कविता साहित्य की एक महत्वपूर्ण विधा है। कविता लिखना आसान है या कठिन? इसका जवाब प्रायः उस वक़्त सामने आता है, जब कोई ‘अकवि’ कवि बनने की राह पर अपना पहला कदम बढ़ाता है। कहने के लिये आप इसे किसी संवेदनशील व्यक्ति (चाहे वह किसी भी पेशे में हो) द्वारा सृजनात्मक अंतःप्रेरणा से नये क्षेत्र में हाथ आज़माने का सायास प्रयास भी कह सकते हैं या स्वयं स्फूर्त तात्कालिक भावाभिव्यक्ति भी।
जनसंपर्क विभाग में चार दशक की सुदीर्घ सेवा के दौरान सुरेश गुप्ता से मिलने-जुलने वालों को शायद ही कभी इस बात का अहसास हुआ हो कि निरंतर भागदौड़ और ऊहापोह की दैनंदिन व्यस्तता के बीच कभी यह शख़्स अपनी कलम का उपयोग फ़ाइल पर टीप लिखने या हस्ताक्षर करने से इतर किसी और प्रयोजन से भी करता रहा होगा..! मगर हकीकत यह है कि आये दिन नोट पैड पर चलती कलम से किसी कार्यक्रम अथवा बैठक के नोट्स लेने के अलावा अनायास ही कई पंक्तियाँ आकार लेती चली गईं, जिन्हें सार्वजनिक रूप से पढ़े जाने का अवसर अब सेवा निवृत्ति के उपरांत प्रकाशित उनके काव्य संग्रह ‘असमय का अँधेरा’ के माध्यम से आया है।
पुस्तक का स्याह आवरण पृष्ठ सुरेश गुप्ता के हँसमुख मिलनसार स्वभाव की जनसंपर्कीय छवि से मेल नहीं खाता है, इसलिये उनकी कविताओं की तासीर को समझने के लिये अंदर के क़रीब 90 पन्नों पर ध्यान देना लाज़िमी है। कुल जमा 67 कविताओं में से अधिकांश के शीर्षक बिल्कुल छोटे किंतु सटीक हैं। पुस्तक के नाम को अनुप्राणित करती पहली कविता में ही कवि ने गंभीर सवाल उठाते हुए अँधेरे में समय को टटोला है- “अँधेरे से किसी को भला क्या एतराज़ हो सकता है? रात लिखी ही है अँधेरे के नाम; जैसे सुबह, दोपहर, शाम दिन के नाम.. पर बहुत कचोटता है यह असमय का दिन का अंधेरा..”।
अर्चना (?) और मनु (?) को समर्पित पुस्तक में कवि ने न किसी साहित्यकार की लिखी प्रस्तावना की ज़रूरत समझी न भूमिका की। अलबत्ता कवर फ़्लैप पर कवि से चालीस साल से दोस्ती निभाते आ रहे कवि मित्र ध्रुव शुक्ल ने बेबाकी से खुलासा किया है- “सुरेश ने अपनी ये कविताएँ न तो कभी मुझे सुनाईं और न ही कहीं ये प्रकाशित हुईं। गुपचुप रची इन छोटी-छोटी कविताओं को कविता संग्रह के रूप में पाठकों तक पहुँचाने का काम भी सुरेश ने नौकरी से निवृत्त होने के बाद ही किया..”।
कस्बाई माहौल में गुजरे बचपन की यादों को उकेरती इन कविताओं में गाँव की सूखती नदी को देखकर उपजी वेदना भी है और दोस्तों से मिलने और बिछड़ने का आनंद व अवसाद भी। माता-पिता के होने और न रहने के सुख दुःख का कोमल अहसास भी इन कविताओं में परिलक्षित होता है। मुख्य शीर्षकीय कविता में कवि का दो टूक नज़रिया- “असमय के अँधेरे में गहराती असमानता की अनुभूति अखरती नहीं है..” विरक्त भाव को दर्शाता है।
‘कवि होने की बात’ शीर्षक से पुस्तक के आमुख में ही सुरेश गुप्ता पाठकों को आगाह कर देते हैं कि उनकी इन कविताओं को काव्य रचना के प्रतिमानों पर तौला न जाये क्योंकि जिन गड्ड-मड्ड हालात और मनःस्थिति में इन्हें अनायास ही रचा गया वहाँ कोलाहल भी था और तनिक नीरव शांति भी..! भला हो कवि-पत्रकार मित्र सुधीर सक्सेना का, जिन्होंने सुरेश गुप्ता को उनके व्यक्तित्व के इस पहलू को काव्य संग्रह के रूप में पाठकों तक पहुँचाने का की प्रेरणा दी।
काव्य संग्रह की दूसरी ही रचना का शीर्षक है- “कविता, जिसे कोई नहीं पढ़ना चाहता” पर वास्तव में कविता सबको पढ़ना चाहती है। “कविता बारिश में भीगना भी चाहती है और गर्मी में तपना भी..! उम्मीद कैसी..? किससे..? क्यों..? करने वाले ही जानते होंगे पूरी होगी या नहीं? उम्मीद को भी पता नहीं..!! रात ने एक दिन पूछ ही लिया दिन के अँधेरे से, मुझे क्यों करते हो बदनाम..? होना नहीं था पर हो रहा- पुल टूट रहे रिश्तों के.. राहों के..”!! यह बानगी है सुरेश गुप्ता की ‘अनगढ़’ (?) कविताओं की।
“कहते हैं समय बड़े-बड़े ज़ख़्मों को भर देता है पर समय जो ज़ख़्म दे उनका क्या? रात का सन्नाटा पहले सुबह का हुआ.. फिर दिन का.. और शाम होते-होते पूरे दिन का..!! उन दिनों रातें जगाती ही नहीं रुलाती भी थीं; शुक्र था दिन में नींद आ जाती थी। बँधी मुट्ठी लाख की.. खुल गई तो ख़ाक की.. पर मुट्ठी बँधे तो..! एक ही पेड़ के पत्ते और फूल.. पत्ते झरे, गिरे, रुंदे पैरों तले.. फूल चुने गये माला में गूँथे गये..! यही है नियति का खेल..”!! – ये कविताएँ सचमुच पढ़ी जाने योग्य हैं।
अपने सहकर्मी मित्र मनोज पाठक को समर्पित कविता ‘उसकी बात ही कुछ और थी’ में भाव विभोर कवि हृदय कह उठता है- “साथ था तो हरदम अपने साथ होने की याद दिलाता था और अब जब नहीं है वो तो अपने नहीं होने की भी हरदम दिलाता है याद..”! एक अन्य करीबी दोस्त महेन्द्र गगन के लिये लिखी कविता- “मेरे लिये महेंद्र का होना कविता का होना था.. महफ़िल का होना था.. किताबों का छपना और कुमार गंधर्व का कबीर गायन/ मेहँदी हसन की ग़ज़ल सुनना था.. कला संस्कृति की शामों में अनिवार्य उपस्थिति का होना था.. दोस्तों के दुःख दर्द में शामिल होना था.. मेरे लिये महेन्द्र गगन का होना नेक इन्सान होने का उत्सव होना था..” रिक्त स्थान को टटोलने जैसी है।
“पेड़ नहीं चाहते बड़ा होना.. पेड़ों को मालूम है बड़ा होने का अर्थ है- कटना और सिर्फ़ कटना..”! “पिता की कुर्सी उनके न रहने पर पिता हो गई थी.. अब जब माँ भी नहीं रही; पिता की कुर्सी बेटे के कमरे में रखकर निश्चिंत हो गया हूँ.. अब बेटा ठीक मेरी तरह मेरे पिता की निगहबानी में है..”। इस तरह की कविताएँ संवेदना के स्तर पर मन को छूने वाली हैं।
‘कोरोना’ शीर्षक से लिखी कविता आज भी दिल में टीस जगाती है- “न हथियारों से.. न आग से.. न पानी से.. न तूफ़ान से.. हम बस मर रहे थे एक-दूसरे की साँस से..! साँसें जो जरूरी थीं ज़िंदा रहने के लिये; मरने के काम आ रही थीं..”! या “इस सब कुछ खर्च कर देने की होड़ वाले समय में अगर बचा सको तो बचा लेना थोड़े ग़म.. थोड़ी खुशियाँ.. थोड़ी संवेदना.. और सबसे बढ़कर अपना स्व और ईमान..” जैसी कविताएँ दिल को झकझोरती हैं। अंत में “हाशिये पर होना उतना बुरा नहीं जितना समझा जाता है.. हाशिये की अपनी महत्ता है.. मुख्य धारा के तनाव से बचाव है.. यहाँ किसी की नज़र नहीं लगती.. नज़र को हाशिया उतना ही तुच्छ लगता है जितना मुख्यधारा को.. नैतिकता को तो हाशिये का पता भी नहीं मालूम.. वह तमाम तरह के अतिक्रमण और वर्जनाओं से मुक्त जो है..”! शीर्षकीय कविता कुठाराघात करती मानवीय प्रवृत्तियों का प्रतिकार करती है।
23 अगस्त 1960 को माचलपुर, जिला राजगढ़ में जन्में.. खिलचीपुर में पढ़े-लिखे.. अस्सी के दशक की शुरुआत में भोपाल आकर नवभारत में नगर प्रतिनिधि के बतौर पत्रकारिता में पहला कदम धरते हुए सरकारी नौकरी में सहायक जनसंपर्क अधिकारी से अपर संचालक के ओहदे पर पहुँचने वाले सुरेश गुप्ता की सृजनात्मक उपलब्धियों को असमय के अंधेरे से उजाले में आने के बाद अब किसी और पहचान की दरकार नहीं है। है न..!

विनोद नागर
(वरिष्ठ पत्रकार, लेखक, समीक्षक एवं स्तंभकार)
शीर्षक: असमय का अँधेरा (काव्य संग्रह)
लेखक: सुरेश गुप्ता
प्रकाशक: प्रथमेश, दृष्टि एन्क्लेव, बावड़िया कलां, भोपाल
पृष्ठ संख्या: 90 कीमत: 100 रुपये