प्रतिभा के धनी संपादकों के बहुआयामी कृतित्व के अनेक उदाहरण मिलते हैं। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, बालकृष्ण भट्ट, प्रतापनारायण मिश्र, माधवराव सप्रे, महावीरप्रसाद द्विवेदी, बालमुकुंद गुप्त, बाबूराव विष्णु पराडकर, लक्ष्मण नारायण गर्दे, अंबिकाप्रसाद वाजपेयी, गणेश शंकर विद्यार्थी, माखनलाल चतुर्वेदी, बनारसीदास चतुर्वेदी, प्रेमचंद प्रभृति संपादकों की बड़ी शृंखला है जो साहित्य और संपादन कला दोनों में सिद्धहस्त थे। स्वतंत्रता के उपरांत यह बहस उठी कि साहित्य की भाषा और पत्रकारिता की भाषा अलग-अलग होना चाहिए। साहित्यिक पत्रकारिता में जिस भाषा शैली का प्रयोग सहज ग्राह्य है, मुख्य धारा की पत्रकारिता में वह स्वीकार्य नहीं। मुहावरों, कहावतों, लोकोक्तियों का प्रयोग पत्रकारिता के कथ्य को रोचक बनाते हैं, तथापि यह देखना आवश्यक होता है कि मुख्य धारा की पत्रकारिता सपाट बयानी की अपेक्षा करती है। इसमें घुमा-फिराकर बात कहने का अंदाज ठीक नहीं माना जाता। वर्तमान समय में जब लेखों, रूपकों, रिपोर्ताजों, टिप्पणियों को शब्द सीमा के दायरे में बंधना होता है ; तब विवरणों को कसावट में समेटना पड़ता है। अतः मुख्य कथ्य और रोचकता के बीच भोजन और चटनी जैसे अनुपात का ध्यान रखना पड़ता है। कुशल पत्रकार, स्तंभकार और संपादक इस तथ्य का ध्यान रखते हुए कलम चलाते हैं। शीर्षक देने में रोचकता के तत्व का प्रयोग हो रहा है। ‘‘घोड़े की बला तबेले के सिर’’, ‘‘नाच न आवे आँगन टेढ़ा’’ ऐसे ही उदाहरण हैं।
यहाँ हमें कविवर भवानीप्रसाद मिश्र की ये पंक्तियाँ याद आती हैं-
‘‘जिस तरह हम बोलते हैं, उस तरह तू लिख,
और इसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख।’’
इसके साथ उनकी ये पंक्तियाँ भी याद रखी जानी चाहिए-
‘‘कुछ लिख के सो, कुछ पढ़ के सो,
तू जिस जगह जागा सवेरे
उस जगह से बढ़ के सो।’’
‘भारतमित्र’ की भाषानीति थी- ‘‘आप जिस तरह बोलते हैं, बातचीत करते हैं, उसी तरह लिखा कीजिए। भाषा बनावटी नहीं होनी चाहिए। यही अच्छी भाषा की कसौटी है। जहाँ तक हो सके वाक्य छोटे हों। क्लिष्ट शब्द न आने पाये। मुहावरे का ख्याल रखें।’’
‘हिन्दी बंगवासी’ ने भाषा की एकरूपता पर बल दिया। एक शब्द जिस रूप में एक जगह लिखा गया है उसी रूप में सर्वत्र लिखा जाना चाहिए।
महावीरप्रसाद द्विवेदी को आचार्य संपादक माना गया। उनके संपादन की उत्कृष्टता को प्रतिपादित करते हुए मैथिलीशरण गुप्त ने कहा है- ऐसा लगता है जैसे आदि से अंत तक उसे एक ही व्यक्ति लिखता हो।
नवजागरण काल की पत्रकारिता ने स्थायी महत्व के दो बड़े काम किए। एक, देश और दुनिया के हालात और हलचलों में दिलचस्पी लेने वाला पाठक वर्ग तैयार किया। दो, भारतीय भाषाओं को नया रूप दिया और उनमें समर्थ गद्य की परंपरा का विकास किया। मनीषी संपादक नारायण दत्त जी मानते थे- ‘‘श्रेष्ठ पत्र या पत्रिका संपादक और पाठक का साझा बौद्धिक और रसात्मक पराक्रम होता है।………..भाषा पत्रकार का औजार है। वह कारीगर ही क्या जिसे अपने औजार का ठीक से उपयोग करना न आता हो।’’ किन्हीं शायर ने भाषा के प्रयोग की चुनौती को इस तरह बयाँ किया है-
‘‘अपना कहा जो आप ही समझे तो क्या समझे,
मजा कहने का जब है एक कहे और दूसरा समझे।’’
स्वाधीनता आंदोलन काल के संपादकों ने ध्येय वाक्य अथवा टिप्पणियों के रूप में काव्य पंक्तियों का विलक्षण प्रयोग किया है। इनका प्रभाव सहज ही अनुभव किया जा सकता है। ‘कविवचन सुधा’ में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का प्रयोग दृष्टव्य है-
‘‘खल जनन सो सज्जन दुखी मति होहि, हरि पद मति रहै।
अपधर्म छूटै, स्वत्व निज भारत गहै, सब दुख बहै।।’’
‘सार सुधानिधि’ में सदानंद मिश्र की पहेली देखिए-
‘‘भीतर भीतर सब रस चूसे, बाहर से तन-मन-धन मूसे ;
जाहिर बातन में अति तेज, क्यों सखि साजन? नहिं अँगरेज।’’
गणेशशंकर विद्यार्थी के ‘प्रताप’ के मत्थे पर छपा रहता था-
‘‘जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है,
वह नर नहीं, नर पशु निरा है, और मृतक समान है।’’
दशरथ प्रसाद द्विवेदी के ‘स्वदेश’ का उद्घोष था-
‘‘जो भरा नहीं है भावों से, बहती जिसमें रसधार नहीं,
वह हृदय नहीं है, पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं।’’
पत्रकारों को अपनी भाषा, साहित्य और संस्कृति का ज्ञान होना अपरिहार्य है। अधकचरे ज्ञान से हास्य की स्थिति उत्पन्न होती है। एक उदाहरण- कुछ समय पहले सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका लगाई गई। इसमें भारत के केन्द्रीय विद्यालयों में होने वाली प्रार्थना पर आपत्ति की गई। इसे संविधान के अनुच्छेद 28 (1) के अनुसार मौलिक अधिकारों का उल्लंघन बताया गया। यह प्रार्थना है-
‘‘असतो मा सद्गमय
तमसो मा ज्योतिर्गमय
मृत्योर्मा अमृतमगमय
असत् से सत् की ओर, अंधकार से प्रकाश की ओर, मृत्यु से अमरता की ओर प्रयाण का आह्वान। इसे ‘बृहदारण्यक उपनिषद’ से लिया गया। भारतीय संस्कृति और ज्ञान परंपरा को न समझने वाले और हीन ग्रंथि के शिकार ही ऐसे सवाल उठा सकते हैं। वस्तुतः यह मनुष्यता के चरम उत्कर्ष की कामना है।
भारत के सर्वोच्च न्यायालय के प्रतीक चिह्न में श्रीमद्भागवत्गीता से सूक्ति ली गई है- ‘यतो धर्मस्ततो जय’। भारत का राष्ट्रीय आदर्श- ‘सत्यमेव जयते’ मुण्डकोपनिषद् से लिया गया है। भारतीय दूरदर्शन का ध्येय वाक्य है- ‘सत्यम् शिवम् सुन्दरम्’। भारत सबको समान रूप से स्वीकारने वाला समाज है- ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’। आजकल रास्ता दिखाने का काम जी.पी.एस. (ग्लोबल पोजीशनिंग सिस्टम) करता है। भारतीय मनीषा की सीख है- ‘महाजनो येन गतः स पंथः’। ‘सा विद्या य विमुक्तये’ का संदेश है, विद्या वह जो जड़ता के, संशय के बंधनों से मुक्त करे। भारतीय मनीषा ने आह्वान किया- ‘आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतः’ अर्थात सभी दिशाओं से अच्छे विचार आएँ। भारत की सर्वसमावेशी संस्कृति की कामना है-
‘‘सर्वे भवन्तु सुखिनः
सर्वे सन्तु निरामयाः
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु
मा कश्चिद् दुःख भाग्भवेत्’’।

पत्रकारिता के गुणसूत्र: कुछ दृष्टांत
- सन 1907 में दीपावली के दिन प्रयागराज से उर्दू का साप्ताहिक अखबार ‘स्वराज’ निकला। शांतिनारायण भटनागर संपादक थे। इस अखबार के संपादक की योग्यता का विज्ञापन देखिए- ‘‘एक जौ की रोटी और एक प्याला पानी यह शरहे तनख्वाह है जिस पर स्वराज इलाहाबाद के वास्ते एक एडीटर मतलूब है और जो जेल जाने के लिए तैयार रहे।’’ स्वराज के ढाई बरस में 75 अंक निकले। कुल आठ संपादक हुए। इनमें से छह संपादकों को 94 साल 120 दिन की सजा हुई।
- लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक को ‘केसरी’ के 22 जून, 1908 के अंक में प्रकाशित जिस संपादकीय के कारण छह वर्ष की सजा हुई और उन्हें माण्डले (म्यांमार) की जेल में रखा गया, उसका प्रखर स्वर यह था- ‘‘यह शासन पद्धति ही दोषी है और जब तक एक-एक अफसर को चुन-चुनकर डराया न जाए, तब तक यह पद्धति नहीं बदल सकती। इस किस्म के महत्वपूर्ण तथा व्यापक दृष्टिकोण से चाफेकर भाइयों ने किसी बात को नहीं देखा था। वरन उनका दृष्टिकोण मुख्यतः प्लेग के अत्याचारों तक सीमित था।’’
- वर्ष 1942 की दीवाली की रात थी। जयप्रकाश नारायण छह साथियों के साथ हजारीबाग जेल से भाग निकले। बिहार सरकार ने इसका प्रेस नोट जारी किया। समाचार सेंसर द्वारा स्वीकृत था। लगभग सभी समाचारपत्रों ने सिंगल कॉलम में यह समाचार छापा। छोटा सा शीर्षक लगाया- ‘हजारीबाग जेल से सात कैदी भाग निकले।’ संयोग से विश्वमित्र के दिल्ली संस्करण के संपादक सत्यदेव विद्यालंकार कार्यालय में थे। जब उन्होंने यह प्रेस नोट पढ़ा तो तुरंत समझ गए कि यह तो बहुत बड़ा समाचार है। उन्होंने विश्वमित्र में पहले पेज पर मुख्य बैनर में यह समाचार दिया- ‘जयप्रकाश नारायण हजारीबाग जेल से भाग निकले।’ दूसरे दिन अन्य समाचारपत्रों के संपादकों को अपनी भूल का एहसास हुआ।
- तीसरा संस्करण- जापान के एक भिक्षु ने बौद्ध दर्शन पर सरल भाषा में पुस्तक लिखी। मुद्रण-प्रकाशन लायक धन जमा करने में सात साल लग गए। तभी अकाल पड़ गया। वह धन अकाल पीड़ितों की सहायता में खर्च कर दिया। (पहला संस्करण )। दुबारा धन जमा करने में फिर सात साल लगे। तभी बाढ़ आ गई। फिर वह धन बाढ़ पीड़ितों की सहायता में लगा दिया गया। (दूसरा संस्करण)। तीसरी बार में किताब छप पाई। उस पर तीसरा संस्करण लिखा गया। दर्शन का लोकव्यवहार में कैसा श्रेयस्कर प्रयोग हो सकता है, यह मानवीय संवेदना का अच्छा उदाहरण है।
- दशरथ माँझी (1934-2007)- बिहार में गयाजी जिले के गाँव गेहलौर के रहने वाले मजदूर दशरथ की पत्नी फगुनिया सँकरे पहाड़ी दर्रें में पत्थर की रगड़ से लहूलुहान हो गई, तब दशरथ ने पहाड़ को चीरकर चैड़ा रास्ता बनाने का संकल्प लिया। उन्होंने अकेले छैनी और हथौड़े से पहाड़ी को तोड़कर 110 मीटर (360 फीट) लंबा और 9.1 मीटर (30 फीट ) चैड़ा रास्ता बना डाला। इसके लिए 7.7 मीटर (25 फीट ) ऊँचाई तक पहाड़ी को काटा। इस महान संकल्प को पूरा करने में दशरथ को 22 साल का समय लगा। परिणाम यह निकला कि गयाजी के अत्री और बजीरगंज ब्लाकों के बीच की दूरी 55 किलोमीटर से घटकर 15 किलोमीटर रह गई। यह देखने के लिए फगुनिया तो नहीं रही, परंतु दशरथ माँझी का फगुनिया के प्रति प्रेम का यह स्मारक ताजमहल से हजारो हजार गुना महत्वपूर्ण है।……………….आरंभ के वर्षों में मीडिया ने इस परिघटना पर ध्यान नहीं दिया। इण्डियन एक्सप्रेस में एक छोटी सी खबर पढ़ने को मिली। काफी बाद में जब संकल्प फलीभूत हुआ तब जरूर दशरथ माँझी को असली हीरो के रूप में प्रस्तुत किया जाने लगा। ‘माउण्टमैन’ शीर्षक से फिल्म भी बनी।
विजयदत्त श्रीधर
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