पंचायती राज- ऐतिहासिक पृष्ठभूमि : वर्तमान परिदृश्य

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पंचायत व्यवस्था वैदिक काल से ही हमारे सामाजिक जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा रही है. ग्राम्य जीवन में पंचायत व्यवस्था की प्रतिष्ठा एवं स्वीकार्यता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि गांव-समाज में पंचों को परमेश्वर का दर्जा दिया जाता रहा है. समय-समय पर भारत भ्रमण करने वाले विदेशी यात्रियों एवं विद्वानों यथा मेगस्थनीज, फाह्यान, सर हर्वर्ट रिजले, ट्रैवनियर आदि ने भी अपने यात्रा वृत्तांतों एवं विवरणों में भारत की पंचायत व्यवस्था की भूरि-भूरि प्रशंसा की है. उन्होंने लिखा है- “पंचायतें केवल ग्राम्य जीवन का ही नहीं, अपितु संपूर्ण भारतीय जन- जीवन का अंग हैं.गांवों की एकता तथा सहयोग की भावना प्रशंसनीय है. प्रत्येक गांव अपने में एक छोटा सा संसार है.”
सन् 1812 में ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा भारत के गांवों के अध्ययन के लिए नियुक्त कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में लिखा था-” इस देश में आदि काल से सादे ढंग का स्थानीय शासन प्रचलित है.लोगों ने एक राजा के आने या दूसरे के चले जाने को कभी अनुभव नहीं किया.राज्य बने और टूटे,पर ग्राम वासियों ने अपने इस स्वायत्त शासन में कोई अवरोध नहीं पाया.”
पंचायत व्यवस्था की यह प्रतिष्ठा इतिहास में मुगल काल के नाम से उल्लेखित कालखंड के प्रारंभिक वर्षों तक देखने को मिलती है. कालांतर में राजनीतिक प्रभुत्व के लिए निरंतर संघर्ष एवं आर्थिक शोषण की नीतियों ने केंद्रीय सत्ता एवं ग्रामों के बीच सेतु का काम करने वाली इस प्राचीन प्रणाली को कमजोर करना शुरू कर दिया.
भारतीय जीवन पद्धति की तमाम उत्कृष्ट परंपराओं के समान ही स्थानीय शासन की इस महान परंपरा का तेजी से क्षरण प्रारंभ हुआ अंग्रेजों के शासन काल में. अंग्रेजों की केंद्रीकृत शासन व्यवस्था एवं दमनकारी नीतियों की वजह से पंचायती शासन पद्धति को गहरा आघात पहुंचा, तथापि गांवों में पंचायत और पंचों का सम्मान बना रहा और कमोवेश स्थानीय विवादों को निपटाने में परंपरागत पंचायत प्रणाली सक्रिय भूमिका का निर्वहन करती रही.हां,इस दौरान अंग्रेजी शासन के स्थानीय से लगाकर केंद्रीय प्रतिनिधियों तक ने भारत की इस परंपरागत व्यवस्था को कोई महत्व नहीं दिया.
स्वतंत्रता आंदोलन के मंच पर महात्मा गांधी के पदार्पण के साथ ही “ग्राम स्वराज” का मुद्दा पुनः केंद्र में प्रतिष्ठित हुआ. गांधी जी ने हमेशा ही भारत की राजनीतिक आज़ादी के साथ-साथ गांवों की स्वायत्तता एवं आत्मनिर्भरता का ना केवल सपना देखा अपितु अपने हर आंदोलन में इन दोनों मुद्दों को साथ लेकर चले.उनका मानना था कि जब तक भारत के गांव आत्मनिर्भर एवं स्वायत्त नहीं होंगे,आज़ादी अधूरी मानी जाएगी. उनके “ग्राम स्वराज” की संकल्पना और “स्वदेशी” के प्रति प्रबल आग्रह इसी दिशा में उठाए गए कदम थे.
गांधीजी का स्पष्ट मत था – “सच्चा स्वराज केवल चंद लोगों के हाथों में सत्ता आने से नहीं बल्कि इसके लिए सभी में क्षमता आने से आएगा.केंद्र में बैठे केवल बीस व्यक्ति सच्चे लोकतंत्र को नहीं चला सकते.इसको चलाने के लिए निचले स्तर पर प्रत्येक गांव के लोगों को शामिल करना पड़ेगा”

आज़ादी के बाद उम्मीद तो यह थी कि स्थानीय शासन की यह अनुभूत पद्धति संविधान में ना केवल उचित स्थान पाएगी अपितु संविधान का प्रमुख आधार भी बनेगी परंतु ना जाने क्यों यह केवल नीति निर्देशक तत्त्वों में स्थान पा सकी.
इस अनदेखी का परिमार्जन हुआ 73वें संविधान संशोधन के माध्यम से,जब तीन स्तरीय पंचायत राज व्यवस्था को संवैधानिक दर्जा दिया गया. 1995 तक प्रायः समस्त राज्यों में संविधान संशोधन की मंशा के अनुरूप तीन स्तरीय पंचायत राज संस्थाएं अस्तित्व में आ गईं और इस तरह भारत में पंचायत राज व्यवस्था का एक नया दौर प्रारंभ हुआ.
लोकतंत्र में जनता की प्रत्यक्ष भागीदारी तथा सत्ता का विकेंद्रीकरण जैसे लोकलुभावन नारों के साथ पंचायत राज व्यवस्था अस्तित्व में तो आ गई लेकिन अभी भी अनेक विसंगतियां समाधान तलाश रही हैं.
इस व्यवस्था को लागू करते समय नीति नियंताओं ने सोचा था कि ग्राम सभा के माध्यम से लोग केवल समस्याओं का जिक्र करने वाले नहीं,अपितु उनके समाधान की राह खोजने वाले बनेंगे,और ग्राम सभा गांव के सर्वांगीण विकास संबंधी विचार-विमर्श का प्रमुख मंच,लेकिन देखने में आता है कि ग्रामीणों में पंचायत चुनावों के दौरान दिखने वाला उत्साह ग्राम सभाओं के लिए नज़र नहीं आता.
इस संबंध में पंचायत राज प्रतिनिधि कहते हैं कि लोगों की ग्राम सभाओं में कोई रुचि नहीं है और सूचना के बाद भी वह ग्राम सभा में नहीं आते जबकि ग्रामीणों की शिकायत है कि उन्हें ग्रामसभाओं के आयोजन के बारे में पता ही नहीं चलता.
निर्वाचित जनप्रतिनिधि भी केवल निर्माण कार्यों को ही महत्व प्रदान करते हैं. सामाजिक सरोकारों और ग्राम स्वराज के उच्च आदर्शों के प्रति उनका रवैया प्रायः उदासीनता का ही रहता है.
पंचायत राज व्यवस्था के लक्ष्यों को हासिल करने के लिए दरअसल इसी विरोधाभास का शमन करने की आवश्यकता है. एक ओर जहां निर्वाचित प्रतिनिधियों में पंच परमेश्वर का उदात्त भाव पुनर्जागृत करने की आवश्यकता है,वहीं दूसरी ओर निर्वाचकों,जो ग्राम सभा के पदेन सदस्य होते हैं, के मन में यह भाव पैदा करना होगा कि ग्राम सभा का आयोजन केवल पंच-सरपंच की नहीं अपितु प्रत्येक जागरूक नागरिक की जिम्मेदारी और कर्तव्य है.
लोगों को यह भी समझना होगा कि भौतिक विकास और निर्माण कार्यों के लिए ग्राम भले ही सरकार पर निर्भर रहें,लेकिन जल,जंगल और जमीन से संबंधित स्थानीय समस्याओं के साथ-साथ सामाजिक समस्याओं का समाधान स्थानीय लोग ही बेहतर तरीके से कर सकते हैं और ग्राम सभा इसके लिए सर्वाधिक उपयुक्त मंच हैं.

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1 Comment
  • असल में ग्राम सभा के औपचारिक आयोजन होने लगे हैं, पहले से तय प्रस्ताव पर दो तीन लोग निर्णय लेते हैं, दूसरे लोगों को केवल हस्ताक्षर करने बुलाया जाता है। यही बजह है कि आमजन की रूचि नहीं रहती

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