समग्र विकास के द्वार खोलता है शिक्षक

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भारतभूमि पर शिक्षा का संबंध केवल अक्षर-ज्ञान से नहीं, अपितु आत्म-ज्ञान और धर्म-पथ से रहा है। यहाँ शिक्षक को केवल जानकारी का दाता नहीं, बल्कि ‘आचार्य’ कहा गया है, जो अपने आचरण से शिष्य को सही मार्ग दिखाता है। 5 सितंबर का दिन, जो भारत के द्वितीय राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के सम्मान में मनाया जाता है, हमें इसी प्राचीन गुरु-शिष्य परंपरा का स्मरण कराता है। उनका मानना था कि गुरु का गौरव उपाधियों में नहीं, बल्कि समाज के नव-निर्माण और राष्ट्र के भविष्य को गढ़ने में है। यह विचार उस सनातन सत्य का प्रतीक है, जहाँ गुरु को ब्रह्मा, विष्णु और महेश के समतुल्य माना गया है।

ज्ञान जब कर्म बनता है, तभी उसकी सार्थकता है

शिक्षा की पूर्णता तब होती है, जब ज्ञान केवल मस्तिष्क में न रहकर आचरण में उतरता है। महाभारत के युद्ध में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को यही समझाया था। जब अर्जुन मोह-वश कर्म से विमुख हो रहे थे, तब श्रीकृष्ण ने उन्हें ‘ज्ञानयोग’ और ‘कर्मयोग’ का मर्म समझाया।
शिक्षा का अर्थ केवल तथ्यों को जानना नहीं, बल्कि उस ज्ञान के आधार पर अपने कर्तव्य का पालन करना है। जब ज्ञान व्यवहार में प्रकट होता है, तभी वह व्यक्ति और समाज को सशक्त बनाता है। यही शिक्षा की सच्ची सार्थकता है।

गुरु: राष्ट्र और समाज का शिल्पी

शिक्षक को प्राचीन काल से ही समाज का शिल्पी माना गया है। आचार्य द्रोण ने पांडवों और कौरवों को केवल शस्त्र विद्या नहीं सिखाई, बल्कि उन्हें युद्ध-नीति, धर्म और कर्तव्य का ज्ञान भी दिया। इसी प्रकार, आचार्य चाणक्य ने एक साधारण बालक चंद्रगुप्त को अखंड भारत का सम्राट बनाया। उनका ज्ञान केवल राज-पाठ तक सीमित नहीं था, बल्कि उसमें धर्म और राष्ट्रहित का दृष्टिकोण था। वे जानते थे कि एक सशक्त राष्ट्र का निर्माण तभी संभव है, जब उसके नागरिक ज्ञानी,अनुशासित और चरित्रवान हों।

ज्ञान: दरिद्रता का नाश

शिक्षा केवल व्यक्तिगत उत्थान का साधन नहीं, बल्कि पीढ़ियों की गरीबी को समाप्त करने का मार्ग है। एक ज्ञानी व्यक्ति न केवल अपने परिवार का उद्धार करता है, बल्कि पूरे समाज के लिए प्रेरणा का स्रोत बन जाता है।
जैसा कि श्रीकृष्ण ने गीता में कहा: “न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।” अर्थात ज्ञान के समान इस संसार में कुछ भी पवित्र नहीं है।
यह ज्ञान ही है, जो व्यक्ति को अज्ञान, भय और दरिद्रता से मुक्ति दिलाता है।

शिक्षा की कसौटी: चरित्र और धर्म

आधुनिक युग में इंटरनेट और तकनीक ने ज्ञान को सर्वसुलभ बना दिया है, लेकिन क्या यह ज्ञान चरित्र और आचरण में भी उतर रहा है? सच्ची शिक्षा वही है, जो व्यक्ति को नैतिक, जिम्मेदार और संवेदनशील बनाए। महाभारत में भीष्म पितामह और विदुर जैसे चरित्र हमें सिखाते हैं कि ज्ञान और धर्म का साथ होना कितना आवश्यक है। यदि ज्ञान केवल स्वार्थपूर्ति का साधन बन जाए, तो वह व्यक्ति और समाज दोनों का पतन करता है।
आज शिक्षा को केवल रोजगार का साधन मान लिया गया है, लेकिन यदि यही एकमात्र लक्ष्य हो तो समाज केवल कुशल पेशेवर तो पैदा करेगा, पर धृतराष्ट्र जैसे मोहग्रस्त और दुर्योधन जैसे अहंकारी पात्र भी जन्म लेंगे। गुरु का यह दायित्व है कि वह विद्यार्थियों को सिखाए कि ज्ञान का उपयोग आत्म-लाभ के साथ-साथ समाज और राष्ट्रहित में भी होना चाहिए, जैसा कि कृष्ण ने अर्जुन को धर्म-युद्ध का पाठ पढ़ाकर सिखाया।
यह शिक्षक दिवस हमें यह संकल्प लेने का अवसर देता है कि हम अपनी शिक्षा को केवल प्रमाणपत्रों तक सीमित न रखें। जब हर विद्यार्थी अपने ज्ञान को आचरण में बदलेगा और समाज की सेवा में लगाएगा, तभी वह शिक्षा की सार्थकता को चरितार्थ करेगा।
“सच्ची शिक्षा वह है, जो हमें धर्म के मार्ग पर चलने, कर्म करने और समाज के प्रति अपने दायित्व को निभाने की प्रेरणा दे।”

राजकुमार जैन(स्वतंत्र विचारक और लेखक)

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