अथ वैत्रवती व्यथा-कथा

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पुरानी लोककथा है। एक बार जंगल में आग लगी। कोहराम मच गया। छोटे-बड़े सभी पशु-पक्षी जान बचाकर भागे। सुरक्षित स्थान पर पहुंचकर आग कैसे लगी?कौन जिम्मेदार है? पहले कब-कब आग लगी थी? जैसे विषयों पर गंभीर चर्चा करने लगे।
अचानक उन सब की नजर एक छोटी सी चिड़िया पर पड़ी जो निकट के जल स्रोत से अपनी चोंच में पानी भरकर जंगल की विकराल आग को बुझाने की जद्दोजहद कर रही थी। उन्हें चिड़िया की मूर्खता पर हंसी आई। उन्होंने चिड़िया से कहा – अरी मूर्ख चिड़िया! तू यह क्या कौतुक कर रही है? क्या तू नहीं जानती कि तेरी चोंच के चार बूंद पानी से जंगल की आग तो नहीं बुझेगी, तू जरूर झुलस सकती है। यह मूर्खता छोड़ और आग के शांत होने का इंतजार कर।
चिड़िया बोली – मैं जानती हूं कि मेरे चार बूंद पानी से आग नहीं बुझने वाली। मुझे यह भी मालूम है कि ज़रा सी असावधानी से मेरी जान भी जा सकती है। लेकिन मैं यह भी भली भांति जानती हूं कि जब भी इस जंगल में लगी आग की चर्चा होगी, मेरे नाम का उल्लेख तमाशबीनों में नहीं,आग बुझाने का प्रयास करने वालों में किया जाएगा।

ऐसी ही एक कोशिश बेतवा नदी को सदानीरा और स्वच्छ बनाने के लिए विगत कुछ वर्षों से की जा रही है।

पुराणों तथा प्राचीन संस्कृत साहित्य में वेत्रवती
का उल्लेख महत्वपूर्ण नदी के रूप में मिलता है। स्थानीय लोग इसे ‘बेत्रवती गंगा’ कहकर इसके प्रति अपनी आस्था व्यक्त करते हैं।
बेतवा अपने किनारे बसी आबादी और खेतों की प्यास तो बुझाती ही रही है, इसने संस्कृति को भी अभिसिंचित किया है।
चरण तीर्थ (विदिशा) तथा रामराजा मंदिर (ओरछा) बेतवा के तट पर स्थित प्रमुख धार्मिक स्थल हैं।

बेतवा भोपाल और रायसेन जिले की सीमा पर स्थित झिरी ग्राम से निकलती है और रायसेन,विदिशा, सागर, गुना तथा टीकमगढ़ जिलों से होती हुई उत्तर प्रदेश के हमीरपुर जिले में यमुना नदी में मिल जाती है। बेतवा नदी की कुल लंबाई 565 किलोमीटर है। मध्य प्रदेश में इसका प्रवाह 220 किलोमीटर है।

जैसा कि अन्य नदियों के साथ हुआ है,बेतवा की जलधारा भी लगातार सिकुड़ती जा रही है; प्रदूषित होती जा रही है। इसके लिए प्रमुख रूप से जिम्मेदार हैं – जल ग्रहण क्षेत्र में भूजल का अंधाधुंध दोहन,घटते वन और शहरी अपशिष्ट तथा कारखानों के दूषित पानी का नदी में मिलना।

प्रदूषण का एक कारण स्थानीय लोगों की नदी के प्रति उदासीनता भी है। लोगों ने बैत्रवती गंगा कहकर इसकी पूजा तो की, लेकिन इसकी सेहत का ध्यान नहीं रखा।

बेतवा की दुर्दशा के प्रति समाज और सरकार दोनों को आगाह करने वालों में प्रमुख नाम है स्व. श्री मदन लाल शर्मा का। बेतवा उनकी दिनचर्या में शामिल थी। बेतवा प्रेम के चलते उनका नाम ही ‘बेतवा बाबा’ पड़ गया था।

बर्षों की उपेक्षा के बाद 11 जनवरी 2003 का दिन आया जब विदिशा के कुछ जागरूक बेतवा प्रेमी नागरिकों ने बेतवा शुद्धिकरण अभियान के लिए श्रमदान का सिलसिला प्रारंभ किया।
इस अभियान को विदिशा की तत्कालीन कलेक्टर श्रीमती सुधा चौधरी का वरदहस्त मिला और देखते ही देखते यह एक जन आंदोलन बन गया।
मैं स्वयं पहले दिन से इस अभियान का सहभागी रहा हूं। उस दौरान सैकड़ों लोगों की दिनचर्या बेतवा तट पर श्रमदान से प्रारंभ होती थी।

बेतवा शुद्धिकरण अभियान ने जहां सैकड़ों लोगों को श्रमदान जैसी सामुदायिक गतिविधि का पाठ पढ़ाया वहीं समाज के नकारात्मक तत्वों की भी पहचान कराई।
कई बार ऐसा हुआ जब महीनों के श्रमदान से साफ सुथरे हुए घाट आस्था के नाम पर गंदगी से पाट दिए गए। रोके जाने पर विवाद की स्थिति बनी। कई बार कचरा फेंकते समय लोगों को यह कहते हुए भी सुना गया – क्या फर्क पड़ता है! श्रमदानी रोज सफाई करते तो हैं।
लोगों का ऐसा गैरजिम्मेदाराना व्यवहार श्रमदानियों को हतोत्साहित करता था। लेकिन वह अपने ध्येय से भटके नहीं।

श्रीमती सुधा चौधरी के स्थानांतरण के बाद श्रमदानियों की संख्या में कमी आई। जो शासकीय विभाग और उनके कर्मचारी अपनी बारी आने पर बड़ी संख्या में श्रमदान के लिए आते थे, उनका आना लगभग बंद हो गया। लेकिन मुहिम रुकी नहीं। जुनूनी श्रमदानियों ने इसे जारी रखा। तब से प्रारंभ हुआ श्रमदान का यह सिलसिला विदिशा में प्रतिदिन और गंजबासौदा में साप्ताहिक रूप से अब भी जारी है।

श्रमदान की इस मुहिम को व्यापक सराहना प्राप्त हुई। नोबेल पुरस्कार विजेता कैलाश सत्यार्थी, सर्वोदयी चिंतक एस एन सुब्बाराव, मैग्सेसे अवार्ड से सम्मानित राजेंद्र सिंह राणा, ख्यात समाजसेवी एवं चिंतक गोविंदाचार्य, पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान जैसी अनेक हस्तियां इस अभियान की गवाह बनीं। देश विदेश के अनेक शोधार्थियों ने भी बेतवा शुद्धिकरण अभियान का जायजा लिया।

स्वयंसेवी संस्थाओं के अखिल भारतीय सम्मेलन के दौरान इस अभियान को देश के तत्कालीन 10 महत्वपूर्ण कार्यों में शुमार किया गया था।

कुछ बुद्धिमान लोग ऐसे भी थे जो इस पूरे अभियान को निरर्थक मानते थे। उनका कहना था कि जब तक शहरों के गंदे नाले और मंडीदीप की औद्योगिक इकाइयों से निकलने वाला केमिकल युक्त पानी नदी में मिलता रहेगा तब तक कोई भी सफाई अभियान निरर्थक है।
बात तार्किक रूप से सही है,लेकिन सामाजिक जिम्मेदारी के निर्वहन और बेतवा के प्रति आस्था के प्रकटीकरण का श्रमदान से अच्छा भला और क्या माध्यम हो सकता है?
फिर एक संभावना यह भी तो रहती है ,कि हो सकता है किसी दिन जिम्मेदारों की अंतरात्मा जागे और बेतवा उत्थान का श्रमदानियों का सपना पूरा हो।

गंदे नाले और औद्योगिक इकाइयों से निकलने वाला केमिकल युक्त पानी अब भी बेतवा में मिल रहा है। और अब भी कुछ जुनूनी श्रमदानी जिम्मेदारों की अंतरात्मा जागने की उम्मीद में सुबह-सुबह बेतवा तट पर पहुंच जाते हैं।

ऐसा नहीं है कि जिम्मेदार लोग इससे नावाकिफ हैं। बेतवा उत्थान समिति समय-समय पर ज्ञापनों के माध्यम से राजनीतिक और प्रशासनिक दोनों ड्योढियों पर अर्जियां लगाती रही है।
मुख्यमंत्री से लगाकर मुख्य सचिव एवं अन्य आला अफसरों तक के दौरे बेतवा तटों पर हो चुके हैं, लेकिन समस्या आज भी यथावत है।

अप्रैल 2025 में बेतवा नदी एक बार फिर तब सुर्खियों में आई जब इसकी धार उद्गम स्थल (झिरी) पर ही विलुप्त हो गई। अखबारों और चैनलों में प्रमुखता से समाचार प्रसारित होने के बाद सरकारी खेमे में थोड़ी हलचल हुई। लेकिन सरकार के अपने तौर तरीके हैं। ठोस काम तो जुनूनी लोग ही कर सकते हैं, वह भी स्थानीय लोगों को साथ लेकर।

जलपुरुष के नाम से विख्यात राजेंद्र सिंह राणा मुहावरे की भाषा में कहा करते हैं – “जब तक समाज पानीदार था, कभी पानी की समस्या नहीं रही। जिस दिन से पानी का काम सरकारी विशेषज्ञों के हाथ में गया,हर जगह पानी की समस्या है।

संतोष की बात है कि कुछ पानीदार लोग बेतवा के उद्गम स्थल को पुनरप्रवाहित करने, उसे सदानीरा बनाने और स्वच्छ बनाए रखने के लिए पूरी गंभीरता के साथ जुटे हुए हैं।

परिणाम आने में कितना भी समय लगे , इतना तय है कि इन जुनूनियों का नाम बेतवा को बचाने का प्रयास करने वालों में लिखा जाएगा।

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1 Comment
  • कमोवेश यही स्थिति गाडरवारा की शक्कर नदी, साईं खेड़ा की दुधी, डोभी की पांडाझिर, चीचली की सीता रेवा, नरसिंहपुर की सींगरी की भी हो गई।काश ये नदियां भी पुनर्जीवित हों तो और पूरे साल इनमें पानी बना रहे।

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